अनुराग दीक्षित

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चंद रोज पहले पार्टी सांसदों को संसद सत्र के दौरान सदन में ज्यादा से ज्यादा उपस्थित रहने की हिदायत दी। उन्होंने साफ कहा कि वह बाकी सभी काम कर सकते हैं, लेकिन सभी गैरहाजिर सांसदों की जगह सदन में मौजूद नहीं हो सकते। खबर यह भी आई कि वह कभी भी किसी भी सांसद को तलब कर सकते हैं और सदन में ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराने वाले सांसदों को ही प्रधानमंत्री से मुलाकात में तरजीह मिलेगी। प्रधानमंत्री की इस सख्ती का तात्कालिक असर नजर भी आया। अगले दिन संसद के दोनों सदनों में भाजपा सांसदों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक रही। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने सदन में उपस्थित रहने के लिए पहली बार ऐसी सख्त हिदायत दी हो। 2014 में पहले ही दिन संसद भवन के मुख्य द्वार पर संसद को झुककर नमन करते नरेंद्र मोदी की तस्वीर हम सभी के जेहन में अभी तक कैद है। अपने पहले भाषण में ही प्रधानमंत्री ने संसदीय व्यवस्था और संविधान के महत्व पर जोर दिया था। 2014 के शीतकालीन सत्र में ही उन्होंने मंत्रियों को सत्र के दौरान विदेशी दौरों पर नहीं जाने और अधिक से अधिक सत्र में मौजूद रहने का निर्देश दिया था। संसदीय दल की बैठकों में गैरहाजिर रहने वाले सांसदों की प्रधानमंत्री कई बार क्लास तक ले चुके हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संसदीय व्यवस्था में हालात तभी सुधरते हैं जब सदन का मुखिया स्वयं गंभीर रहे। जवाहरलाल नेहरू से जुड़े ऐसे ढेरों किस्से आज भी मिसाल हैं, जिसमें सदन के प्रति उनकी गंभीरता साफ झलकती है। फिर चाहे वह प्रश्नकाल में स्वयं उपस्थित रहने की बात हो या विपक्ष को गंभीरता से लेने की। जाहिर है कि दशकों बाद बतौर प्रधानमंत्री मोदी भी संसदीय व्यवस्था के संदर्भ में नई इबारत लिखते दिख रहे हैं जहां अनुशासन बोध के साथ ही अनुभव भी विद्यमान है। हालांकि संसदीय इतिहास में पहली बार ऐसी कोशिशें नहीं की जा रही हैं। पिछली सरकार में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी सांसदों को सदन में उपस्थित रहने को कहा था, मगर उनका निर्देश अमल में नहीं आ पाया। वर्ष 2009 का एक वाकया मिसाल है जब 60 मिनट के प्रश्न काल को महज 27 मिनट में स्थगित करना पड़ा था। हैरानी की बात यह थी कि नदारद रहने वाले सांसदों में से अधिकांश सत्तारूढ़ कांग्रेस के ही थे। सदन के प्रति सांसदों को जवाबदेह बनाने के लिए मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी ढेरों प्रयास किए हैं। इस कड़ी में नवनिर्वाचित सांसदों के लिए दो बार प्रबोधन कार्यक्रमों का आयोजन हो या संविधान दिवस के अवसर पर संविधान और संसदीय व्यवस्था पर विशेष चर्चा की अनूठी पहल हो। विभिन्न विषयों पर सांसदों के ज्ञानवर्धन के लिए अध्यक्षीय शोध जैसे कदम की जरूरी शुरूआत हो या फिर नवनिर्वाचित महिला सांसदों से व्यक्तिगत मुलाकात कर उन्हें प्रोत्साहित करने की कोशिश रही हो। लोकसभा अध्यक्ष के इन अहम प्रयासों का व्यापक प्रभाव दिखा भी है। पहली बार चुनकर आए 300 नए सांसदों का इससे काफी मनोबल बढ़ा। मौजूदा 16वीं लोकसभा के पहले बजट सत्र में ही 246 नवनिर्वाचित सांसदों द्वारा चर्चा में हिस्सेदारी इसका पुख्ता प्रमाण भी है। तब से अब तक हालात अपेक्षाकृत बेहतर हुए हैं। थोड़ी बहुत चुनौतियों के बीच मौजूदा लोकसभा कामकाज के हिसाब से पिछले कई वर्षों के रिकॉर्ड तोड़ चुकी है।
सदन में सांसदों की गैरहाजिरी कोई नया मसला नहीं है। वर्षों से यह मसला अक्सर उठता रहा है। उठे भी क्यों न? सांसदों की अपनी व्यावहारिक दिक्कतें जो हैं। जनप्रतिनिधियों को सत्र के दौरान ही अपने संसदीय क्षेत्र के विकास से जुड़े ढेरों काम निपटाने होते हैं जिसके लिए केंद्रीय मंत्रियों से लेकर आला अधिकारियों और विभिन्न कार्यालयों तक भागदौड़ करनी पड़ती है और इसके लिए भी उसी दिनचर्या से वक्त निकालना पड़ता है। इसके साथ ही संसदीय क्षेत्र से आने वाले आगंतुकों की समस्याएं सुनकर उनका हल निकालने की जद्दोजहद भी करनी पड़ती है। इस बीच तमाम अन्य कार्यक्रमों में भी शामिल होना होता है। सुदूर क्षेत्र के अधिकांश सांसदों को सत्र के दौरान हर शुक्रवार अपने संसदीय क्षेत्र जाना होता है और फिर सोमवार सुबह दिल्ली वापस लौटना पड़ता है। यानी सक्रिय सांसदों की व्यस्तताएं देखें तो लगेगा कि 24 घंटे भी उनके लिए कम हैं। इस लिहाज से संसद से गैरहाजिर प्रत्येक सांसद को गैर जिम्मेदार मानना भी गलत होगा। असल में यहां सवाल प्राथमिकता और समन्वय का है। सवाल खुद अपनी गंभीरता समझने का है। सवाल एक बेहतर सांसद के तौर पर खुद को साबित करने का है। सवाल संसदीय क्षेत्र की औसतन 18 लाख आबादी से खुद को मिली संसदीय जिम्मेदारी के निर्वहन का है। तमाम चुनौतियों और व्यस्तता के बावजूद सांसदों को समझना होगा कि मोदी उस दौर में सांसदों से सदन के प्रति गंभीर रहने की वकालत कर रहे हैं जब बीते कई दशकों से जनप्रतिनिधियों की छवि समाज के बड़े हिस्से में अपेक्षाकृत बेहतर नजर नहीं आती।
हाल में एक नई बहस सुर्खियों में है। सवाल है कि सांसदों को पेंशन जैसे लाभ मिलने चाहिए या नहीं? मामला अदालत में है, लेकिन इस मसले पर जनता की राय का बड़ा हिस्सा शायद ही सांसदों के पक्ष में हो। इसमें बेवजह का व्यवधान, सदन की खाली पड़ी कुर्सियां उनकी अलग छवि बनाती हैं। रही-सही कसर शिवसैनिक रवींद्र गायकवाड़ जैसे सांसदों के आचरण से पूरी हो जाती है। इन छवियों को खंडित करने की जिम्मेदारी भी सांसदों की ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री द्वारा सदन में अधिक से अधिक उपस्थित रहने की अपील का असर केवल भाजपा या राजग ही नहीं, बल्कि विपक्षी सांसदों पर भी होगा। ध्यान रहे कि संसद की कार्यवाही साल के 365 दिनों में बमुश्किल 70-75 दिन ही चलती है। इसका अर्थ है कि शेष 300 दिनों में वे अपनी आजादी के हिसाब से काम कर सकते हैं। यहां बड़ा सवाल खुद की छवि को बचाने का है।
[ लेखक लोकसभा टीवी से संबद्ध हैं ]