डॉ. अनिल प्रकाश जोशी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर्यावरण दिवस पर शहरों और कस्बों से आह्वान किया है कि वे कूडे़-कचरे के सुरक्षित निस्तारण के उपाय करें ताकि ये सड़कों और गलियों से होते हुए हमारे घर और शरीर को चपेट में न ले सकें। प्रधानमंत्री की यह चिंता लाजिमी है, क्योंकि आज देश के गांवों-शहरों की पहचान कूड़े-कचरे से जुड़ चुकी है। यह स्थिति सिर्फ अपने देश की ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व की है।
नेचर पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार कूड़ा-कचरा बड़ी तेजी से हमारे बीच अपना स्थान बनाता जा रहा है। इस शताब्दी के अंत तक यह 1.1 करोड़ टन प्रतिदिन की दर से इकट्ठा होता जाएगा और यह आज की दर से तीन गुना ज्यादा होगा। मतलब जो कचरा 2010 तक 35 लाख टन था वह 2025 तक 60 मिलियन टन प्रतिदिन हो जाएगा। वर्तमान में अपने देश के 37.7 करोड़ लोग जो करीब 7935 छोटे-बडे़ शहरों में रहते हैं करीब 6.2 करोड़ टन कचरा प्रतिवर्ष पैदा करते हैं। इसमें सिर्फ 4.3 करोड़ टन ही इकट्ठा होता है और उसमें भी 1.59 करोड़ टन का ही निस्तारण किया जाता है, बाकि करीब 3.1 मिलियन टन लैंडफिल यानी कचरे के ढेर के रूप में दबा दिया जाता है। वहीं भारत में रोजाना एक लाख मीट्रिक टन कचरा निकलता है। कचरा आज दुनिया की एक बड़ी समस्या बन चुका है। अपने देश में ही देखिए सारे शहर कूड़ाघर बनते जा रहे हैं और नदियां कूड़ा गाड़ियों की तरह दिखाई देती हैं। अब चाहे गांव हों या फिर शहर, मंदिर हों या फिर मस्जिद सभी जगह कूड़ा किसी ने किसी रूप में हाजिर है। पिछले लगभग तीन दशक से यह समस्या बढ़ती जा रही है। इससे कई तरह की बीमारियां बढ़ रही हैं। देखा जाए तो आज हम कई तरह के कचरे के शिकार हैं। सबसे पहला और बड़ा कचरा हमारे बीच में प्लास्टिक के रूप में है। अपने देश में हर वर्ष लगभग 500 टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है और इसका मात्र एक फीसद ही रीसाइकिल यानी पुन: उपयोग में लाया जाता है। बाकी या तो खेतों में जमा होता या फिर गलियों में और अंत में बरसात के दिनों में नदी-नालों के रास्ते समुद्र में पहुंच जाता है। इस तरह हम करीब छह अरब टन कचरा हर वर्ष समुद्र में पहुंचा रहे हैं।
कूड़ा-कचरा पैदा होने के कई कारण होते हैं। इसकी एक वजह शहरीकरण और समृद्धि भी है। मतलब देश या शहर आर्थिक रूप से सबल हो तो कचरा अधिक निकलेगा। इसे गरीबी व अमीरी, सक्षम व अक्षम से जोड़कर भी देखा जा सकता है। मतलब जहां सुविधाओं की ललक ज्यादा होगी वहां कूडे़ का अंबार भी बढ़ता जाएगा। आज दुनिया में चीन व भारत इसके उदाहरण हैं। दोनों आर्थिक रूप से सबल हो रहे हैं, पर साथ में कूडे़ के ढेर भी बनते जा रहे हैं। इसके अन्य कारणों में व्यापक रूप से बदलती जीवनशैली, प्रबंधन व विकल्प का अभाव और साथ में बड़ा सवाल नैतिकता का भी है जो हमारे बीच से गायब होती जा रही है। हम यह मानकर चलते हैं कि कचरा पैदा करना हमारी मजबूरी है और इसके निस्तारण का काम सरकार का है। शायद यहीं हम सबसे बड़ी गलती कर रहे हैं।
आज समय आ गया है कि हम अपनी जीवनशैली पर मंथन करें। तीन दशक पहले तक हमारी जनसंख्या कितनी भी रही हो, पर कूडे़ के ढेर इतने बडे़ नहीं थे, क्योंकि हमारी आवश्यकताएं नियंत्रित थीं। आज हमारी कोई भी गतिविधि ऐसा नहीं है जो कचरा न पैदा करती हो। शहर तो शहर अब गांव जो अपनी शालीनता व स्वच्छता के लिए जाने जाते थे, वे भी इसकी चपेट में आ गए हैं। पहले गांवों की सारी सुविधाएं स्थानीय रूप से जुटाई जाती थीं। अब रस्सी से लेकर बर्तन या छप्पर सब पर प्लास्टिक की पकड़ है। खाटों में मूंज व बानों की जगह नायलॉन ने ले ली है। अब गांवों से घडे़ गायब होने लगे हैं और उनकी जगह आयातित कंटेनरों ने ले ली है। शहरों की तरह गांवों में भी मोबाइल, मोटर साइकिल व अन्य आधुनिक उत्पादों ने जगह ले ली है। मतलब शहर और गांवों में कम से कम कचरे के रूप में अंतर नहीं रहा। पश्चिमी देशों से हमने सब कुछ सीखा, लेकिन वहां केलोग साफ-सफाई के प्रति कितने सजग हैं वह नहीं सीख पाए। वहां साफ-सफाई किसी नियम या कानून के मोहताज नहीं है। इसे वहां नैतिक दायित्व समझा जाता है। वहां घर-गांव से बाहर सड़कों व अन्य सार्वजनिक स्थानों को भी लोग अपना हिस्सा मानते हैं। हमारे यहां घर तक की सफाई ही हमारी जिम्मेदारी है।
पश्चिमी देशों में हर तरह के कूडे़ का सदुपयोग किया जाता है। कूडे़ का उपयोग ऊर्जा, खाद आदि के निर्माण में किया जाता है। कचरा निस्तारण वहां अच्छा रोजगार है और उनकी जीडीपी का हिस्सा भी है। भारतीय नीतिकारों को तो समझना ही होगा कि जब तक कूड़ा-कचरा अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बनेगा तब तक यह सड़कों पर ही पड़ा रहेगा। एक बार यह अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन जाए तो घर, गली व सड़कों से उठ जाने की व्यवस्था अपने आप ही हो जाएगी। फिर शायद हर घर खुद ही इसे संभालकर रखेगा और अपनी जेब से जोड़कर देखेगा। उदाहरणस्वरूप आज भी घरों से अखबार व खाली बोतलें प्राय: नहीं फेंके जाते, क्योंकि उनकी कीमत लोगों को मिल ही जाती है।
एक अन्य पहल की भी आवश्यता है। देश के बडे़ शोध संस्थान शोध कर तय करें कि किस कचरे का क्या संभावित उपयोग हो सकता है। हालांकि ऐसे शोध हैं भी, परंतु वे संस्थानों से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इसके साथ-साथ सरकार को कूडे़ से जुडे़ अन्य उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए। अपार कूड़ा-कचरा मौद्रिक मूल्य में बदल दिया गया तो उसके घर से सड़क पर आने का प्रश्न ही खड़ा नहीं हो सकता। यह एक बड़ा सत्य है कि जो बिना मोल है वही सड़क पर है। जिसकी कीमत होती है उसे जोड़कर रखा जाता है। मतलब साफ है कि कूडे़ को अब नए दृष्टिकोण से देखने का भी समय आ चुका है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि जिस कूड़े को आप खुद पैदा करते हो उसके निस्तारण का दायित्व आपका ही है, पर हम अपने सभी नैतिक दायित्व खो चुके हैं। हम सरकार से सब कुछ चाहते हैं, पर स्वयं अपने दायित्वों से भाग खड़े होते हैं।
[ लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं ]