हर्ष वी पंत

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर करिश्मा कर दिखाया। उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को चुनाव में ऐसी धूल चटाई है जिसका वर्णन करना मुश्किल है। क्षेत्रीय पार्टियां तो अपना वजूद बचाने के लिए घबराहट में इधर-उधर हाथ-पैर मार ही रही हैं, देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की हालत इतनी खराब हो गई है कि वह दौड़ में बने रहने का बहाना भी नहीं कर पा रही है। ऐसा लगता है कि भारत का मोदीकरण होता जा रहा है और बहुत ही कम ऐसे नेता बचे हैं जो मौजूदा दौर की इस युगांतकारी परिघटना को चुनौती दे पा रहे हैं। देश के सबसे बड़े राज्य ने मोदी की भाजपा के पक्ष में भारी मतदान कर पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलाई है। देश में दशकों बाद किसी राजनीतिक दल को ऐसी प्रचंड विजय मिली है। उत्तर प्रदेश में विरोधी दलों के खिलाफ भाजपा के प्रदर्शन को देखते हुए इसे एक दूसरी मोदी लहर का दर्जा दिया जा सकता है। भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 325 सीटें हासिल करने में सफल रही। यह 1980 के बाद से उत्तर प्रदेश में किसी एक पार्टी की सबसे बड़ी जीत है। यह परिणाम 2014 के लोकसभा चुनावों की एक झलक पेश करता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नई दिल्ली में केंद्र की सत्ता में करीब तीन साल के बाद भी भाजपा ने 2014 की वोट हिस्सेदारी को बरकरार रखा है। इस दौरान अगर मोदी की लोकप्रियता नहीं बढ़ी तो कम से कम 2014 की तरह कायम तो है और उनकी विश्वसनीयता उच्चतम स्तर पर है। इस चुनाव परिणाम को टेक्टोनिक शिफ्ट यानी पृथ्वी की प्लेटों में आने वाले बदलाव की संज्ञा दी जा रही है। असल में यह भौगोलिक शब्द बहुत बड़े बदलाव का प्रतीक है। चुनावी नतीजे निश्चित रूप से भारतीय राजनीति में आए कुछ इसी तरह के परिवर्तन का आभास कराते हैं।
मोदी ने अपनी पीढ़ी में सबसे बड़े राजनेता के दर्जे को एक बार फिर पुष्ट किया है और मौजूदा सूरतेहाल के मद्देनजर 2019 के लोकसभा चुनावों में उनकी जीत तकरीबन तय मानी जा रही है और यहां तक कि उनके धुर विरोधी भी 2019 के बजाय 2024 के चुनावों की तैयारी करने की ही बात कर रहे हैं। भारतीय राजनीति में हमेशा से उत्तर प्रदेश का सबसे अहम स्थान रहा है। कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है। यहां भाजपा अपने दम पर सत्ता हासिल करने के लिए कई वर्षों से संघर्ष करती आई है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली इतनी शानदार सफलता के लिए मोदी ने भारी राजनीतिक जोखिम उठाया जिसका प्रतिफल उन्हें बखूबी मिला। यह जोखिम नोटबंदी के रूप में लिया गया था। काले धन पर प्रहार करने के लिए पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों को चलन से बाहर करने के मोदी के फैसले ने उनकी कैबिनेट सहयोगियों सहित हर किसी को चकित कर दिया था। उनके इस कदम ने एक झटके में देश में चलन में मौजूद 86 प्रतिशत नकदी को अप्रभावी कर दिया था। वह भी तब जब भारत की 90 प्रतिशत अर्थव्यवस्था नकदी पर आधारित है। यह एक बड़ा निर्णय था। इसका एक खतरा यह था कि यदि नोटबंदी के बाद पैदा हुए हालात समय रहते काबू में नहीं किए जाते तो स्थानीय अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाती। ऐसे में मोदी अपने प्रमुख जनाधार यानी नए आकांक्षी भारत का समर्थन खो देते। विपक्ष ने नोटबंदी को बड़ा मुद्दा बनाया और विरोधी नेताओं ने मोदी पर प्रहार करने का एक भी मौका नहीं छोड़ा। उन्होंने लोगों की तकलीफों के जरिये राजनीतिक रोटी सेंकने की भरपूर कोशिश की, मगर हालिया जनादेश दिखाता है कि जनता ने नोटबंदी को हाथों-हाथ लिया और इस तरह मोदी का राजनीतिक दांव सटीक निशाने पर लगा। मोदी ने नोटबंदी को बड़ी कुशलता से देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई से जोड़ दिया। एक तरफ उनके आलोचक उन पर सवालों की बौछार करते रहे और फैसले के पीछे तर्क पेश करने की मांग करते रहे। दूसरी ओर मोदी गरीबों को समझाने में सफल रहे कि पहली बार कोई नेता देश के भ्रष्ट अमीर तबके पर प्रहार कर रहा है। विपक्ष ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को नोटबंदी पर जनमत संग्रह के रूप में प्रस्तुत किया और नतीजे दर्शाते हैं कि मोदी इस राजनीतिक विमर्श को भी अपने पक्ष में मोड़ने में सफल रहे।
मोदी संवाद कला में माहिर हैं और सामान्य से सामान्य भारतीय से आसानी से जुड़ जाते हैं। इसी खूबी के चलते उनके आलोचक उनके सामने टिकते नहीं और आसानी से मात खा जाते हैं। इसके दम पर ही वह जाति आधारित पुराने तौर-तरीकों वाली गठजोड़ की राजनीति को हराने में सफल रहे। पिछले लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने इसे बखूबी अंजाम दिया था, लेकिन उनके विरोधियों ने उसे क्षणिक सफलता माना था। विरोधी सांप्रदायिक जोड़-तोड़ की राजनीति पर ही ध्यान लगाए रहे, लेकिन मोदी की नजर 2017 के लक्ष्य पर थी। परिणामस्वरूप चुनावी अखाड़े में उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को एक बार फिर चारों खाने चित्त कर दिया। यह उनके करिश्माई व्यक्तित्व का ही कमाल है कि जाति की बेड़ियों में जकड़े राज्य ने जाति के प्रति निष्ठा को तोड़ दिया। यही नहीं उनकी लोकप्रियता ने इस दौर में देश में किसी भी किस्म की पहचान आधारित राजनीति को भी पछाड़ दिया है।
उनके इस प्रयास में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह महत्वपूर्ण सहयोगी रहे जिन्होंने खुद को एक बार फिर उम्दा राजनीतिक रणनीतिकार साबित किया। उनके दिशानिर्देशों में भाजपा देश के सभी वर्ग-समुदाय तक अपनी पैठ बनाने में सफल हो पाई। इसमें शाह के सांगठनिक कौशल और जनता के बीच मोदी छवि ने अहम भूमिका निभाई। अब इस बात की उम्मीद की जा रही है कि यह जनादेश मोदी सरकार को देश में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए नई ऊर्जा प्रदान करेगा। यदि भाजपा 2019 में फिर से केंद्रीय सत्ता में आती है तो यह संसद के उच्च सदन राज्यसभा में अपने विधायी एजेंडे को कहीं आसानी से और शांतिपूर्वक आगे बढ़ा सकेगी, क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा में जीत कर आए बड़ी संख्या में विधायक राज्यसभा में अब ज्यादा सांसद चुनकर भेज सकेंगे। आज भाजपा के सामने भारतीय राजनीति में कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है। मोदी ने यह उपलब्धि स्वयं अपने दम पर हासिल की है। अब मोदी को चुनौती देने के लिए उनके विरोधी देशव्यापी महागठबंधन की संभावना तलाश रहे हैं। कह रहे हैं कि उनका सामना करने के लिए बस अब यही एक विकल्प बचा है, लेकिन यह मोदी को अंतत: मजबूत कर सकता है। मोदी काल में भारतीय राजनीति खुद को कैसे पुन: समायोजित करती है, यह देखना दिलचस्प होगा। ऐसा इसलिए नहीं कि इसमें शामिल सभी घटकों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, बल्कि इसलिए भी कि कई तरह से भारतीय लोकतंत्र का भविष्य भी दांव पर लगा है।
[ लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशन के प्रोफेसर हैं ]