हर्ष वी पंत

 आखिरकार तमाम आशंकाएं निमरूल साबित हुईं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पहली मुलाकात में एक दूसरे से बेहद गर्मजोशी से पेश आए। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद मोदी के पहले अमेरिकी दौरे के दौरान ट्रंप ने उन अंतर्निहित शक्तियों को ही रेखांकित किया जिनके दम पर नई दिल्ली और वाशिंगटन एक दूसरे के करीब आ रहे हैं। अगर मोदी ने ओबामा प्रशासन के दौर में भारत-अमेरिकी रिश्तों को लेकर दावा किया कि द्विपक्षीय रिश्तों में हिचक अब अतीत की बात हो गई है तो अपने हालिया अमेरिका दौरे में भी उन्होंने कुछ ऐसा ही दांव चला जिससे लिए वह अपनी पीठ थपथपा सकते हैं। मोदी ने अनायास ही यह कहते हुए ट्रंप प्रशासन को मुग्ध कर दिया कि ‘नए भारत के निर्माण’ से जुड़े मेरे विचार और ‘अमेरिका को फिर से महान बनाने’ के राष्ट्रपति ट्रंप के मंत्र के मेल से हमारे सहयोग और सहभागिता का नया अध्याय खुलेगा। यह भी दोनों नेताओं की समझबूझ को ही दर्शाता है कि इस दौरान जलवायु परिवर्तन से जुड़े पेरिस समझौते और एच-1बी वीजा जैसे तल्खी भरे मुद्दों को दरकिनार करते हुए वे तमाम अलहदा मसले चर्चा के केंद्र में ले आए जो दोनों देशों के रिश्तों की गाड़ी को तेज रफ्तार मुहैया करा सकते हैं। यह मोदी के लिए बहुत बड़ी कामयाबी है। उन्होंने इस मौके पर कोई गलती भी नहीं की।

भारत में तमाम लोगों ने ऐसी दलीलें देनी शुरू कर दी थीं कि अमेरिका में ट्रंप अभी संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में भारत-अमेरिका के तेजी से परवान चढ़ते उन रिश्तों पर बर्फ जम सकती है जिन्हें मजबूत बनाने में खुद मोदी ने खासी सक्रिय भूमिका निभाई है। प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही मोदी ने इन रिश्तों को उर्वर बनाने में काफी कूटनयिक ऊर्जा खर्च की है, जबकि उनके सत्तारूढ़ होते समय यह मुश्किल नजर आ रहा था, क्योंकि रिश्तों में कुछ ठहराव के संकेत दिखने लगे थे। हालिया दौरे को भी मोदी केवल हाथ मिलाने और गले लगाने के प्रतीकों से परे ले गए हैं। वह ट्रंप को बढ़िया तरीके से समझने में सफल रहे हैं, मगर इससे भी बढ़कर वह ट्रंप को उन बुनियादी हकीकतों की ओर मुखातिब करने में कामयाब रहे हैं जिन्होंने भारत-अमेरिकी रिश्तों को धार दी है। ऐसा तबसे हो रहा है जब जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने एलान किया था कि भारत को एक वैश्विक महाशक्ति बनाने में अमेरिका पूरी मदद करेगा।

मोदी और ट्रंप की मुलाकात के दौरान एशिया में शक्ति के संतुलन का मुद्दा केंद्र में रहा। दोनों देशों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक जिम्मेदारी के साथ कमान संभालने पर सहमति जताई। उन्होंने माना कि इस क्षेत्र में शांति एवं स्थायित्व लाने में भारत और अमेरिका के बीच निकट सहयोग बेहद अहम होगा। चीन का नाम लिए बिना उन्होंने इस क्षेत्र में सामुद्रिक एवं हवाई आवाजाही और व्यापार की आजादी का सम्मान करने की बात दोहराई। साथ ही यह भी कहा कि समूचे क्षेत्र में तमाम जमीनी एवं सामुद्रिक विवादों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों के आलोक में शांति से साथ ही सुलझाया जाए। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह रहा कि दोनों नेताओं ने चीन की महत्वाकांक्षी पहल वन बेल्ट वन रोड को भी आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि आर्थिक जुड़ाव के लिए पारदर्शी तरीके से बुनियादी ढांचे का विकास किया जाए और उसमें वित्तीय संसाधनों के तौर पर कर्ज देने के रूप में भी जिम्मेदारी का भाव दिखाना चाहिए। साथ ही क्षेत्रीय अखंडता एवं संप्रभुता, कानून और पर्यावरण को लेकर अन्य देशों की आपत्तियों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

आतंकवाद के मसले पर भी भारत को बड़ी जीत हासिल हुई है। एक ओर तो अफगानिस्तान में लोकतंत्र, स्थायित्व, समृद्धि और सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका ने भारत की सराहना की तो दूसरी ओर दोनों देशों ने अल कायदा, आइएस, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और डी कंपनी के अलावा अन्य आतंकी संगठनों के खिलाफ सहयोग बढ़ाने का संकल्प जताया। मोदी की ट्रंप से मुलाकात केऐन पहले हिजबुल आतंकी सैयद सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने की अमेरिका की पहल को भारत में भरपूर सराहा गया। इससे कश्मीर घाटी में आतंक का फन कुचलने में भारत की मुहिम को बल मिलेगा। भारत ने भी उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिकी चिंताओं से सहमति जताई। दोनों देशों का मानना है कि अपने परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम के अलावा जनसंहारक हथियारों से दुनिया को अस्थिर करने पर आमादा देशों और उनको शह देने वाले मुल्कों से सख्ती से निपटने की दरकार है।

समुद्र में निगरानी के लिए अमेरिका द्वारा भारत को ड्रोन की बिक्री से दोनों देशों के रक्षा संबंधों में और मजबूती आएगी। इसमें नौसैनिक सक्रियता के साथ ही नौसैनिक जागरूकता तक दायरा फैल रहा है। इसके लिए अमेरिका ने हिंद महासागर संगोष्ठी में पर्यवेक्षक के रूप में भारत के समर्थन से लेकर उच्च स्तरीय रक्षा तकनीक देने का भी फैसला किया है। इस लिहाज से देखा जाए तो भारत-अमेरिका रक्षा संबंध दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं। मोदी के पास वक्त है और उन्होंने फिर से स्पष्ट किया कि भारत के विकास और सामरिक हितों की पूर्ति के लिए वह अमेरिका की अहमियत कहीं बेहतर ढंग से समझते हैं। इस बार भी उन्होंने यही रेखांकित किया कि अपने सामाजिक एवं आर्थिक कायाकल्प के लिए भारत अमेरिका को अपना प्रमुख साङोदार मानता है।

हालांकि भारत में आलोचक इसे गुटनिरपेक्षता नीति से विचलन के तौर पर देखेंगे, लेकिन मोदी ने अतीत की सरकारों की ङिाझक से इतर हटते हुए अपना दांव चलने में कभी कोई संकोच नहीं किया। भारत में वह अपनी लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर हैं और यही वजह उन्हें विदेश नीति के मोर्चे पर जोखिम लेने की गुंजाइश देती है। पिछले तीन साल से अमेरिका को खुले दिल से लुभाने की मोदी की नीति भारत में अभी भी एक सियासी जोखिम ही मानी जा रही है, मगर यही वह राह है जिस पर मोदी ने चलने की ठानी है। ओबामा से लेकर ट्रंप तक सफर खासा लंबा रहा है, लेकिन मोदी की सफलता इसी बात में छिपी है कि उन्होंने दोनों पक्षों की ओर से इसे फलदायी बनाया है। इससे मंजिल और करीब आती नजर आ रही है।

(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)