दिव्य कुमार सोती

कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद समर्थक तत्व ईद-उल-जुहा के मुबारक मौके पर भी चैन से नहीं बैठे। दक्षिण से लेकर उत्तरी कश्मीर तक विभिन्न जगहों पर नमाज-ए-ईद के बाद सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी की गई और पाकिस्तान, अल-कायदा, आइएस के झंडे एवं जाकिर मूसा और बुरहान के पोस्टर लहराए गए। यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि अलगाववादी खेमे के नेताओं ने लोगों से नमाज के बाद भारत विरोधी प्रदर्शन करने को कहा था। लोगों तक यह संदेश पहुंचाने के लिए धार्मिक स्थलों का भी इस्तेमाल किया गया। कश्मीर में धार्मिक स्थलों का दुरुपयोग नई बात नहीं है। वहां यह काम लंबे समय से हो रहा है। कई बार और खासकर किसी आतंकी से मुठभेड़ के दौरान या फिर उसके मारे जाने के बाद यह दुरुपयोग अपने चरम पर दिखता है। आतंकियों से मुठभेड़ के वक्त अक्सर ही मस्जिदों से आतंकी संगठनों और हुर्रियत द्वारा तैयार जिहादी तराने जोरशोर से बजाए जाते हैैं। घाटी में कुछ मस्जिदें किस तरह हिंसा भड़काने में लगी हैं, यह कुछ और उदाहरणों से स्पष्ट होता है। ईद-उल-जुहा के पहले 15 अगस्त को पांपोर की एक मस्जिद में तिरंगे के चित्र देखकर लोगों ने भारत विरोध नारे लगाए। मस्जिद के इमाम ने लोगों की भीड़ जुटाकर कहा कि वह इस तरह के कृत्य यानी तिरंगे के चित्र को स्वीकार नहीं कर सकते। इसके पहले जब मेजर गोगोई ने एक पत्थरबाज को जीप से बांधा था तो देश के उदारवादी तबके ने बहुत हंगामा किया था। नतीजतन मेजर गोगोई को सफाई देने मीडिया के सामने आना पड़ा। उन्होंने बताया था कि जब वह हिंसक भीड़ से घिरी पोलिंग पार्टी को बचाने के लिए आगे बढ़ रहे थे तो किस तरह उस इलाके की मस्जिद से लाउडस्पीकर पर पत्थरबाजों की भीड़ को पोलिंग पार्टी और सुरक्षाबलों पर हमले के लिए उकसाया जा रहा था और संख्याबल में कहीं अधिक इस भीड़ को बिना खूनखराबे के काबू करने के लिए ही उन्हें पत्थरबाजों के एक नेता को अपनी जीप के आगे बांधना पड़ा था। दुर्भाग्य से पत्थरबाज के मानवाधिकारों पर बहस के बीच उस मस्जिद के इमाम की हिंसा भड़काने में भूमिका पर कहीं चर्चा नहीं हुई। मेजर गोगोई पर राज्य सरकार ने मानवाधिकार उल्लंघन के नाम पर एफआइआर दर्ज करा दी, पर इमाम के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जो उस भीड़ को हिंसा के लिए उकसा रहा था।
यह कोई अकेला मामला नहीं। गत दो जुलाई को जब सुरक्षाबलों ने हिजबुल मुजाहिदीन के कश्मीर कमांडर रियाज को पुलवामा के मलंगपोरा में घेरा तब स्थानीय मस्जिद केलाउडस्पीकर से लोगों से सुरक्षाबलों पर पथराव करने को कहा गया। नतीजतन थोड़ी ही देर में भारी भीड़ सुरक्षाबलों पर पथराव करने लगी जिसका फायदा उठाकर रियाज और उसके साथी आतंकी भाग निकलने में सफल रहे। इस घटना से ठीक एक दिन पहले ही अनंतनाग जिले के दियालगाम गांव में सुरक्षाबलों ने लश्कर-ए-तैयबा के कुख्यात आतंकी बशीर लश्करी को मार गिराया था, परंतु उस दौरान भी स्थानीय मस्जिद के लाउडस्पीकर पर बशीर लश्करी को बचाने के लिए पत्थरबाजी करने की अपील की गई थी। इसके बाद पत्थरबाजी पर उतारू भीड़ को काबू करने के दौरान सुरक्षाबलों की कार्रवाई में दो पत्थरबाज मारे गए थे।
दरअसल यह पहली बार नहीं है जब धर्मस्थलों का प्रयोग आतंकियों के समर्थक तत्व कर रहे हैं। इस प्रकार की समस्या से भारत पहले भी दो चार होता रहा है। आखिर स्वर्ण मंदिर पर भिंडरावाले और उसके गुर्गों का कब्जा कौन भूल सकता है? धर्मस्थलों के इस प्रकार के दुरुपयोग के कितने भयावह परिणाम निकल सकते हैं, यह समझने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके बाद हुए खूनखराबे को याद करना ही काफी है। अगर भिंडरावाले को स्वर्ण मंदिर में डेरा जमाकर अलगाववादी राजनीति करने का अवसर न दिया गया होता तो शायद पंजाब दो दशक तक न जला होता। 1984 में ब्लू स्टार के बाद भी 1986 और 1988 में फिर से खालिस्तानी आतंकी स्वर्ण मंदिर में घुसने में कामयाब रहे थे और आखिरी बार 1988 में ऑपरेशन ब्लैक थंडर के तहत मंदिर परिसर को खाली कराया गया था। तब संसद ने इसके मद्देनजर धार्मिक संस्थान दुरुपयोग निवारण अधिनियम-1988 को पारित किया था। इसके तहत किसी भी धार्मिक स्थल या संस्थान का किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है, न ही इन जगहों का उपयोग समाज में घृणा फैलाने अथवा भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा करने के लिए किया जा सकता है। इस अधिनियम का उल्लंघन करने पर पांच साल तक के कारावास का प्रावधान है। इसकी धारा 8(2) के अंतर्गत किसी भी धार्मिक संस्थान के प्रबंधक पर आरोपपत्र दाखिल होने पर न्यायालय उसे पद से हटा सकता है। अनुच्छेद 370 के कारण यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होता है, जबकि यह एक तथ्य है कि कश्मीर घाटी में कई मस्जिदें और मदरसे अलगाववादी आंदोलन और पाकिस्तान समर्थित भारत विरोधी प्रचार तंत्र की धुरी रहे हैैं।
श्रीनगर की जामिया मस्जिद के इमाम मीरवाइज उमर फारूख हुर्रियत के प्रमुख नेता हैं और वह हर जुमे की नमाज के बाद अपनी तकरीरों में भारत के विरुद्ध जहर उगलने के लिए जाने जाते हैं। उनकी तकरीर सुनकर निकली भीड़ पथराव करती है और इस दौरान पाकिस्तान, लश्कर-ए-तैयबा और आइएस के झंडे लहराती है। अभी रमजान में शब-ए-कद्र के दिन इसी भीड़ ने मस्जिद के बाहर ड्यूटी पर तैनात पुलिस अधिकारी डीएसपी अयूब पंडित को बेहद निर्ममता से पीट-पीटकर मार डाला था। इसी तरह अहले हदीस जैसे हुर्रियत के वहाबी घटकों द्वारा नियंत्रित कई मस्जिदों से भी देश विरोधी दुष्प्रचार होता रहा है। आतंकियों और पत्थरबाजों के मानवाधिकारों, कश्मीरियत और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आसमान सिर पर उठाने वाले कश्मीर में कई मुस्लिम धर्मगुरुओं के इस रवैये की निंदा क्यों नहीं करते? किसी भी धर्मस्थल से होने वाले आह्वानों का जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में मस्जिदों का हिंसा भड़काने के लिए दुरुपयोग करने वाले देशविरोधी तत्वों पर सख्त कानूनी कार्रवाई किए बिना कश्मीर में शांति स्थापित नहीं हो सकती। यह जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर सरकार धार्मिक संस्थान दुरुपयोग निवारण अधिनियम-1988 जैसे कानून को प्रदेश में भी लागू करे ताकि हिंसा भड़काने वाले इमामों को मस्जिदों के दुरुपयोग से रोका जा सके।
[ लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं ]