हमारे समाज में दिनोंदिन बढ़ता कदाचार चिंतनीय और सोचनीय है। कदाचार मनुष्य के भ्रष्ट होने की पराकाष्ठा है। कदाचार का मुख्य कारण भौतिकवाद है। आज जिस तरह पैसे की हनक मनुष्य के सिर पर सवार हो गई है उससे मनुष्य यह मान बैठा है कि पैसे से वह किसी को भी खरीद सकता है या उसका शोषण कर सकता है। यह मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है कि जो पैसा उसके जीवन जीने का एक साधन मात्र था उसे उसने अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बना दिया है। जिसका परिणाम यह है कि मनुष्य पैसे का उपभोग कम और पैसा उसका उपयोग ज्यादा कर रहा है।

आज समाज में आधुनिकता और आजादी के नाम पर मर्यादा का हनन हो रहा है और चारों ओर कदाचार का बोलबाला है। आश्चर्यजनक बात यह कि सभ्य कहे जाने वाले समाज में कदाचार को प्रश्रय और बढ़ावा मिल रहा है, जबकि पवित्रता और मर्यादा की बात करने वालों को शंका की नजरों से देखा जा रहा है। किसी भी समाज में सुख-शांति बनी रहे, इसके लिए नैतिक और चारित्रिक माहौल का होना आवश्यक है। केवल कड़े कानून बना देने से बात नहीं बनती। अपने चरित्र का सनिर्माण करके और नैतिकता को अपनाकर ही कोई मनुष्य सभ्य-संस्कारी बन सकता है। आधुनिक विज्ञान की शिक्षा के साथ बच्चों के मन में अच्छे संस्कार डाले जाएं और उनके चरित्र का निर्माण किया जाए ताकि अपराध, कदाचार, भ्रष्टाचार आदि पर अंकुश लग सके। हम जिस नजर से दुनिया को देखते हैं, दुनिया भी हमें वैसी ही नजर आएगी।

जब हम दूसरे मनुष्य को अपनी तरह मानकर समानता की नजर से देखते हैं तो हर तरह के अपराधों पर अंकुश लग जाता है, लेकिन जब हम दूसरे को शोषित और उपभोग की वस्तु समझने लगते हैं तो उस व्यक्ति के प्रति हमारा नजरिया पूरी तरह बदल जाता है। इसलिए सबसे पहले हमें अपने मन की आंखों पर नियंत्रण करना पड़ेगा तभी हमारी विचार शक्ति और मन स्थिर हो पाएंगे। जब हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है तो फिर मोह-माया, लोभ और कदाचार से संबंधित विचारों से हम मुक्त हो जाते हैं। बहरहाल यहां विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर की बात याद आती है, ‘जब भी किसी बच्चे के जन्म की सूचना मिलती है तो मैं आशावाद से भर जाता हूं कि परमात्मा मनुष्य से निराश नहीं हुआ है। वह रोज नई प्रतिमाएं गढ़े जा रहा है’। ऐसे में यही कहना होगा कि परमात्मा निराश हो इससे पहले मनुष्य तू सुधर जा।

(आचार्य अनिल वत्स)