सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै पीठ में अलग-अलग याचिकाएं दायर कर दो हजार रुपये के नए नोट में देवनागरी लिपि के प्रयोग की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। एक तरफ देवनागरी का विरोध तो दूसरी तरफ स्थानीकता के महत्व को नए सिरे से उठाया गया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इससे बहुत शिकायत है कि 2,000 रुपये के नए नोट पर रॉयल बंगाल टाइगर की तस्वीर क्यों नहीं है? इसी तरह की आपत्ति रेसकोर्स के नाम को बदलने पर भी की गई थी। हालांकि प्रधानमंत्री के आवास का पता ‘रेस कोर्स रोड’ के बदले ‘लोक कल्याण मार्ग’ रखने के गहरे निहितार्थ हैं। पते की ध्वनि या आशय में अभिव्यक्त बदलाव हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक सोच में एक नए मोड़ का संकेत सिद्ध हो सकते हैं। किसी भी देश की अस्मिता के लिए इस प्रकार के बदलाव प्रतीकात्मक ढंग से स्वतंत्रता और स्वायत्तता का बोध कराते हैं और उसके प्रति सजगता को भी चिह्नित करते हैं। ‘रेस कोर्स रोड’ का नाम ‘लोक कल्याण मार्ग’ रखने के पहले भी कई जगहों के नाम बदले गए थे। कुछ ही समय पहले दिल्ली में ही औरंगजेब रोड का नाम बदला गया था। पूर्व में हम मद्रास को चेन्नई, पांडिचेरी को पुडुचेरी, कलकत्ता को कोलकाता, उड़ीसा को ओडिशा और बेंगलोर को बेंगलुरु का नामकरण कर सांस्कृतिक चेतना की वापसी का परिचय दे चुके हैं।
राजनीतिक पराभव के फलस्वरूप विजयी और विजित के बीच शोषक और शोषित का रिश्ता बन जाता है। साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के विजयी देश शोषक की भूमिका में होते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य विजित समुदाय का उपयोग अपने हितों को साधना होता है। वे यथासंभव आर्थिक दोहन करते हैं। इससे विजित देश की जनता को भौतिक, मानसिक यातना एवं अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में जो असंतुलन पैदा होता है उसका सबसे प्रबल पक्ष विजित समुदाय के मानसिक स्तर पर आक्रमण होता है। विजयी इस स्थिति में होता है कि उसकी प्रतिष्ठा विजित समुदाय के न केवल खान-पान, पहनावे जैसे जीवन के वाह्य पक्षों को, बल्कि भाषा, साहित्य, सोचने का तरीका सब कुछ को प्रभावित कर सके। भारत में अंग्रेजी राज की कहानी इसी प्रकार की है। अपने औपनिवेशिक शासन में अंग्रेजों ने भारत की अर्थ संपदा खूब लूटी और आधुनिक भारतीय मानस को भारतीय ज्ञान संपदा से रहित ही नहीं किया, बल्कि विरक्त बना दिया। बदलती परिस्थिति में विजित समुदाय के मन में अपनी सुरक्षा और विकास एक महत्वपूर्ण सरोकार हो जाता है और तब विजयी की ही तरह दिखने और जीने की लालसा प्रबल होने लगती है। ऐसे में पराए को अपनाना और अपना पराया बनाना शुरू हो जाता है। यह भावना अंततोगत्वा उन्हीं की तरह यानी विजयी की तरह हो जाने की तीव्र इच्छा में तब्दील होने लगती है। विजित समुदाय पहले की कड़वी यादों को भुला कर विजयी का अनुकरण करने लगता है। ऐसा करते करते वह उन्हीं जैसा हो जाना चाहता है। इस तरह का रूपांतरण करने के कई तात्कालिक लाभ भी दिखते हैं। उन्हें पद, सम्मान, सुविधा और प्रतिष्ठा मिलने की संभावना दिखने लगती है। यह सब करते हुए आत्म-विस्मरण और अपनी पहचान को उधार की पहचान द्वारा पुन: परिभाषित करने की प्रक्रिया जीवन में इतनी घुल-मिल कर चलती रहती है कि पता ही नहीं चलता कि कब क्या हो गया।
यह बदलाव बड़ा व्यापक होता है। समय बीतने के साथ पराभव की पीड़ा के साक्षी लोगों की संख्या भी घटने लगती है। चूंकि स्मृति स्वभाव से रचनात्मक होती है, नई पीढ़ी को पीड़ा के दंश की स्मृति ही बची रहती है, जो धीरे-धीरे धूमिल पड़ने लगती है। नई पीढ़ी के लोग नई कथा के हिस्से होने लगते हैं। विजित समाज का समीकरण भी बदलता है।
राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के प्रभाव थोड़े दिनों तक ही रहते हैं, पर मानसिक रूप से जो हस्तक्षेप होते हैं वे बड़े प्रबल और दूरगामी प्रभाव वाले होते हैं। भारत में अंग्रेजी शासन और उनकी शिक्षा नीति ने यही किया। अंग्रेजी शिक्षा से विषय वस्तु का जो विस्तार हुआ, सिद्धांतों और विधियों का प्रसार हुआ, वह स्वदेशी विचारों, सिद्धांतों और विधियों के अस्वीकार और नकार की कीमत पर हुआ। दुर्भाग्यवश हम सबने भी उसी को आगे बढ़ाया। फलत: पश्चिमी दुनिया में हो रहे शोध के चालू फैशन से शोध की समस्याओं को उधार लिया गया या फिर यहां की समस्याओं को पश्चिमी सिद्धांतों के अनुसार ढाल कर समझने की कोशिश की गई। ऐसी स्थिति में अधिकांश समाज विज्ञानों के पाठ्यक्रम भारतीय परिस्थितियों में स्थापित ही नहीं है। हां, भारतीय परिस्थितियां उन सिद्धांतों के उदाहरण के रूप में रखी जाती हैं या फिर भारतीय उदाहरणों की व्याख्या में पाश्चात्य सिद्धांतों और अवधारणाओं के उपयोग में आने वाली कठिनाइयों को प्रस्तुत किया जाता है।
आज शोध के इस चक्रव्यूह में फंस कर शिक्षा जगत में नवोन्मेष और नवाचार बुरी तरह बाधित हुआ है। इस तरह के अनावश्यक श्रम और संसाधनों के अपव्यय के साथ किया जाने वाला शोध कितना उपयोगी और उपादेय है, इसे लेकर बार-बार शोध-समीक्षाओं में गंभीर शंकाएं व्यक्त की जाती रही हैं। यह सब अब भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। उस ककहरे को पढ़कर किया गया शोध अर्थ जाने बिना पढ़े जाने वाले पूजा के मंत्र की तरह ही निष्फल हो रहा है। अब शोध एक सुनिश्चित प्रकार से यंत्रवत किया जाने वाला कृत्य होकर रह गया है। प्रासंगिकता, उपयोगिता और विषय में ज्ञान में योगदान या विस्तार के बदले दोहराव की प्रवृत्ति तेजी से फैली है। अब कट एंड पेस्ट की तकनीक को बढ़ावा मिला है। अकादमिक क्षेत्र के प्रकाशनों में दूसरों की लिखी सामग्री अपने नाम छपाने की अनेक घटनाएं प्रकाश में आई हैं। देश में उच्च शिक्षा की सामान्य स्थिति संतोषजनक नहीं है। आशा है, उस पर भी ध्यान जाएगा और वह भी अंधी दौड़ छोड़ लोक कल्याण से जुड़ सकेगी।
[ लेखक गिरीश्वर मिश्र, महात्मा गांधी हिंदी विवि, वर्धा के कुलपति हैं ]