रामिश सिद्दीकी

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस्लामिक-अमेरिकी शिखर सम्मेलन में जब ईरान और आतंकवाद को अलग-थलग करने का आह्वान किया तो समूचा सभागार तालियों की गूंज से गड़गड़ा उठा। ध्यान रहे कि राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप ने अपने पहले विदेशी दौरे के लिए सऊदी अरब को ही चुना था। सऊदी शासक सलमान बिन अब्दुल अजीज ने ट्रंप को अपने देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान किंग अब्दुल अजीज मेडल से भी सम्मानित किया। सऊदी सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस सम्मान से नवाज चुकी है। ट्रंप के इस दौरे में सऊदी अरब और अमेरिका के बीच खरबों डॉलर के व्यापारिक सौदों पर भी हस्ताक्षर हुए। इन सौदों के बीच ट्रंप के दौरे का सबसे अहम पड़ाव रहा इस्लामिक-अमेरिका सम्मेलन जिसमें 55 इस्लामिक देशों के प्रमुखों ने भाग लिया। यह कोई छिपी बात नहीं कि अयातुल्ला खुमैनी की ईरानी क्रांति के बाद अरब देशों से ईरान के संबंध तल्ख ही रहे हैं। इस शिखर वार्ता के जरिये अरब देशों को तब एक बड़ी कामयाबी मिली जब ट्रंप ने ईरान को आतंक को बढ़ावा देने वाला देश करार देते हुए उसे अलग-थलग करने का एलान किया। इस एलान की अगली कड़ी के रूप में ही सऊदी अरब, बहरीन, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा कतर से संबंध तोड़ने के फैसले को देखा जा रहा है। यह फैसला सऊदी नीति की एक और जीत है। अरब देशों की ओर से पहले ईरान और अब कतर को अलग-थलग करने की कोशिश के चाहे जो नतीजे हों, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ट्रंप की भागीदारी वाले सम्मेलन में पाकिस्तान भी अलग-थलग नजर आया था। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न ट्रंप ने भाव दिया और न ही सऊदी अरब के शासक ने। इससे कुछ रोज पहले ही भारत को एक बड़ी सफलता तब मिली थी जब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने पाकिस्तान में कैद भारतीय नौसेना के पूर्व अधिकारी कुलभूषण जाधव को सुनाई फांसी की सजा पर अंतिम फैसला आने तक रोक लगा दी थी। इस अदालत ने पाकिस्तान से कहा था कि जाधव को काउंसलर एक्सेस मिलनी चाहिए थी। उसने पाकिस्तान को वियना समझौते की याद दिलाते हुए यह भी कहा था कि वह इस समझौते से बंधा हुआ है।
अगर अरब देश वैश्विक स्तर पर ईरान और कतर को अलग-थलग करने में कामयाब हो सकते हैं तो पाकिस्तान के मामले में हमें यही कामयाबी क्यों नहीं मिल सकती? असल में अरब देशों ने ईरान के विरुद्ध विश्व स्तर पर जैसी खुली मुहिम छेड़ रखी है वैसा ही मोर्चा भारत को पाकिस्तान की कट्टर सोच और वहां पनप रहे आतंकवाद के खिलाफ खोलने की दरकार है। हालांकि केंद्र सरकार लगातार इसकी कोशिश जरूर कर रही है, लेकिन यह मुहिम केवल प्राइम टाइम न्यूज और सोशल मीडिया के जरिये ही परवान नहीं चढ़ सकती। भारत को इस्लामिक देशों की संस्था यानी ओआइसी का पर्यवेक्षक सदस्य बनना चाहिए। 2006 में जब सऊदी शासक शेख अब्दुल्ला अजीज भारत आए थे तो उन्होंने ओआइसी में यह प्रस्ताव रखने की बात कही थी। इस पर पाकिस्तान ने कड़ा एतराज जताया था। इसके लिए भारत की ढिलाई भी कम जिम्मेदार नहीं है। आज तक इस सवाल का कोई स्पष्ट जवाब नहीं है कि हम इस संस्था से क्यों नहीं जुड़ रहे हैं? आज हालत यह है कि हमारी विदेश नीति टीवी चैनलों पर ज्यादा सक्रिय दिखती है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हम संभलकर ही शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। अगर सऊदी अरब और अमेरिका खुलकर आतंकवाद के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकते हैं तो भारत को भी पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने के लिए मुखर अभियान चलाना चाहिए।
आज चीन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के माध्यम से अपना माल खाड़ी देशों में पहुंचाना चाहता है। इसी लालच में उसने पाकिस्तान में भारी निवेश किया है। वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगातार पाकिस्तान का बचाव कर रहा है। जब दोनों देश अपनी भारत विरोधी गतिविधियों को तेजी देने में जुटे हैं तब भारत को और सक्रिय होना चाहिए। चीन एक ओर पाकिस्तान का साथ दे रहा है और दूसरी ओर भारत के बाजार का लाभ भी उठाना चाह रहा है। भारत की तेज आर्थिक वृद्धि पर उसकी नजर है। बुनियादी ढांचे से जुड़ी भारत सरकार और राज्य सरकारों की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में भागीदार बनने के लिए चीन अपनी कंपनियों को भारतीय बाजार में उतार रहा है। चीन की यह दोहरी चाल न केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि कमजोर कर रही है, बल्कि भारत की छोटी-बड़ी इकाइयों को भी नुकसान पहुंचा रही है। हमारी पाकिस्तान विरोधी विदेश नीति को पाकिस्तान-चीन की सांठगांठ को सामने रख कर पुनर्गठित करने की जरूरत है।
भारत को अरब-खाड़ी देशों को इस तथ्य से लगातार अवगत कराना होगा कि पाकिस्तान उसी अतिवाद की शाखा है जिस अतिवाद से वे सब परेशान हैं। पाकिस्तान आतंकवाद का प्रजनन स्थल बन चुका है। वह अपनी लगाई आग से बाहर निकलने में अक्षम दिख रहा है। आज पाकिस्तान की आर्थिक व्यवस्था बहुत कमजोर है। वहां सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा हथियारों की खरीद पर खर्च होता है। भारत के खिलाफ उसने जिस आतंकवाद को संरक्षण दिया था, आज वही उसकी जड़ों को खोखला कर रहा है। पाकिस्तान में पनप रहा कट्टरपन न सिर्फ भारत, बल्कि आस-पड़ोस के सभी देशों के लिए एक खतरे की घंटी है। इस खतरे के खिलाफ दक्षेस के बाकी देशों को एकजुट होने की जरूरत है। जैसे किसी क्षेत्र में किया गया परमाणु परीक्षण उस जगह के अलावा कई किलोमीटर दायरे को प्रभावित करता है उसी तरह कट्टरता का केंद्र भी आसपास के बड़े हिस्से को अपनी जद में ले लेता है।
पाकिस्तान ने बार-बार यही साबित किया है कि कट्टरपंथी विचारधारा का सहारा लिए बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसकी इस नीति को चीन का भी समर्थन हासिल है। ऐसे में भारत के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि वह इन दोनों देशों को लेकर एक समग्र नीति बनाए और उसमें अन्य देशों को जोड़े और साथ ही देश के अंदर फैले चीनी कंपनियों के कारोबार के लिए भी कोई ठोस नीति तैयार करे।
[ लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार हैं ]