बलबीर पुंज

हाल में दो मसले फिर से चर्चा में हैं। ये कई वर्षों से लंबित पड़े हैं। इनमें पहला विषय है अयोध्या में रामजन्मभूमि पर मंदिर का पुनर्निर्माण और दूसरा है गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना। आजादी के 70 साल बाद भी इन पर जारी विवाद भारतीय सार्वजनिक विमर्श के कई विरोधाभासों की दुखद सच्चाई को ही रेखांकित करता है। आखिर इनका विरोध करने वाले कौन हैं और उनकी मानसिकता कैसी है? भारत में इनका विरोध करने वालों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। इनमें एक तबका तो मुस्लिम समाज का वह वर्ग है जो आज भी खुद को इस देश की संस्कृति से नहीं जोड़ पाया है और अभी भी स्वयं को मोहम्मद बिन कासिम, गजनवी, बाबर या औरंगजेब के साथ ही जोड़कर देखता है। 12वीं शताब्दी में महमूद गजनवी ने जब खलीफा का पद संभाला तो उसने शपथ ली थी कि वह हर साल भारत आकर मंदिरों-मूर्तियों को खंडित करेगा और तलवार के बल पर इस्लाम अपनाने या मौत को चुनने का विकल्प देगा। 32 वर्षों के शासनकाल में गजनवी हर वर्ष भारत आने का अपना वचन तो पूरा नहीं कर पाया, परंतु उसने एक दर्जन से अधिक बार भारत पर हमले अवश्य किए। दूसरे वर्ग में वे हिंदू हैं जो आज भी मुस्लिमों के 800 वर्षों के शासन और 200 वर्षों तक चले अंग्रेजी राज की दासता वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे हर मुद्दे को मार्क्सवादी-मैकाले के चश्मे से देखते हैं और किसी भी राष्ट्रीय समस्या पर स्वाभिमानी नजरिया रखने में सक्षम नहीं हैं।
गोवध पर प्रतिबंध के विरोधियों का मुख्य तर्क है कि यह पसंदीदा खाने के मौलिक अधिकार पर आघात है। किसी भी राष्ट्र की कानून-व्यवस्था को उसकी संस्कृति और इतिहास से काटा नहीं जा सकता। अमेरिका के कई प्रांतों और कई यूरोपीय देशों में धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों से घोड़े का मांस प्रतिबंधित है। वहां कुत्ते के मांस पर भी रोक है। चूंकि स्थानीय लोग इनके साथ भावनात्मक लगाव रखते हैं इसलिए उन्हें मारकर खाना सांस्कृतिक-सामाजिक कलंक समझते है।
ताइवान में जहां कुत्ते का मांस बड़े चाव से खाया जाता है वहां की विधायिका ने अभी हाल में कुत्ते के साथ-साथ बिल्ली के मांस की बिक्री और सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया है। इस पाबंदी के पीछे कोई आध्यात्मिक या धार्मिक मान्यता नहीं है। केवल एक भावनात्मक पहलू है, किंतु यह विडंबना ही है कि भारत में करोड़ों लोगों की आस्था के केंद्र गोवंश के वध को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया जा सका है। आर्थिक एवं पर्यावरण के लिहाज से भी गोकशी पर पाबंदी आवश्यक है।
सभ्य समाज में स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग दूसरों की भावनाओं को चोट पहुंचाकर नहीं किया जा सकता। यदि भारत में अल्पसंख्यकों की मजहबी भावनाओं को देखते हुए तसलीमा नसरीन और सलमान रुश्दी की पुस्तकों पर प्रतिबंध लग सकता है तो बहुसंख्यकों की भावनाओं का सम्मान करते हुए गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध गलत क्यों है? क्या एक सभ्य देश में सभी मजहबों की भावनाओं का सम्मान बराबरी के स्तर पर नहीं होना चाहिए? दुनियाभर में गाय सहित किसी भी पशु से क्रूरता अमानवीय है। भारतीय संविधान के नीति-निदेशक तत्वों के खंड में अनुच्छेद 48 में गोवंश संरक्षण की व्यवस्था की गई है। भारत का प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूस के विरोध का ही परिणाम था। 1870 में नामधारी सिखों ने भी गोरक्षा के लिए कूका आंदोलन छेड़ा। सम्राट अशोक से लेकर अकबर तक ने गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लगाए। 1857 की क्रांति के बाद जब दिल्ली की गद्दी पर बहादुरशाह जफर की पुन: ताजपोशी हुई तो उन्होंने भी गोकशी करने वालों को तोप से उड़ाने का फरमान जारी कर दिया।
गोवध के तमाम हिमायती वैदिक सभ्यता में गोमांस का सेवन किए जाने का कुतर्क भी रखते हैं। एक तो यह झूठ है। दूसरा हजारों वर्ष पूर्व क्या होता था, उसकी प्रासंगिकता आज क्या है? पहले सती-प्रथा के साथ-साथ अस्पृश्यता जैसी कुरीतियां भी थी। किंतु हिंदू समाज के भीतर प्रबुद्ध लोगों द्वारा कालांतर में सामाजिक सुधारों के जरिये इन बुराइयों को दूर किया गया। हमारा समाज सनातन है जो पुरातन के साथ नित-प्रतिदिन नवीनताओं का भी समावेश कर रहा है। गोरक्षा के साथ-साथ भगवान राम के जन्मस्थान अयोध्या में मंदिर का पुनर्निर्माण भी हिंदुओं की आस्था और देश के आत्म-सम्मान से जुड़ा है जो मुद्दा इस समय न्यायालय में विचाराधीन है। क्या भगवान राम की जन्मभूमि पर विवाद केवल अधिकार या स्वामित्व मात्र का है? इतिहास साक्षी है कि भारत में मुस्लिम शासकों और आक्रांताओं ने अयोध्या, काशी, मथुरा में ही नहीं, अपितु केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, असम, बंगाल, बिहार, जम्मू-कश्मीर, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली सहित देश भर के हजारों मंदिरों को तोड़कर उन्हें मस्जिद और दरगाह में तब्दील किया था? वर्ष 629 में केरल के हिंदू सम्राट चेरामन पेरुमल ने कोडुंगल्लूर के मेथला गांव में चेरामन जुमा मस्जिद का निर्माण करवाया था, जिसकी प्रतिकृति गत वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सऊदी अरब के दौरे पर वहां के शाही परिवार को भी भेंट की थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मस्जिद का निर्माण एक हिंदू नरेश के सहयोग से पैंगबर मोहम्मद साहब के जीवनकाल में हुआ था और अरब के बाहर बनने वाली यह विश्व की पहली मस्जिद थी।
जब भारत के बहुलतावादी दर्शन के कारण और इस्लाम के जन्म से पूर्व देश में हिंदू शासकों द्वारा ही मस्जिदें बनाई जा रही थी तो 712 के बाद भारत आए इस्लामी आक्रांताओं और आतातायी शासकों द्वारा यहां मंदिरों को तोड़ने का मूल उद्देश्य क्या था? क्या इन आक्रमणकारियों द्वारा भारत में मंदिरों को तोड़कर मस्जिद या दरगाह का निर्माण, इबादत या फिर मजहबी मकसद के लिए था? वास्तव में यह कृत्य उन लोगों को नीचा दिखाने के लिए किया गया था जो उनसे पराजित हुए थे। साथ ही यह उनकी धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने और उनकी पहचान मिटाने के मकसद के लिए भी था।
चाहे कश्मीर से पंडितों को पलायन के लिए विवश करना हो या घाटी में तिरंगे के अपमान और पाकिस्तानी और आइएस के समर्थन में जिंदाबाद के नारे और उनके झंडे को लहराना हो, भारतीय सैनिकों पर पथराव हो, देश को बांटने वालों के साथ कदमताल करना हो, भारत में समान नागरिक संहिता, समान शिक्षा व्यवस्था का विरोध या फिर पाकिस्तान की भारत को हजारों घाव देकर मारने की नीति हो-इन सभी के पीछे एक ही मानसिकता है जो अलग-अलग रूपों में सक्रिय है। इस चिंतन का अंतिम उद्देश्य मोहम्मद बिन कासिम के काल से लेकर आज तक भारत की कालजयी और बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट करना रहा है। यदि भारत में पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र को अक्षुण्ण एवं जीवंत बनाए रखना है तो इस मानसिकता से संघर्ष करना ही होगा। गोकशी पर पूर्ण प्रतिबंध और रामजन्मभूमि पर मंदिर का पुनर्निर्माण इसी लंबे संघर्ष की प्रथम दो कड़ियां मात्र हैं।
[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]