नी एक बेशकीमती संसाधन है, जिसका कोई विकल्प नहीं हो सकता। दुनिया में पानी की किल्लत का सामना कर रहे एक तिहाई लोग भारत में रहते हैं। एक तथ्य यह भी है कि भारत ने बड़ी उदारता दिखाते हुए 1960 में एक संधि पर दस्तखत किए थे, जिसके तहत उसने छह नदियों वाली सिंधु जल प्रणाली का अस्सी प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान को सौंप दिया था। तब से भारत के सिंधु तट पर पानी की किल्लत बहुत बढ़ गई है, जो उत्तर में स्थित राज्यों के बीच खामोशी से चल रहे जल युद्धों का एक बड़ा कारण है। विचित्र यह है कि भारत अपने हिस्से के 19.48 प्रतिशत पानी का भी इस्तेमाल करने में असफल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विसंगति को सही करने की पहल कर एक अच्छा काम किया है। इस उद्देश्य के लिए मोदी ने एक उच्च स्तरीय अंतर मंत्रालयी टास्क फोर्स का गठन किया है और अपने प्रधान सचिव को इसका अध्यक्ष बनाया है। नौकरशाहों को मिलाकर बने इस टास्क फोर्स के सदस्य दूसरे अहम कामों में भी व्यस्त होंगे। अगर ऐसा न भी हो तो इस तरह का टास्क फोर्स खुद अपने आप उन प्रशासनिक बाधाओं को दूर नहीं कर सकता जो जल संसाधनों के समुचित इस्तेमाल के लिए आवश्यक हैं। इस मामले में भारत का राजनीतिक अज्ञान इतना गहरा रहा है कि उसे राजनीतिक सक्रियता और दृढ़ इच्छाशक्ति से ही दूर किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए भारत के लिए निर्धारित तीन नदियों का जो पानी भारत द्वारा इस्तेमाल नहीं किया जाता वह पाकिस्तान के मुताबिक एक वर्ष में 10.37 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) और संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 11.1 बीसीएम है। पाकिस्तान को यह जो बोनस मिलता है वह अमेरिका के साथ जल संधि करने वाले मैक्सिको के हिस्से में आने वाले पानी का छह गुना है। यद्यपि सिंधु जल संधि भारत को यह इजाजत देती है कि वह पाकिस्तान के लिए आरक्षित नदियों से 4.4 बीसीएम पानी एकत्र कर सकता है, लेकिन लापरवाह भारत ने पानी के स्टोरेज की कोई व्यवस्था ही नहीं की है। इसी तरह संधि भारत को बिना किसी बांध के जल विद्युत परियोजनाएं लगाने की इजाजत देती है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में भारत की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता पाकिस्तान के एक संयंत्र (4500 मेगावाट का दियामर-भाषा) के बराबर भी नहीं है। इस संयंत्र के लिए हाल ही में पैसा स्वीकृत किया गया है।
सच्चाई यह है कि पानी की किल्लत पूरे भारत की एक बहुत बड़ी चुनौती है। भारत में संस्थागत और एकीकृत नीति निर्धारण के अभाव ने लंबे समय से जल संसाधनों के प्रबंधन की कमर तोड़ रखी है। चीन की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति उपलब्धता समेत अन्य मामलों में भी पानी के हालात कहीं अधिक खराब हैं। इसके बावजूद भारत यह जानने-समझने का बेहतरीन उदाहरण है कि किस तरह दूरदर्शिता का अभाव और लचर नीतिगत रवैया पानी सरीखे बेशकीमती संसाधन के मामले में गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत का टूटा-फूटा और अस्त-व्यस्त रवैया बड़े-बड़े बांधों के निर्माण पर आधारित चीन के बेहद गंभीर केंद्रीकृत दृष्टिकोण का ठीक उल्टा है। नि:संदेह पानी से जुड़े विवादों को टालना पूरे एशिया की एक बहुत बड़ी चुनौती है। अंटार्कटिका को छोड़कर किसी भी अन्य महाद्वीप की तुलना में एशिया में प्रति व्यक्ति ताजे पानी की उपलब्धता सबसे कम है। इस सच्चाई ने साझे जल संसाधनों को लेकर राज्यों और राज्यों के भीतर के विवादों को भड़काने का ही काम किया है।
हाल की कई घटनाएं दर्शा रही हैं कि साझा जल संसाधनों को लेकर छिड़े संघर्ष किस तरह एशिया में भू-राजनीतिक कलह और तनाव को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। वास्तव में दक्षिण चीन सागर के संदर्भ में चीन की नीति अंतरराष्ट्रीय नदी घाटियों में पानी को हड़पने से ही जुड़ी रही है। अपनी सीमा से बाहर पानी के बहाव पर नए सिरे से पकड़ बनाने की कवायद उसकी एशिया में ताकत, नियंत्रण, प्रभाव प्रदर्शित करने की नीति से जुड़ी है। यही वजह है कि साझा जल संसाधनों को लेकर चीन के साथ भारत की तल्खी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। हाल ही में बांध निर्माण की एक बड़ी परियोजना के संदर्भ में चीन ने बताया था कि उसने बांग्लादेश और पूर्वोत्तर भारत की जीवनरेखा कही जाने वाली ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी के पानी को रोक दिया है। ब्रह्मपुत्र की यह सहायक नदी तिब्बत से होकर गुजरती है। बांध निर्माण के चलते जिबुकू नदी के प्रवाह को रोकने के साथ ही चीन ने ब्रह्मपुत्र की एक अन्य सहायक नदी ल्हासा के पानी को भी रोक दिया है।
बांध निर्माण पर ध्यान केंद्रित करने और अपनी आंतरिक नदियों के पानी की दिशा मोड़ने के साथ ही चीन का जोर अपने संसाधन संपन्न क्षेत्रों, खासतौर पर तिब्बत के पठारी हिस्सों पर है। उसने इसकी शुरुआत दस बड़ी एशियाई नदियों के साथ कर दी है। चीन की तरफ से एशिया में नदियों पर नियंत्रण स्थापित करने की यह नीयत उन देशों के लिए चिंताजनक है जो भौगोलिक तौर पर निचले हिस्से में स्थित हैं। डाउनस्ट्रीम (नदी बहाव के नीचे स्थित देश) वाले 18 पड़ोसी देशों की वजह से चीन ने नदियों पर एक तरह का प्रभुत्व हासिल कर लिया है। इस बीच चीन के करीबी पाकिस्तान ने भी सिंधु जल संधि के तहत अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ न्यायाधिकरण से भारत के खिलाफ कार्यवाही शुरू करने की मांग की है। दरअसल यह पाकिस्तान के ‘जल युद्ध’ का एक हिस्सा है। पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे की तरह ही इस संधि का इस्तेमाल भारत के साथ संघर्ष और तनावों को बरकरार रखने में कर रहा है।
आने वाले वर्षों में पानी की कमी एशिया के लिए बड़ा संकट बन सकता है। इन सबके मद्देनजर भारत को जल को एक रणनीतिक मसले की तरह देखना चाहिए। यदि जल संसाधनों के प्रबंधन को लेकर मौजूदा रुख इसी तरह कायम रहा तो पानी की कमी के चलते भारत का आर्थिक और सामाजिक विकास प्रभावित होगा। पानी की सुरक्षा को लेकर भारत को एक राष्ट्रीय कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए। यह चौंकाने वाली बात है कि पानी के मुद्दे को सुलझाने की जिम्मेदारी किसी एक हाथ में नहीं है, बल्कि यह विभिन्न 12 विभागों एवं मंत्रालयों के बीच बंटी हुई है। एक एकीकृत नीति निर्माण को बढ़ावा देने और एक राष्ट्रीय जल संसाधन प्रबंधन को लेकर स्पष्ट जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करने के लिए भारत को पानी पर अपने मौजूदा अस्त-व्यस्त दृष्टिकोण को खत्म करने की जरूरत है।
[ लेखक ब्रम्हा चैलानी, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में एसोसिएट प्रोफेसर हैं ]