संजय गुप्त
यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लिए ऐतिहासिक अवसर है कि देश के दो और शीर्ष संवैधानिक पदों राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पर उसकी विचारधारा वाले नेता विराजमान होने जा रहे हैं। इनके अलावा प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के पदों पर पहले से ही भाजपा नेता आसीन हैं। जैसे राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद का निर्वाचन तय माना जा रहा था वैसे ही उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में भी वेंकैया नायडू की जीत सुनिश्चित मानी जा रही है। एक साथ चार महत्वपूर्ण पदों पर संघ-भाजपा की विचारधारा वाले नेताओं की मौजूदगी का आधार 2014 के आम चुनाव में पार्टी की ऐतिहासिक जीत रही, जो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हासिल हुई। लोकसभा में अपने बलबूते बहुमत हासिल करने के बाद भाजपा कई राज्यों में चुनावी जीत हासिल कर चुकी है और यह दिख रहा है कि यह सिलसिला कायम रहने वाला है। संघ और भाजपा के नेता जब अपने अब तक के सफर पर निगाह डालेंगे तो उन्हें यह देखकर संतोष होगा कि वे अपनी विचारधारा वाले व्यक्तियों को शीर्ष पदों पर पहुंचाने में सफल रहे। संघ आजादी के पहले से ही राष्ट्रवाद वाली अपनी विचारधारा के प्रसार में लगा है। उसके लिए यह काम आसान नहीं था, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान पर बार-बार जोर देते हुए कांग्रेस ने एक लंबे अर्से तक राजनीतिक पटल पर राज किया। चूंकि कांग्रेस आजादी के पहले से ही अपनी विचारधारा से देश के बड़े वर्ग को प्रभावित करने में सफल रही इसलिए उसे इसका लाभ स्वाधीनता के बाद भी मिला। वह एक के बाद एक चुनाव जीतती रही। चूंकि उसे चुनौती देने वाले दल उसके आसपास भी नजर नहीं आते थे इस कारण कई दशकों तक उसने लगातार केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व किया।
किसी भी समाज में दो या तीन तरह की विचारधाराएं चलती हैं। कांग्रेस की सोच को लोगों ने प्रारंभ में स्वीकार किया, लेकिन जैसे-जैसे उन्हें यह अहसास होने लगा कि यह परिवारवाद के साथ ही तुष्टीकरण की ओर बढ़ रही है तो लोगों का उससे मोहभंग होने लगा। संघ ने कांग्रेस के विरोध के साथ ही एक वैकल्पिक विचारधारा लोगों के समक्ष रखी। फिर उसका राजनीतिक संगठन जनसंघ राजनीति में सक्रिय हुआ। आपातकाल के बाद 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने में जनता पार्टी को जो सफलता मिली उसमें जनसंघ की प्रमुख भूमिका थी। जनता पार्टी के विघटन के बाद जनसंघ का नया रूप भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आया। धीरे-धीरे भाजपा अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा स्थापित करने में सफल होती गई और अंतत: अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र की सत्ता में भी पहुंची। 2014 में गठबंधन राजनीति के सिलसिले को तोड़कर भाजपा का अपने दम पर केंद्रीय सत्ता तक पहुंचना उसका दूसरा उत्कर्ष था। कोविंद का राष्ट्रपति चुना जाना भी भाजपा की विचारधारा के प्रसार का एक बड़ा प्रमाण है।
हालांकि कई विपक्षी नेताओं ने रामनाथ कोविंद को बधाई दी है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि तमाम दल और विशेष रूप से कांग्रेस संघ और भाजपा को अस्पृश्य मानती है। इसके पीछे कहीं न कहीं खुद को श्रेष्ठ समझने की मानसिकता ही है। उसके कई नेता भाजपा और संघ को सम्मान की निगाह से नहीं देखते। ऐसे में जब कोविंद राष्ट्रपति और वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति पद पर आसीन होंगे तब देखना यह होगा कि कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों का उनके प्रति क्या रुख रहता है? ध्यान रहे कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष की साझा प्रत्याशी मीरा कुमार ने राष्ट्रपति चुनाव को विचारधारा की लड़ाई बताया था। देखना है कि क्या कांग्रेस विचारधारा का सवाल आगे भी खड़ा करेगी?
कोविंद के राष्ट्रपति चुने जाने और उपराष्ट्रपति पद पर वेंकैया नायडू के आसीन होने की संभावना के साथ ही मोदी सरकार के लिए आगे का राजनीतिक सफर काफी कुछ आसान दिखने लगा है। मोदी स्वयं पिछड़े वर्ग से आते हैं और एक दलित को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाकर उन्होंने एक बार फिर यह संदेश दिया कि वह समाज के सभी वर्गों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं। वह दलित समुदाय के बीच यह संदेश देने में खास सफल रहे कि हर वर्ग की भलाई उनकी सरकार का एजेंडा है। यह संदेश इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भाजपा को अमीरों और शहरी तबके की पार्टी के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। भाजपा अपनी रीति-नीति के जरिये इस धारणा को तोड़ने में सफल रही है कि वह किन्हीं खास वर्गों के प्रतिनिधित्व तक ही सीमित है। इसके कई सकारात्मक नतीजे भी सामने आए हैं। लोकसभा चुनाव के उपरांत एक के बाद एक राज्यों और फिर हाल में उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों ने यह पूरी तौर पर साफ किया कि पिछड़े वर्गों के साथ-साथ दलित भी बढ़-चढ़कर भाजपा का साथ दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी की ऐतिहासिक जीत में इन दोनों वर्गों का खासा योगदान रहा। भाजपा का इन दोनों वर्गों ने जिस तरह समर्थन किया उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो। अब जब दो साल बाद लोकसभा चुनाव फिर होने हैं तो दलितों के बीच गए इस संदेश का महत्व बढ़ जाता है कि उनके बीच का एक व्यक्ति देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचने में सफल रहा। इसी तरह वेंकैया नायडू का उपराष्ट्रपति चुना जाना भाजपा के लिए दक्षिण में अपनी पैठ मजबूत करने में सहायक हो सकता है। दक्षिण के राज्यों में जनाधार बढ़ाना भाजपा का एक पुराना सपना रहा है, लेकिन यह उतनी तेजी से साकार नहीं हो सका जितनी कि पार्टी उम्मीद कर रही थी।
हालांकि राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित रामनाथ कोविंद का राजनीतिक इतिहास ऐसा नहीं जिसके आधार पर उनकी तुलना शीर्ष पद पर पहुंचे किसी अन्य राजनेता से की जा सके, लेकिन दलित समाज के एक सदस्य का देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचना अपने आप में गर्व की बात है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि आजादी के इतने साल बाद भी इस समाज के साथ भेदभाव होता चला आ रहा है। कोविंद के राष्ट्रपति बनने से इस समाज को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी।
भले ही राष्ट्रपति के अधिकार सीमित होते हों, लेकिन इस पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति के सामने कई अहम जिम्मेदारियां भी होती हैं। यह देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है और इस लिहाज से राष्ट्रपति के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी विचारधारा त्यागकर एक निरपेक्ष भाव रखने की होती है। रामनाथ कोविंद के समक्ष यह भी चुनौती होगी कि वह राष्ट्रपति भवन में हर विचारधारा को सम्मान देते और संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा करते हुए दिखें। वह एक ऐसे व्यक्ति की जगह ले रहे हैं जिनके पास बहुत लंबा राजनीतिक अनुभव है। प्रणब मुखर्जी जब राष्ट्रपति बने थे तब उनके पास करीब 40 साल का राजनीतिक अनुभव था। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कभी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद पर अलग-अलग विचारधाराओं वाले व्यक्ति आसीन हैं। वह राष्ट्रपति के तौर पर कांग्रेस की विचारधारा से मुक्त दिखे। उम्मीद है कि इस कसौटी पर रामनाथ कोविंद भी खरे उतरेंगे और संविधान के रक्षक के तौर पर इस पद की गरिमा बढ़ाएंगे।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]