विश्व महामंच के जीवन महोत्सव में हम सभी जीव, पात्रों की भूमिका में हैं। हमारे अभिनय की सफलता हमारी भूमिका में निहित है। हमारी भूमिका हमारी मानसिकता से संबद्ध है। मानसिकता जितनी उन्नत होगी, अभिनय उतना ही श्रेष्ठ होगा। इसलिए जीवन को महोत्सव बनाने के लिए विचारों को सदैव उच्च और सुदृढ़ रखना होता है। मन को न केवल नियंत्रित बल्कि उध्र्वगामी संचेतना से भरपूर रखना पड़ता है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रमवश हम स्वयं को ही सूत्रधार भी मान बैठते हैं। जबकि सूत्रधार परमात्मा है। उनके संकेतों पर चलने के लिए ही हम बाध्य हैं। यह बाध्यता कोई परतंत्रता नहीं बल्कि अनुशासन है। दैवीय अनुशासन विश्व की नियति है। इसलिए परमात्मा की छत्रछाया तो एक प्रकार से हमारा संबल है।
श्रीमद्भागवत कथा में जीव का प्रतिनिधित्व परीक्षित जी ने किया है। इन्होंने शुकदेव जी जैसे परम संत के माध्यम से ज्ञान और भक्ति को आत्मसात कर जीवन को सार्थक किया है। जीवनमुक्त परीक्षित जी परमधाम को प्राप्त हुए हैं यानी मुक्त हो गए। मनुष्यत्व ही मूल है। यही कारण है कि शास्त्रों ने ‘मनुर्भव’ यानी मनुष्य बनो का उपदेश दिया है। मनुष्य बनने के लिए हमें सच्चाई से जुड़ना होगा और अपनी शक्ति को पहचानना होगा। नर ही नारायण है, यह अनुभूति करनी होगी। अपना मनोबल बढ़ाने के लिए संयम धारण करना होगा। जप, तप, ध्यान, भक्ति प्राय: एकरूप हैं। इनके अध्ययन से अपनी शक्ति को बढ़ाना होगा। जीवन की वास्तविकता का बोध ही हमारा लक्ष्य है। विवेक के माध्यम से दिव्य शक्ति का अनुभव किया जा सकता है। चारों पुरुषार्र्थों का जीवन में सुंदर सामंजस्य हो। नैतिक मूल्यों की धारणा ही धर्म है। इस नीति मार्ग को अपनाने की बात ही शास्त्रों में कही गई है। नैतिक व्यक्ति ही धार्मिक होता है। दया, करुणा, सहिष्णुता के भाव उसके जीवन को अधिक उपयोगी बना देते हैं। वह लोकहित को ध्यान में रखकर ही कार्य करता है। अर्थोपार्जन, दूसरा पुरुषार्थ है। यह अर्थोपार्जन भी न्यायसंगत होना चाहिए। जो लोग अनीति से धन कमाते हैं। अंतत: उनका विनाश होता है। दांपत्य काम, पुरुषार्थ का रूप है। संयमित प्रेममय जीवन सुख और शांति का पथ प्रशस्त करता है। फलत: व्यक्ति परम पुरुषार्थ यानी मुक्ति मार्ग का अनुयायी बन जाता है।
[ डॉ. विजय नारायण गुप्ता ]