पच्चीस साल पहले भारत ने लाइसेंस राज यानी राज्य के नियंत्रण वाले आर्थिक मॉडल से मुक्ति पाते हुए उदारीकरण की राह चुनी थी। हालांकि यह प्रकिया अभी पूरी नहीं हुई है। उससे पहले अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में सरकार की मौजूदगी और हस्तक्षेप से दशकों तक देश में जिस तरह के दमघोंटू हालात बने उसने आज भी भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद पनपने के लिए मुफीद माहौल बना रखा है। उस मॉडल ने देश में एक ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण किया था जिसका नियंत्रण कुछ मुट्ठीभर निजी कारोबारियों और सरकार के हाथों में था और जब आर्थिक सुधार की प्रक्रिया आरंभ हुई तब से यह साझेदारी ध्वस्त होनी शुरू हुई है।

आर्थिक उदारीकरण ने भारत के कारोबारी और उद्यमशीलता के परिदृश्य को निश्चित रूप से पूरी तरह बदल दिया है। आज जिन कॉरपोरेट घरानों और दिग्गजों की चर्चा हो रही है उनमें से अधिकांश का 90 के दशक में कोई नाम नहीं था और इनमें से कई अर्थव्यवस्था के खोले जाने के बाद फले-फूले। विमानन, बैंक, बीमा, टेलीकॉम, ऊर्जा, परिवहन, रक्षा और कई अन्य क्षेत्रों में आज निजी कारोबारियों और पूंजी की तूती बोलने लगी है। इनमें से अधिकांश क्षेत्रों में सरकार और निजी सेक्टर के पुराने दिग्गजों की चमक फीकी पड़ गई है।

अधिकांश लोग इस बात से सहमत होंगे कि उदारीकरण ने निजी उद्योग की तस्वीर भी पूरी तरह बदल दी है। यह स्पष्ट है कि सरकार और सरकारी संस्थाओं में इस काल में बहुत कम या कोई सुधार नहीं देखा गया है। एक तरफ अर्थव्यवस्था और अवसरों के दरवाजे खुलने से निजी सेक्टर का बड़े पैमाने पर विस्तार हुआ है, वहीं दूसरी तरफ सरकार में सुधार की कमी के खतरे और जोखिम घोटालों के रूप में सामने आए हैं। यहां 1957 में हुए एक घोटाले की चर्चा करना समीचीन होगा। कलकत्ता के एक उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा बीमार हो चुकी अपनी छह कंपनियों में 1.24 करोड़ रुपये निवेश करने के लिए सरकार के स्वामित्व वाली भारतीय जीवन बीमा निगम यानी एलआइसी के पास गए। एलआइसी इन्वेस्टमेंट कमेटी को नजरअंदाज करते हुए सरकारी दबाव में आकर निवेश किया गया। इन्वेस्टमेंट कमेटी को निवेश करने का फैसला हो जाने के बाद सूचित किया गया। आखिरकार एलआइसी का पैसा डूब गया। इस घटना के परिणाम स्वरूप तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णामचारी को इस्तीफा देना पड़ा। इस प्रकार अपने कारोबारी मित्रों को ऋण देने के लिए सार्वजनिक सेक्टर के बैंकों और बीमा कंपनियों का दुरुपयोग किया गया, जो आज भी जारी है। किंगफिशर इसका आदर्श उदाहरण है। 2जी, कोलगेट, सीडब्ल्यूजी, सब्सिडी, भूमि, पूंजी और अन्य संसाधनों से जुड़े घोटाले देश के विभिन्न राज्यों में अब भी जारी हैं और इस तरह संसाधनों का हस्तांतरण सरकार में मौजूद लोगों की साठगांठ वाले व्यवसायों और उद्यमों में हो रहा है।

संप्रग सरकार का दस वर्ष का कार्यकाल हार्वर्ड प्रोफेसर लैंट प्रिसेट द्वारा वर्णित डील इकोनॉमी (लेन-देन आधारित अर्थव्यवस्था) का उदाहरण है। डील इकोनॉमी का अर्थ राजनेताओं, नौकरशाहों और कारोबारियों के बीच साठगांठ से है। यह रूल इकोनॉमी या नियम आधारित अर्थव्यवस्था के विपरीत होती है। डील इकोनॉमी ब्रीफकेस पॉलिटिक्स या निजी कारोबारियों के नीति निर्माताओं के साथ संबंधों पर आधारित होती है। प्रिसेट ने अपने एक चर्चित लेख में लिखा है कि भारत लेन-देन आधारित अर्थव्यवस्था से नियम आधारित अर्थव्यवस्था में बदलने की कोशिश कर रहा है। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद बहुत हद तक डील पॉलिटिक्स में गिरावट आई है, लेकिन देश के दूसरे राज्यों की राजधानियों और शहरों में यह बड़ी ढिठाई से मौजूद है। इससे कड़ाई से निपटने की जरूरत है। नरेंद्र मोदी ने भारत को बदलने की बात कही है। देश को डील गवर्नेस से हटाकर रूल गवर्नेस के रास्ते पर लाना सबसे जरूरी है। नियमों के अभाव में गवर्नेस राजनीतिक और नौकरशाही के विवेक पर निर्भर हो जाता है। नियमों के बजाय विवेक पर आधारित सरकारी निर्णय भ्रष्टाचार का कारण बनते हैं।

अपनों को खैरात बांटने वाले भ्रष्टाचार के इस तरीके ने भारत जैसे देश को दो प्रकार से प्रभावित किया है। पहला, यह राजनीति और लोकतंत्र की प्रकृति को प्रभावित करता है। लेन-देन आधारित आर्थिक मॉडल राजनीति और कारोबारी जगत के बीच साठगांठ की वजह बनता है, जिससे हमारे लोकतंत्र में विकृति आती है। राजनीतिक प्रक्रिया धन बल से संचालित होने लगती है और राजनीति भी क्रोनी पूंजीपतियों को संरक्षण देती है। इसके बाद पूंजी और राजनीतिक सफलता का एक दुष्चक्र आरंभ हो जाता है। डील आधारित गवर्नेस का दूसरा प्रभाव अर्थव्यवस्था से जुड़ा है। आर्थिक महाशक्ति होने के लिए जरूरी है कि हम एक क्षमतावान और इनोवेटिव अर्थव्यवस्था बनें। लेकिन यह एक ऐसे आर्थिक मॉडल को प्रोत्साहित करता है जहां सफलता का पैमाना राजनीतिक संपर्क होता है। परिणाम स्वरूप इनोवेशन, प्रतियोगिता और दक्षता जैसे मुद्दे उलझ जाते हैं। भारत जैसे देश में एक टिकाऊ आर्थिक मॉडल के लिए ये तत्व मायने रखते हैं। एक ऐसे समय जब विनियमनसंबंधी जोखिम भारत में दीर्घकालिक निवेश की राह में रुकावट बनकर खड़ा है तब निवेशकों के भरोसे को प्रोत्साहित करने के लिए नियम आधारित गवर्नेस की महती जरूरत है।

एक पारदर्शी नीति कैसे एक देश का कायाकल्प कर सकती है, एक छोटा-सा देश एस्टोनिया इसका सबसे बेहतर उदाहरण है। सोवियत संघ में विलय के कारण वह 1940 से 1991 तक आर्थिक रूप से अपंग हो गया था, पर आज वहां प्रति व्यक्ति स्टार्टअप दुनिया में सबसे अधिक है। ऐसा उसने नब्बे के दशक के मध्य में मुक्त व्यापार और निजीकरण सहित अपनी नीतियों में सुधार कर और पारदर्शिता लाकर किया। इससे वहां लालफीताशाही खत्म हुई और कारोबार शुरू करने की प्रक्रिया आसान हो गई।

नियम आधारित गवर्नेस सरकार के कामकाज में पारदर्शिता लाता है और नागरिकों या निवेशकों और सरकार के बीच भरोसे को बढ़ाता है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से नीतियों में पारदर्शिता नजर आ रही है, लेकिन इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ सुधार किए जाने की जरूरत है। दरअसल नियम आधारित अर्थव्यवस्था से शासन का एक ऐसा पारदर्शी ढांचा खड़ा होता है जिससे निवेशकों की क्षमता में इजाफा होने के साथ प्रतियोगिता और अवसर में भी बढ़ोतरी होती है। इससे राजनीति और लोकतंत्र में पैसे और भाई-भतीजावाद का प्रभाव भी कम होता है। उदारीकरण के पच्चीस साल पूरे होने पर जरूरी है कि देश को नियम आधारित गवर्नेस के पथ पर अग्रसर किया जाए। इससे पारदर्शिता, प्रतियोगिता, दक्षता, रचनात्मकता, इनोवेशन और प्रतिभा के फलने-फूलने का मौका मिलेगा और तभी सच्चे मायने में बदलाव का सपना साकार होगा।

[लेखक राजीव चंद्रशेखर राज्यसभा के सदस्य और उद्यमी हैं]