डॉ. निरंजन कुमार

हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया और परिणाम कई पैमानों पर अभूतपूर्व हैं। इनमें भविष्य की भारतीय राजनीति के लिए संकेत और सबक छिपे हुए हैं। इन चुनावों के संदेश, निष्कर्ष और निहितार्थ क्या हैं? सबसे बड़ा संदेश यही है कि भारतीय लोकतंत्र और मतदाता निरंतर परिपक्व होते जा रहे हैं। यह परिपक्वता कई तरह से दृष्टिगत होती है। मसलन मतदाता के मानस में राष्ट्रीय दृष्टि का विकास जो भारतीय राजव्यवस्था के लिए बेहद आश्वस्तकारी है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो पिछले कई दशकों में चुनावों के दौरान जनता दोहरी मन:स्थिति में रहती थी। लोकसभा के लिए मतदान करते समय मतदाता अपेक्षाकृत राष्ट्रीय दलों को तरजीह देते थे, लेकिन विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीयता का भाव हावी रहता था। हाल में हालांकि चुनाव तो पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए थे, मगर यही प्रतीत होता है कि इनमें राष्ट्रीय किस्म की राजनीति ही पुनर्जीवित हुई है। पांचों राज्यों में राष्ट्रीय दलों ने ही विजय पताका फहराई। मतदाताओं ने एक तरह से क्षेत्रीय दलों को सिरे से नकार दिया। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा का विजय रथ पूरे प्रचंड वेग से दौड़ा तो पंजाब का किला कांग्रेस ने बड़े आराम से फतह किया। मणिपुर जैसे राज्य में भी जहां कांग्रेस के मुकाबले क्षेत्रीय दलों की ही मौजूदगी थी वहां भी भाजपा का अभूतपूर्व रूप से उदय हुआ। मणिपुर की 60 विधानसभा सीटों में कांग्रेस को 28 तो भाजपा को 21 सीटें मिलीं। यानी 49 सीटें राष्ट्रीय दलों की झोली में आईं। पूर्वोत्तर के राज्यों में जहां राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के बनिस्बत स्थानीय संगठनों की चुनौती खासी प्रभावी रहती है वहां ऐसे नतीजे वास्तव में आश्वस्त करते हैं। कमोबेश ऐसे ही हालात पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में भी रहे।
एक समय उग्रवाद की आग से झुलसने वाले सीमावर्ती राज्य पंजाब ने अरविंद केजरीवाल की उस आम आदमी पार्टी को बहुत तवज्जो नहीं दी जिसने संदिग्ध राष्ट्रविरोधी तत्वों से समर्थन लेने से भी गुरेज नहीं किया। गौरतलब है कि जहां पंजाब की जनता अकाली दल-भाजपा गठजोड़ से खासी नाराज थी वहीं कांग्रेस के पुराने अतीत को लेकर भी उत्साहित नहीं थी। इनके बरक्स सियासी पंडित और मीडिया का एक वर्ग आप को मसीहा के तौर पर पेश करते हुए यह कह रहा था कि वह दिल्ली की ही तरह पंजाब में भी नए कीर्तिमान बनाएगी। दिल्ली सरीखे हालात के बावजूद पंजाब के मतदाताओं ने आप की विभाजनकारी प्रवृत्ति को भाव नहीं दिया। उत्तराखंड की सीमा भी चीन से लगती है। यहां हमेशा मुख्य मुकाबला राष्ट्रीय दलों में ही रहा है। हालांकि जातिगत पहचान की राजनीति करने वाली बसपा भी यहां चुनाव में शिरकत करती आई है, मगर तकनीकी रूप से राष्ट्रीय दल का दर्जा रखने वाली बसपा को 2012 के चुनाव में 12 प्रतिशत मत और विधानसभा की 3 सीटें हासिल हुई थीं, लेकिन 2017 में जहां इसका मत प्रतिशत घटकर 7 फीसद रह गया वहीं विधानसभा में इसे एक भी सीट नसीब नहीं हुई। इसी तरह सामुद्रिक सीमा वाले गोवा में भी तमाम कयासों के उलट आप औंधे मुंह गिरी। वहां खाता खोलना तो दूर 40 में से उसके 39 उम्मीदवारों की जमानत भी जब्त हो गई।
परिपक्वता का दूसरा पैमाना है कि मतदाताओं ने जाति-धर्म की संकीर्णता छोड़ मतदान की कोशिश की। हालांकि कुछ अपवाद जरूर रहे। मगर उत्तर प्रदेश में अपने परंपरागत मतदाताओं से परे भी भाजपा का हैरतअंगेज प्रदर्शन इस पर मुहर लगाता है। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों से लेकर यादव बहुल इलाकों में भी भाजपा को भारी सफलता मिली। इसी तरह जाट बहुल इलाकों में अजित सिंह के लोकदल को महज एक सीट मिलना भी इसे पुष्ट करता है। 2014 के लोकसभा चुनावों में माना गया था कि 8 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया। हालांकि मौजूदा चुनावों के अभी तक समग्र आंकड़े नहीं आए हैं, लेकिन माना जा रहा है मुस्लिम मतदाताओं खासकर तीन तलाक के मुद्दे पर उद्वेलित महिलाओं ने भाजपा को वोट दिए। हालांकि यह भी कुछ हद तक ठीक है कि तीन तलाक के मुद्दे को उभारने में भाजपा का मकसद मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में सुधार की चिंता से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेना ही है, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि यह मुस्लिम महिलाओं के मानवाधिकार का मुद्दा है। अन्य दल इस मुद्दे का समर्थन कर भाजपा के इस दांव को नाकाम कर सकते थे, मगर वोटबैंक की राजनीति की खातिर सभी दलों ने इस मुद्दे पर विरोधी रुख ही अपनाया हुआ था। इसी तरह मुस्लिम युवाओं का वह वर्ग भी, जो मुख्यधारा में शामिल होकर राष्ट्र की प्रगति में कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ना चाहता है वह भी तथाकथित सेक्युलर दलों से बहुत खुश नहीं है। समझा जा रहा है कि इस वर्ग ने भी भाजपा को वोट दिया, अन्यथा क्या कारण है कि जिस उत्तर प्रदेश में 70 सीटों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 20 से 25 प्रतिशत और 73 सीटों में 30 से 49 प्रतिशत तक है उन 143 सीटों में 115 से ज्यादा पर भाजपा को कैसे कामयाबी मिली?
परिपक्वता का एक आयाम पार्टी के स्तर पर भी है। संकीर्णता और खैरात वाली राजनीति की जगह विकास और आकांक्षा वाली राजनीति धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही है। हालांकि सभी दलों ने अपने-अपने स्तर पर तमाम लोकलुभावन वादों की झड़ी लगाई, लेकिन उनसे भी बढ़कर विकास के जरिये उत्थान एजेंडे में सबसे ऊपर रहा। विशुद्ध रूप से अस्मिता की राजनीति करने वाली बसपा को यहां तक कहना पड़ा कि सत्ता में दोबारा आने पर वह मूर्तियों और स्मारकों का निर्माण नहीं करेगी और विकास पर संसाधन खर्च करेगी।
राजनीतिक परिपक्वता की दृष्टि से भाजपा का कायांतरण भी खासा अहम है। पार्टी ब्राह्मण-बनियों की पार्टी की परंपरागत छवि तोड़कर सर्वसमाज की पार्टी बनने की दिशा में आगे बढ़ी है। उसने शहरी मध्यम वर्ग की पार्टी वाली छवि तोड़कर ग्रामीण और गरीबों के एजेंडे को भी आत्मसात किया है। ऐसा करके उसने कांग्रेस और वामपंथियों के समाजवादी और साम्यवादी एजेंडे को भी उनसे छीन लिया। यह सही है कि जाति, मजहब और पहचान वाली संकीर्णता और स्थानीय दलों के प्रभाव की अभी पूरी तरह विदाई नहीं हुई है, लेकिन इस चुनाव प्रक्रिया और परिणाम ने भारत में एक नए, परिपक्व और दूरगामी राजनीतिक-समाजशास्त्र के जन्म का उद्घोष तो कर ही दिया है।
[ लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं ]