पिछला साल ऐसी घटनाओं का रहा जो एक दूसरे से संबंधित होने के साथ हमारे भविष्य की गंभीर तस्वीर प्रदर्शित करती है। अब हमें इस चुनौती का सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

दिसंबर में पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का समापन ऐसे समझौते के साथ हुआ जो महत्वाकांक्षी लक्ष्यों और समानता के धरातल से दूर प्रतीत होता है। उसके बाद चेन्नई त्रासदी देखने को मिली। आमतौर पर पानी के संकट को झेलने वाला यह शहर पानी में डूब गया। इससे यहां के साथ अन्य महानगरों में रहने वाले नागरिकों को बदलते जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे का अहसास हुआ। इससे यह सबक भी मिला कि यदि हम इसी तरह कुप्रबंधन करते रहे तो अति मौसमी दशाओं का शिकार हमको होना पड़ेगा। उसके बाद दिल्ली में जहरीली हवा के असर और सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा के संकट का मसला देखने को मिला। उससे यह सबक मिला कि यदि आप सांस लेने लायक हवा चाहते हैं तो कम से कम एक साथ तकनीक और परिवहन के लिहाज से बदलती जीवनशैली की प्रवृत्तियों के सम्मिलन को अपनाना होगा। इन घटनाओं से कुछ सख्त संदेश निकले। पहला, यदि हम सुरक्षित जीवन और स्वास्थ्य चाहते हैं तो पर्यावरणीय मसलों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। दूसरा, विकास के मौजूदा मॉडल के विपरीत प्रभावों के मद्देनजर हमें इसके लिए दूसरे रास्तों को अपनाना होगा। तीसरा, हमारा ग्रह लगातार गरम हो रहा है इसलिए जो भी करना है उसे आवश्यकता से अधिक तेज गति से करना होगा।

पेरिस समझौते को एक लक्षण के रूप में देखना चाहिए। दुनिया आज दो आपदाओं के बीच घूम रही है। एक, हमारी आर्थिक विकास की जरूरत और दूसरी अंधाधुंध अत्यधिक उपभोग जिसके चलते वायुमंडल में जहरीली ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। प्राथमिक रूप से हमारी ऊर्जा जरूरतों के लिए इन गैसों के उत्सर्जन ने हमारे भविष्य को दांव पर लगा दिया है। जलवायु परिवर्तन से संबंधित इन अति मौसमी दशाओं को हम पहले ही देख रहे हैं और इनके असर से पिछले साल फसलों के खराब होने से देश के लाखों किसानों का जीविकोपार्जन प्रभावित हुआ है। कमजोर नीतियों और असामयिक मौसमी दशाओं की मार से किसान मानसिक अवसाद के शिकार होकर आत्महत्या तक कर रहे हैं। इन सबके चलते विकास के लाभ से महरूम हो रहे हैं। सिर्फ इतना ही नहीं पेरिस समझौते की कमजोर भाषा ने हमको दीन हीन ढंग से विफल किया है। उसमें पहले से समृद्ध और संपन्नता की ओर अग्रसर देशों ने संकेत दिया है कि अपनी आर्थिक वृद्धि या उपभोग के मामले में बाकियों के हितों के मद्देनजर वे समझौता नहीं करने वाले हैं। दूसरी त्रासदी हमें असमान, असुरक्षित और असहिष्णु विश्व में रहने के लिए मजबूर करने वाली है। पेरिस समझौता हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि अमीर जगत ने जो अपना बुलबुला बनाया है उसमें उनको यकीन है कि न ही उसे कोई पकड़ या फोड़ सकता है। इस बुलबुले में सुरक्षित रहने के लिए बातचीत केवल उन्हीं विषयों तक सीमित है जो अधिक सुविधाजनक है। नतीजतन जलवायु परिवर्तन से लेकर व्यापार और अंतरराष्ट्रीय समझौतों में एक प्रभावी पक्ष रहता है। सबसे शक्तिशाली मुल्क यह यकीन करते दिखते हैं कि दूसरी तरफ या पक्ष में कोई नहीं है। इसलिए दूसरे की पोजीशन का कोई सम्मान नहीं है। यह मान लिया गया है कि दूसरा पक्ष या तो आतंकी या कम्युनिस्ट या भ्रष्ट या अक्षम है। इसलिए भिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और वास्तविकताओं को खारिज किया जा रहा है।

इन सबके बीच विश्व में असमानता बढ़ रही है। आर्थिक वृद्धि और संपन्नता की कोई भी मात्रा अब पर्याप्त नहीं है क्योंकि आकांक्षा ही नया ईश्वर है। ऐसे में जो भी गरीब होगा वो सीमांत या हाशिए पर होगा। इस नए साहसी विश्व में ऐसे विफल लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह डार्विन के योग्यतम की उत्तरजीविता सिद्धांत पर आधारित है। इन सबसे भविष्य सुरक्षित नहीं होगा। इसकी परिणति हिंसक युद्ध की होगी। लेकिन हमको इसे अभी और सदा के लिए बदलना होगा। हमें आशा नहीं छोड़नी चाहिए।

-सुनीता नारायण

(डायरेक्टर जनरल, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट)