ज्ञान प्राप्त करने के लिए न उपदेश की जरूरत होती है और न ही ग्रंथों के अध्ययन की। अणु और परमाणु को जान लेना भी ज्ञान नहीं है। ज्ञान ऐसा होना चाहिए जोे ग्रहण करने के बाद हमारे व्यवहार और कर्म में उतर सकें। जो ज्ञान हमारे कर्म और व्यवहार में न दिखे, वैसा ज्ञान स्वयं तक के लिए लाभकारी नहीं होता। ऐसा ज्ञान व्यर्थ है, समय की बर्बादी है। जैसे, कुछ लोग कहते हैं कि हम सत्संग करने जा रहे हैं या सत्संग से आ रहे हैं। सत्संग न कहीं करने जाना होता है और न कहीं से करके आना होता है, बल्कि सत्संग को हमें हमेशा अपने साथ लेकर चलना होता है। सत्संग क्या है, सत्य के संग। अब सत्य का साथ मनुष्य को जीवनभर निभाना पड़ेगा। जो सत्य के मार्ग से डिग जाए, फिर उसका सत्संग में जाने या न जाने का क्या मतलब रह जाता है। इसी तरह उस ज्ञानोपदेश के क्या अर्थ, जिसे हम आत्मसात ही न कर पाएं। हमने अहिंसा का पाठ पढ़ तो लिया कि जियो और जीने दो, लेकिन इस पाठ का महत्व तभी होगा, जब हम वास्तव में हिंसा करना बंद कर दें।
हम हिंसा करते रहें और कहें कि हमने अहिंसा का पाठ पढ़ लिया है तो इससे मुंह में राम बगल में छुरी वाली कहावत ही चरितार्थ होगी। ज्ञान प्राप्त करने के बाद मनुष्य को अपने व्यक्तित्व में ऐसा निखार लाना होता है कि उसका प्रभाव उसके कर्म में दिखे। हम ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कहते हैं, तो इसका अर्थ यही हुआ कि मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ। यहां प्रकाश का अर्थ ज्ञान से है। अंधकार में कुछ नहीं दिखाई देता, जबकि प्रकाश में सब कुछ दिखाई देता है। यानी हमें ऐसा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जिससे हम प्रकाशमयी हो जाएं। अगर हम ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी अंधकार में रहे तो ऐसे ज्ञान के कोई मायने नहीं रह जाते। ऐसे ज्ञानी अब भी अज्ञानी हैं। अज्ञानी के जीवन में न उत्साह-तरंग है, न जिज्ञासा है और न ही कोई रहस्य है। वैसे, अपनी प्रकृति से हम जैसा ज्ञानोपदेश प्राप्त कर सकते हैं, वैसा कहीं और से नहीं। पर्वत हमें ऊंचा उठने तो धरती सभी को अपने आप में समाहित करने की क्षमता विकसित करने की प्रेरणा देती है। नदी हमें अविरल-निर्मल बहने की तो पेड़-पौधे अपना पूरा शरीर दूसरों की भलाई में समर्पित करने की सीख देते हैं। खैर, कोई कितना ही ज्ञानी क्यों न हो, उसके लिए भी ज्ञान देने के बजाय ज्ञान लेना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि इस धरती पर इतना ज्ञान बिखरा पड़ा है कि उसे समझने-जानने के लिए हमारा जीवनकाल बहुत छोटा है।
[ शंभूनाथ पांडेय ]