आरके सिन्हा
अमरनाथ यात्रा पर गए गुजरात के निहत्थे तीर्थयात्रियों पर हमले की निंदा और भर्त्सना जैसे शब्दों से देश संतुष्ट नहीं होगा। ऐसे शब्द अब अपने अर्थ खो चुके हैं। इस प्रकार की हिंसा बहुत भयानक और खतरनाक है और यही कारण है कि पूरे देश में गुस्से की लहर है। निर्दोष-निहत्थे लोगों की हत्या करना हर दृष्टि से एक पाप है। यदि ईंट का जवाब पत्थर से अब नहीं दिया जाएगा तो कब दिया जाएगा? कोई माने या न माने, लेकिन कश्मीर में जबसे वहाबियत परवान चढ़ी है तबसे वहां के हालात ज्यादा बिगड़े हैं। अब कश्मीर घाटी में हिंदुओं के लिए कोई जगह नहीं दिख रही है। इस आतंकी हमले ने साफ कर दिया कि कश्मीरियत बुरी तरह से वहाबियत की जकड़न में है और आजादी एवं अधिकारों की कथित लड़ाई जेहादी आतंकवाद का चोला धारण कर चुकी है। इसका कोई मतलब नहीं कि हुर्रियत सरीखे अलगाववादी संगठनों के नेता मगरमच्छ की तरह आंसू बहाते हुए अमरनाथ यात्रियों पर हमले की निंदा कर रहे हैं। हम यह कैसे भूल जाएं कि ये वही लोग हैं जो बुरहान वानी, सलाहुद्दीन और हाफिज सईद जैसे आंतकियों का गुणगान करते हैं। ऐसे शातिर और चालबाज नेताओं की बदनीयत के खिलाफ कश्मीरी जनता जितनी जल्दी चेत जाए, बेहतर है। आखिर पत्थरबाजों का साथ देने और यहां तक कि उन्हें पैसा बांटने वाले तथा आतंकियों की मौत पर मातम मनाने वाले किस मुंह से अमरनाथ यात्रियों पर हमले की निंदा कर रहे हैं? यदि आम कश्मीरी अवाम गिलानी और मीरवाइज जैसे अपने कथित नेताओं के खिलाफ आगे नहीं आता तो यह तय है कि कश्मीर में कश्मीरियत के लिए कहीं कोई जगह नहीं रह जाएगी।
दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जहां विविधता नहीं, समस्या नहीं और जहां धार्मिक मतभेद न हों, लेकिन जब कथित काफिरों को मारना जायज सिद्ध किया जाए तो इसका मतलब है कि पानी सिर के ऊपर से बहने लगा है। कश्मीर में ऐसा ही दिख रहा है। वहां भारत और भारतीयता के लिए जगह कम होती जा रही है। अमरनाथ यात्रियों पर हमला आतंकियों की सोची-समझी चाल है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उन्होंने खास तौर पर गुजरात के लोगों को निशाना बनाया। गुजरात के लोगों को निशाना बनाना सोची-समझी साजिश नजर आती है। सुरक्षा में खामी का यह मतलब नहीं हो सकता कि आतंकी जिसे चाहें उसे मार दें।
कश्मीर में हालात खराब भले ही दिख रहे हों, लेकिन देश को विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। कश्मीर में देश विरोधी ताकतों को सख्ती से कुचला जा रहा है। सरकार हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठी है। वह बैठ भी नहीं सकती, लेकिन अब उसे देश विरोधी ताकतों की कमर तोड़ने का काम और मुस्तैदी से करना होगा। इसलिए और भी, क्योंकि सारा देश अमरनाथ यात्रियों के हत्यारों को कुचलना चाहता है। सरकार को भी देशव्यापी जनभावनाओं की जानकारी है। कश्मीर में सुरक्षा बल किसी भी स्थिति से निपटने में पूर्णत सक्षम एवं समर्थ हैं। सरकार ने उन्हें उचित कार्रवाई की छूट भी दे रखी है। कश्मीर घाटी के भीतरी इलाकों में ही नहीं, एलओसी पर भी सेना ने आतंकी मंसूबों को पूरी तरह नाकाम बनाते हुए कई कुख्यात आतंकियों को हाल के दिनों में मार गिराया है। अमरनाथ जैसी बर्बरतापूर्ण घटना के बाद यह कहना ठीक नहीं कि देश आतंकवाद के खिलाफ जंग में कमजोर पड़ रहा है। यह बिलकुल सच नहीं है। सरकार कठोर कार्रवाई कर रही है। आतंकियों को मार गिराया जा रहा है, लेकिन निर्दोष आम जनता को किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचे, यह भी सुनिश्चित करना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी बनती है।
कश्मीर की एक वास्तविकता यह भी है कि देश विरोधी तत्वों की हरकतों के कारण सामान्य कश्मीरी जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। राज्य में पर्यटन उद्योग बुरी तरह तबाह हो चुका है। कुटीर उद्योग और हस्तशिल्प के मशहूर काम-धंधे समाप्तप्राय हो गए हैं। पिछले कुछ समय से तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी चौपट है। ऐसे हालात में आम कश्मीरियों को देश विरोधी ताकतों से दुबक कर रहने की बजाय उनका खुलकर विरोध करने के लिए सामने आना होगा। इसी में उनकी भलाई है। वे इस तथ्य को ओझल नहीं कर सकते कि कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद ने तीन पीढ़ियां बर्बाद कर दी हैं। आखिर और कितनी पीढ़ियों का भविष्य कुर्बान होगा? कश्मीरी अवाम को खून के प्यासे आतंकियों के साथ-साथ उनके समर्थकों से भी दूर होना होगा और विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना होगा। यदि कश्मीरी जनता की कोई समस्या है तो वह लोकतांत्रिक तरीके से अहिंसक आंदोलन करके अपनी मांग मनवा सकती है। इतना तो कश्मीरी अवाम को समझ ही लेना चाहिए कि यदि वह लोकतंत्र के रास्ते पर चलने को राजी नहीं तो उसका भविष्य शुभ नहीं। आतंकी सरेआम लूट, दादागीरी और हफ्ता वसूली का धंधा मात्र कर सकते हैं। यही उनकी असली औकात है। उनके आकाओं को भी यह अच्छी तरह मालूम है कि वे भारत की राजसत्ता से लोहा नहीं ले सकते, लेकिन भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर और मजहब के नाम पर उन्हें बरगलाकर खूनी खेल खेलते रहते हैं।
अनंतनाग में अमरनाथ यात्रियों पर भयावह आतंकी हमले के बाद सारा देश उन छद्म सेक्युलरवादियों की ओर भी देख रहा है कि वे इस कातिलाना हमले को किस तरह लेते हैं। वे शायद यही कहकर कर्तव्य की इतिश्री करें कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। कश्मीर में अमरनाथ यात्रियों के मारे जाने के बाद से मानवाधिकार बिरादरी को सांप सा सूंघ गया है। यह बिरादरी तब भी चुप रहती है जब जम्मू-कश्मीर में पुलिस या फिर अद्र्धसैनिक बलों के जवान शहीद हो जाते हैं। मानो उनके मानवाधिकार न होते हों या फिर उनकी किस्मत में पत्थर या गोली खाना ही लिखा हो। डूब मरें ऐसे मानवाधिकारवादी।
निश्चित रूप से भारत जैसे देश में हरेक नागरिक के मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार का दायित्व है, लेकिन कभी-कभी लगता है कि इस देश के पेशेवर मानवाधिकारवादी सिर्फ अपराधियों और आतंकियों के प्रति ही संवेदनशील हैं, आम नागरिकों के प्रति नहीं। आखिर जो तत्व अमानवीय कृत्यों में लिप्त हों उनका मानवाधिकार कैसा? लेखिका अरुंधती राय मानवाधिकारों की बड़ी पैरोकार मानी जाती हैं, लेकिन वस्तुत: वह अंध भारत विरोध से ग्रस्त हैं और इसी कारण वह पाकिस्तानी सेना को कहीं अधिक मानवाधिकारवादी बताती हैं। पहले वह कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के ही गुण गाती थीं, लेकिन अब वह पाकिस्तानी सेना की प्रवक्ता की भूमिका में दिखाई देने लगी हैं। अपने देश में उनके जैसे लोगों की पूरी एक जमात है। इसी जमात ने दादरी कांड के बाद अभिव्यक्ति की आजादी का कथित तौर पर गला घोंटे जाने का शोर मचाते हुए पुरस्कार लौटाने का अभियान छेड़ा था। जरा अंदाजा लगा लीजिए कि किस तरह आस्तीन के सांप इस देश में पल रहे हैं? यह साफ है कि अमरनाथ यात्रियों के साथ खूनी खेल खेलने वाले भारत के विचार को ही नहीं मानते। वे बहुलवादी और विविधता से भरपूर भारत को ठेंगे पर रखते हैं। ऐसे तत्वों के साथ-साथ उनके दबे-छिपे समर्थकों पर भी निर्णायक प्रहार होना चाहिए।
[ लेखक राज्यसभा सदस्य हैं ]