रामिश सिद्दीकी

हाल में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने बड़ा गैर जिम्मेदाराना बयान दिया। उन्होंने कहा कि कुपवाड़ा में भारतीय सेना के साथ हुई मुठभेड़ की चर्चा असल में मुसलमानों को बदनाम करने के लिए की जा रही है। फारूक अब्दुल्ला के इस बयान पर हमें कोई हैरानी नहीं हुई, क्योंकि उनकी परवरिश ही ऐसी सोच वाले परिवेश में हुई है। अब्दुल्ला के पिता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने 21 जून, 1931 को मुस्लिम कांफ्रेंस नामक पार्टी की स्थापना की थी। पार्टी के नाम से ही उसकी स्थापना के उद्देश्य को समझा जा सकता है कि उसका मकसद क्या रहा होगा? हालात बदलते देख उन्होंने 10 जून, 1939 को एक प्रस्ताव पारित कर पार्टी को नेशनल कांफ्रेंस का नया नाम दिया। आज कश्मीरी नेता कश्मीर के आंदोलन को इस्लामिक कहते हैं, लेकिन उसका इस्लाम से दूर-दूर तक कहीं कोई ताल्लुक नहीं है। इस्लाम में गुरिल्ला युद्ध और छलावे के लिए कोई जगह नहीं है, लेकिन ये दोनों पहलू कश्मीर में हमेशा देखने को मिले। इस्लाम में अगर कोई शासन आपको आपका मजहब मानने की इजाजत देता है तो ऐसे शासन के विरुद्ध युद्ध करना या द्वेष रखना निषिद्ध है। भारत सरकार ने कभी भी कश्मीरी लोगों की धार्मिक मान्यताओं को आहत नहीं किया। ऐसे में यह आंदोलन इस्लामिक कैसे हो गया? सिर्फ किसी नेता के कहने भर से इसे इस्लामिक नहीं कहा जा सकता।
आज कश्मीरी युवाओं को एक ऐसी लड़ाई में झोंक दिया गया है जिसका फायदा केवल वहां के झूठे रहनुमा उठा रहे हैं। ये कथित रहनुमा किस तरह अपने लोगों की ही जिंदगी बर्बाद कर रहे हैं इसे बयान करती है लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की हत्या। 23 साल के फौजी अफसर उमर फैयाज की हत्या के बाद अगर आम कश्मीरी अपने अतीत का आकलन करे तो उसे केवल नाकामी और निराशा ही दिखेगी। वे यह भी देख पाएंगे कि किस तरह उनके स्वयंभू रहनुमाओं के स्वागत के लिए दिल्ली की सत्ता के गलियारों में लाल कालीन बिछाए जाते रहे हैं। कश्मीर के तथाकथित रहनुमा आज वहां के युवाओं को अंतहीन अंधियारी गली में धकेलने पर आमादा हैं। कश्मीर में एक तबका आजादी की बात करता है तो दूसरा कश्मीर के पाकिस्तान में विलय पर अड़ा है। आज कश्मीर के पास विकल्प भारत और पाकिस्तान नहीं, बल्कि कामयाबी और नाकामयाबी है।
पिछले 70 सालों से भारतीय उपमहाद्वीप में रह रहे मुस्लिम समाज को देखें तो मुसलमानों की सबसे ज्यादा तरक्की भारत में ही हुई है। उपमहाद्वीप में अगर सबसे अमीर मुसलमानों की बात की जाए तो वे पाकिस्तान या बांग्लादेश के नहीं, बल्कि भारत में रहने वाले अजीम प्रेमजी हैं। ऐसी कामयाबी तभी संभव है जब कश्मीरी अवाम पूरे मन से अपने आप को भारत का हिस्सा माने। भारतीय सेना कश्मीर में पहली बार कश्मीरियों की हिफाजत के लिए ही दाखिल हुई थी। 1989 तक कश्मीर के अन्य हिस्सों और गांवों तक उसकी पैठ नहीं थी, लेकिन अक्टूबर 1989 में जब वहां हथियारबंद आंदोलन शुरू हुआ तो सेना के पास कोई रास्ता नहीं था। उसके पास यही विकल्प था कि घनी आबादी के उन हिस्सों में जाए जहां कश्मीरियों ने आतंकियों को पनाह दे रखी है। इसमें सेना की गलती थी या उन लोगों की जो आतंकियों के मददगार बने हुए थे?
हजरत मोहम्मद साहब का एक कथन है, ‘चरमपंथी रास्ते से बचो, यह और विकट स्थितियों की ओर ले जाता है।’ इसके विपरीत मौजूदा दौर के मुस्लिम नेतृत्व ने दुनिया के हर कोने में मुसलमानों को अतिवाद के रास्ते की ओर अग्र्रसर कर रखा है। इसमें कश्मीर कोई अपवाद नहीं है। इस अतिवाद ने कश्मीर की सामाजिक और नैतिक बनावट को छिन्न-भिन्न कर दिया है। एक दौर था जब कश्मीर में पर्यटकों का जमावड़ा होता था। पुराने कश्मीरी व्यापारी बताते हैं कि तब उनके हर सामान आसानी से बिक जाते थे, लेकिन आज पर्यटकों के अभाव में उन्हें कश्मीरी सेब बेचना भी मुश्किल हो रहा है।
विकट से विकट स्थिति में भी कामयाबी के अवसर समाप्त नहीं होते। अगर एक दरवाजा बंद होता है तो उसके साथ दूसरा अवश्य खुलता है। कश्मीरियों के सामने भी आज अनेक अवसर मौजूद हैं, लेकिन इसे हासिल करने के लिए उन्हें शोषण करने वाले उन नेताओं का साथ छोड़ना होगा जिन्होंने समाज में पैदा असंतोष को हवा देकर अपने को सशक्त बनाया है। सही नेतृत्व वह होता है जो समाज में सकारात्मक सोच पैदा करे और उसमें रहने वाले लोगों का भविष्य उज्ज्वल करने की कोशिश करे। यह सच है कि आप शांति की अनंत अवस्था में रह सकते हैं, परंतु अनंत युद्ध की अवस्था में कभी नहीं रह सकते। यह दुख की बात है कि कश्मीरी नेतृत्व को यह कभी समझ ही नहीं आया। इसलिए वे अपने इस चेतना-शून्य आंदोलन को जारी रखे हैं। अगर अनंत काल तक युद्ध में जीना संभव होता तो शायद जर्मनी और जापान कभी यू-टर्न न लेते।
आज मुस्लिम समाज शांति और न्याय की गलत व्याख्या में फंस कर रह गया है। शांति की सही परिभाषा है युद्ध का न होना। शांति का सही लक्ष्य यह नहीं है कि कोई समाज न्याय की परिभाषा अपने हिसाब से परिभाषित करे और फिर वैसी ही परिस्थितियां हासिल करने की उम्मीद करे। शांति का असल लक्ष्य है ऐसी परिस्थितियां पैदा करना जहां प्रत्येक समाज मिलकर न्याय की रक्षा करे। अगर कश्मीरी दूसरों के साथ नहीं चल सकते तो दूसरे उनके साथ कैसे चल सकेंगे?
इंसान एक विचारशील प्राणी है। अगर उसमें नकारात्मक और विनाशकारी विचार डाले जाएं तो उसका संपूर्ण व्यक्तित्व नकारात्मक हो जाएगा। इसके विपरीत अगर उसमें सकारात्मक विचार डाले जाएं तो उसका व्यक्तित्व भी सकारात्मक हो जाएगा। आज पूरे कश्मीरी समाज को इस पर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। कश्मीर 14वीं शताब्दी में सूफी बुज़ुर्ग शाह हमदान का केंद्र बना। उन्होंने वहां भाईचारे और समानता की बात की, जिसे वहां के लोगों ने समझा और दिल से लगाया। आज समय आ गया है कि कश्मीरी अपने समाज को फिर से शाह हमदान द्वारा दिखाए प्यार और भाईचारे के रास्ते पर लौटाएं, न कि उस रास्ते पर आगे बढ़ाएं जो पिछले 70 सालों से कश्मीर के असफल नेतृत्व ने उन्हें दिखाया है।
[ लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार हैं ]