अधिकांश लोग भौतिक शरीर और मन के कार्यकलापों में व्यस्त रहते हैं। जो लोग ऐसे कार्यकलापों की निम्नतम अवस्था में हैं उनमें से विरले ही आध्यात्मिक स्तर को समझ सकते हैं। ये लोग सामान्यतया भ्रम में रहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके पाप और पुण्य के विविध कार्य इंद्रियतृप्ति के आचरण के माध्यम से नश्वर शरीर के सुख की वृद्धि पर केंद्रित होते हैं। भौतिक विज्ञानी भौतिक इंद्रियों को (जिनमें आंख, नाक, कान, त्वचा, जीभ और मन सम्मिलित है) तुष्ट करने के लिए अनेक विषयों को खोज निकालते हैं। इस तरह यह वैज्ञानिक भौतिक सुखों को बढ़ाने के लिए परोक्ष रूप से अनावश्यक स्पर्धा का क्षेत्र तैयार कर देते हैं जिससे सारा विश्व अनावश्यक क्लेश के भंवर में फंस जाता है। इसका परिणाम होता है विश्वभर में अभाव। यहां तक कि जीवन की सामान्य आवश्यकताएं-रोटी, कपड़ा और मकान- भी विवाद की वस्तुएं बन जाती हैं। इस तरह ईश्वर प्रदत्त सादा जीवन और उच्च विचार की परंपरागत जीवन-शैली में सभी प्रकार के व्यवधान आ जाते हैं। जो व्यक्ति ऐसे स्थूल भौतिकतावादियों से कुछ ऊपर हैं, वे मृत्यु के बाद के जीवन होने में दृढ़ विश्वास रखते हैं और फलस्वरूप वे स्थूल इंद्रिय-भोग के मौजूदा जीवन स्तर से कुछ ऊपर उठने का प्रयास करते हैं। वे पुण्यकर्म करके अगले जीवन के लिए कुछ पुण्य संचित करने का प्रयास करते हैं। जिस तरह कोई व्यक्ति भावी सुख के लिए बैंकों में कुछ धन जमा करता है, किंतु ये लोग यह नहीं समझ पाते कि पुण्य कर्मों को करने से भी कोई व्यक्ति कर्म के बंधन से छूट नहीं सकता। न तो पापी और न ही पुण्यात्मा और भौतिकतावादी यह समझता है कि सदैव प्रतिकूल कर्म-बंधन से मुक्ति पाने के लिए कर्मयोग ही एकमात्र साधन है। इसलिए दक्ष कर्मयोगी और आसक्त भौतिकतावादी जैसा भी आचरण करता है, किंतु साथ ही साथ वह अपने कर्मफल को भगवान को भी अर्पित करता रहता है जिससे सामान्य लोगों को यह शिक्षा मिले कि सामान्य कार्य को करते हुए भी कर्म और कर्मफल के बंधन से किस तरह निकला जा सकता है। इस प्रकार स्वयं कर्मयोगी को और संपूर्ण जगत को एक साथ लाभ होता है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे भरतवंशी अच्छा हो कि तुम उस आसक्त भौतिकतावादी की तरह कर्म करते रहो जो दिव्य ज्ञान से अनभिज्ञ है। इस प्रकार तुम लोगों को कर्मयोग के पथ पर प्रवृत्त कर सकते हो।
[ एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के प्रवचन का एक अंश ]