आरक्षण में जातिवार विभाजन का औचित्य
नई जातियों को आरक्षण सूची में सम्मिलित करने का अधिकार सरकार से हटाकर संसद में निहित करने का निर्णय किया है।
सुधीर पंवार
मोदी मंत्रिमंडल ने अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों को मिलने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण को जातिवार विभाजित करने और नई जातियों को आरक्षण सूची में सम्मिलित करने का अधिकार सरकार से हटाकर संसद में निहित करने का निर्णय किया है। सरकार के इस निर्णय के पीछे घोषित उद्देश्य तो अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग को राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग के समकक्ष लाना और आरक्षण के लाभ को अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में सम्मिलित सभी जातियों को सामान रूप से वितरित करना है, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ भी स्पष्ट दिख रहे हैं। यह आम धारणा है कि मंडल आयोग की संस्तुतियों के लागू होने के बाद सशक्त राजनीतिक नेतृत्व वाली जातियों और खासकर उत्तर भारत में असरकारी यादव, कुर्मी, जाट, लोध आदि ने आरक्षित नौकरियों का अधिकांश हिस्सा हासिल कर लिया है। इसके कारण अन्य जातियों को आरक्षण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहा है, लेकिन इस धारणा के आधार पर आरक्षण व्यवस्था में परिवर्तन करने से पहले सरकार ने न तो कोई अध्ययन कराया है और न ही कोई तथ्य सार्वजनिक किए हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण के संबंध में भी कई बार यह मांग सरकार के समक्ष रखी गई है कि आरक्षण का लाभ तीन-चार जातियों तक ही सिमट कर रह गया है और सबको आरक्षण का लाभ देने के लिए कुछ नए उपाय किए जाने चाहिए, लेकिन उसके द्वारा इस मांग को खारिज ही किया जाता रहा है। सूचना अधिकार कानून के तहत 2015 में सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित नौकरियों में योग्य अभ्यर्थी उपलब्ध न होने के कारण कई विभागों में आरक्षित पद रिक्त रह जाते हैं और कुछ विभागों में 27 प्रतिशत आरक्षित पदों में केवल सात-आठ प्रतिशत पद ही भरे जा सके हैं। यदि इस तर्क के आधार पर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के आरक्षण में जातिवार विभाजन नहीं हुआ है तो अन्य पिछड़ा वर्ग में ही जातिवार विभाजन का क्या औचित्य है?
सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ निश्चित योग्यता प्राप्त अभ्यर्थियों को ही मिलता है। अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित पदों के रिक्त रहने से यह निष्कर्ष निकलता है कि आरक्षित जातियों में अभी भी अहर्ता प्राप्त अभ्यर्थियों की कमी है और आरक्षित स्थानों को भरने के लिए योग्य अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है। सरकार द्वारा हाल में क्रीमीलेयर की सीमा बढ़ाकर आठ लाख रुपये करना परोक्ष रूप से इस तथ्य को स्वीकार करना ही है। आरक्षित नौकरियों में कथित उच्च पिछड़ी जातियों की अधिक संख्या का एक कारण उनकी आनुपातिक जनसंख्या भी हो सकती है। सरकार ने विपक्ष की मांग के बाद भी जाति आधारित जनगणना-2011 के आंकड़े अभी तक सार्वजनिक नहीं किए हैं, क्योंकि इससे एक ओर तो कुछ जातियों द्वारा अधिक हिस्सा हड़प लेने वाली धारणा की सच्चाई सामने आ सकती है और दूसरी ओर पिछड़ी जातियों के सदस्यों की सही संख्या सार्वजानिक होगी। शायद सरकार को डर है कि मंडल द्वारा अनुमानित पिछड़ों की जनसंख्या के 52 प्रतिशत से अधिक होने पर सरकार पर आरक्षण को 27 प्रतिशत से अधिक करने के लिए आरक्षण को न्यायिक समीक्षा से बाहर रखने के लिए दवाब पड़ेगा और पिछड़े संख्या बल के आधार पर और अधिक संगठित होकर सत्ता पर काबिज होने का प्रयास करेंगे।
भाजपा आरक्षण में जातिवार विभाजन कर बीपी मंडल की उस सोच को ही आगे बढ़ा रही है जिसके अनुसार जाति ही पिछड़ेपन का मुख्य आधार है, जबकि उस समय भाजपा के बड़े नेता इसका विरोध कर रहे थे। मंडल कमीशन की संस्तुतियां लागू हुए 27 साल बीत चुके हैं और इन वर्षों में न केवल नई पीढ़ी आ चुकी है, बल्कि जाति व्यवस्था के विषय में समाज की सोच में भी बदलाव आया है और सामाजिक उन्नति के उपकरण भी बदले हैं। शायद इसी बदलाव को भांपते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख ने आरक्षण पर पुनर्विचार करने की मांग रखी थी। आज का युवा मानता है कि जाति के साथ-साथ आर्थिक स्थिति की भी सामाजिक उन्नति में बड़ी भूमिका है, जबकि मंडल आयोग ने पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए बनाए गए 22 सूत्रीय फॉर्मूले में आर्थिक स्थिति को सबसे कम महत्व दिया था। वर्तमान परिस्थितियों में यदि पिछड़ों में अवसरों की समानता के विभाजन या वर्गीकरण के लिए कोई तर्कसंगत आधार हो सकता है तो वह आर्थिक ही है, क्योंकि उसे सभी जातियों पर समान रूप से लागू किया जा सकता है और इसके लागू होने से पिछड़ी जातियों में वर्चस्व की कोई टकराहट भी नहीं होगी। पिछड़े मुस्लिमों को भी इस व्यवस्था का लाभ मिल सकेगा, जिनकी गरीबी के आंकड़े सच्चर आयोग की रिपोर्ट में उपलब्ध है। हाल में पटना की रैली में अखिलेश यादव ने यह कहकर इसी और इशारा किया था कि सरकार के पास आधार कार्ड और अन्य माध्यमों से व्यक्तिगत जानकारी उपलब्ध है, जिनका उपयोग वह आरक्षण को न्यायसंगत बनाने में कर सकती है।
आरक्षण में विभाजन से पिछड़े वर्ग में सम्मिलित जातियों में ही वर्चस्व का संघर्ष होगा और पिछड़ी जाति के नेताओं जैसे बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के समक्ष अपनी जातियों के समर्थन का दवाब होगा। भाजपा इस स्थिति का लाभ उठाकर दोनों नेताओं को यादव जाति तक सीमित कर बाकी पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद करने का प्रयास करेगी। हालांकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा गैर यादव पिछड़ी जातियों के वोट लेने में सफल रही, लेकिन इसके लिए उसे पिछड़ी जातियों के नेताओं के साथ या तो गठबंधन करना पड़ा या फिर उन्हें उनकी शर्तों पर भाजपा में शामिल करना पड़ा। नरेंद्र मोदी अब आरक्षण के माध्यम से इन जातियों को सीधे भाजपा से जोड़ना चाहते हैं। इससे भाजपा की कुर्मी, राजभर, मौर्या आदि जाति के नेताओं पर निर्भरता कम होगी। महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल, आंध्र प्रदेश औक तेलंगाना में कापू और उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में जाट केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग कर रहे हैं। नाकाम साबित होती नोटबंदी, जीडीपी में गिरावट, बाजार में मंदी, रोजगार के अवसरों में कमी के बीच पिछड़े वर्गों के आरक्षण में फेरबदल 2019 के चुनावों के लिए मास्टरस्ट्रोक साबित हो सकता है, लेकिन बहुत कुछ विपक्ष एवं पिछड़े वर्ग के नेताओं और जनता के रुख पर निर्भर करेगा। जो भी हो, यह ध्यान रहे कि आरक्षण आधारित जातिवादी राजनीति एक ऐसा जिन्न है जिसे बोतल के बाहर तो निकाला जा सकता है, लेकिन उसे वापस करने की कोई तरकीब नहीं है।
[ लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं राजनीतिक विश्लेषक हैैं ]