किसी भी देश की राजनीतिक तस्वीर तभी पूरी होती है जब उसमें सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के रंग समाहित होते हैं। इन दोनों के संतुलन से ही संपूर्ण राजनीतिक परिदृश्य बनता है, जिसकी पृष्ठभूमि में वर्तमान और भविष्य का लोकतांत्रिक विमर्श किया जा सकता है, लेकिन भारत में पिछले एक अर्से से इस परिदृश्य में विपक्ष की महती भूमिका नजर नहीं आ रही। मोदी सरकार बनने के बाद विपक्ष धीरे-धीरे कमजोर पड़ता दिखा है। कांग्रेस और क्षेत्रीय दल अपने शक्तिशाली अतीत के बरक्स कमजोर लगने लगे हैं, लेकिन पिछले कुछ हफ्तों के राजनीतिक घटनाक्रम पर गौर करें तो लगता है कि हालात बदल रहे हैं। हाल के दिनों में जो सियासी हलचल हो रही है उससे कुछ नए संकेत मिल रहे हैं।

ये संकेत एक ऐसे राजनीतिक भविष्य की ओर इशारा करते हैं जिसमें एक मजबूत विपक्ष देश के पटल पर उभर सकता है, जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर सकती है। यह कोई हवाई कल्पना नहीं है। हाल में कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने 17 गैर राजग दलों के शीर्ष नेताओं को भोज पर बुलाया। इसमें ममता बनर्जी, मायावती और लालू प्रसाद के साथ वाम नेता सीताराम येचुरी, सुधाकर रेड्डी और डी राजा ने भी हिस्सा लिया। जदयू नेता शरद यादव और केसी त्यागी भी इसमें शामिल थे। हालांकि नीतीश कुमार ने इसमें भाग नहीं लिया, फिर भी सोनिया की पहल से जिस तरह विपक्ष की एकजुटता का माहौल बना उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।

अभी यह कहना तो जल्दबाजी होगी कि अगर अगले आम चुनाव के लिए गैर राजग दलों का कोई महागठबंधन बनता है तो उसमें वे सभी सियासी दल शामिल होंगे जो इस भोज में मौजूद थे, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि इनमें ज्यादातर पार्टियां ऐसे गठजोड़ का हिस्सा बनना चाहेंगी जो मोदी के नेतृत्व में राजग को दोबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए ठोस चुनौती पेश कर सके। इस परिकल्पना के बहुत सारे कारण गिनाए जा सकते हैं। इनमें सबसे अहम है कि राजग जिस तरह विपक्ष को अप्रासंगिक बनाने की मुहिम में जुटा है वह न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि कई क्षेत्रीय दलों की सेहत के लिए अच्छा नहीं है।

पीएम मोदी कई बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात कर चुके हैं, लेकिन गहराई से देखें तो लगेगा कि भाजपा शायद विपक्ष मुक्त भारत के मिशन पर काम कर रही है। एक ऐसी स्थिति जिसमें विपक्षी दल राजनीतिक रंगमंच पर मौजूद तो रहें, लेकिन उनकी कोई अहम भूमिका न हो या फिर इतनी ही हो कि वह केवल अपनी लघुता के जरिये सरकार की महानता के दर्शन तक सीमित रहे। पिछले तीन साल में भाजपा ने जिस तरह अपना राजनीतिक दायरा बढ़ाया और इसके लिए जैसी रणनीति अपनाई वह इसी ओर इशारा करती है। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां भाजपा जोरशोर से अपनी जमीन पुख्ता करने में जुटी है। यहां हम गुजरात जैसे प्रांतों की बात नहीं कर रहे हैं, जो भाजपा का गढ़ रहा है।

हम तेलंगाना और ओडिशा जैसे राज्यों की चर्चा कर रहे हैं जहां भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने का सपना देख रही है। ऐसे राज्यों में भाजपा का सीधा मुकाबला उन क्षेत्रीय दलों से होगा जिनके राजग के साथ अच्छे रिश्ते रहे हैं या जो एक समय उसके घटक रहे। अब भाजपा उन्हें उनके ही राज्य की सत्ता से उखाड़ कर अपना परचम लहराना चाहती है। इन दिनों भाजपा प्रमुख अमित शाह ओडिशा और तेलंगाना में पूरी ताकत झोंक रहे हैं। यह उम्मीद तो कतई नहीं की जा सकती कि बीजद किसी भी सूरत में भाजपा के साथ जाएगी। इसके विपरीत यह आशा करना तर्कसंगत होगा कि बीजद संप्रग के साथ आए ताकि मोदी की चुनौती का मुकाबला अच्छे से कर सके। इसी तरह का समीकरण तेलंगाना में टीआरएस के साथ भी बन सकता है। राजनीति में तस्वीर बदलते देर नहीं लगती है।

उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अपने कायाकल्प के लिए इन क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल का कोई फॉमरूला निकालने में सफल होगी, क्योंकि यह न सिर्फ सत्ता में वापसी के लिए, बल्कि उसके राजनीतिक पुनरुद्धार के लिए भी बहुत आवश्यक है। इस उम्मीद की एक और वजह यह है कि भाजपा इस वक्त अपने चरम पर है। केंद्र की सत्ता से लेकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और मणिपुर तक वह सत्ता में है। ऐसे में भाजपा से लोगों की अपेक्षाओं का आकार और प्रकार बहुत विशाल हो गया है।

राजग चाहे जितने भी दावे कर ले, लेकिन महंगाई से लेकर रोजगार सृजन और कश्मीर तक उसके बड़े-बड़े दावे अभी हकीकत से कोसों दूर हैं। 2019 के चुनाव में सत्ता विरोधी असर को भी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। हालांकि बहुत से सर्वे अभी भी यह दावा कर रहे हैं कि मोदी सरकार की लोकप्रियता कम नहीं हुई है और अगर अभी चुनाव हो गए तो मोदी फिर वापसी करेंगे। अगर एक क्षण के लिए इन दावों को सच मान भी लिया जाए तो भी यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी चुनाव में दो साल का वक्त है और सियासत के ऊंट को करवट बदलने के लिए इतना समय बहुत है। राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। वक्त और हालात के मुताबिक दोस्ती और दुश्मनी तय होती है। अगर इन दो साल में कांग्रेस ने विपक्षी दलों का महागठबंधन तैयार करने में सफलता हासिल कर ली तो अगले चुनाव में मोदी की अगुआई में राजग के लिए राह आसान नहीं रहेगी।

(लेखक अंशुमान राव सामाजिक कार्यकर्ता और कांग्रेस के नेता हैं)