पिछले दिनों बसपा से निकाले गए नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी मीडिया के सामने आए और उन्होंने कई सीडी जारी कीं। इनमें बसपा प्रमुख और उत्तर प्रदेश की कई बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती को पैसे के लिए उन पर दबाव डालते सुना गया। नसीमुद्दीन बसपा सरकार में न केवल सबसे दमदार मंत्री रहे, बल्कि दशकों तक मायावती के ‘हर काम में’ दाहिने हाथ भी रहे। उन्होंने कहा कि मायावती टिकट के लिए पैसे लेती हैं, जो पार्टी के खाते में नहीं दिखाया जाता। इसके 30 मिनट बाद मायावती सामने आईं और वह यह बताने लगीं कि नसीमुद्दीन ‘लोगों की बातचीत की चुपचाप रिकॉर्डिग करता है और फिर ब्लैकमेल करता है।’ उनकी मानें तो यह आरोप पहले भी कार्यकर्ता लगाते थे, लेकिन तब उन्हें विश्वास नहीं होता था। 24 घंटे बाद नसीमुद्दीन इस आरोप के साथ फिर सामने आए कि ‘मायावती से बड़ा ब्लैकमेलर दुनिया में नहीं और यह धंधा मैंने उन्हीं से सीखा है।’ बसपा को कुछ माह पहले उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव में लगभग दो करोड़ लोगों ने वोट दिया था। 2012 के चुनाव में अगर बसपा मात्र 3.13 प्रतिशत (करीब 24 लाख) और वोट पा जाती तो 3.46 लाख करोड़ रुपये बजट वाले इस राज्य पर यही मायावती और यही नसीमुद्दीन पांच साल और शासन करते। प्रश्न उठता है कि कौन किसको ब्लैकमेल करता रहा? कहीं दोनों मिलकर जनता को तो ब्लैकमेल नहीं करते रहे? अगर दोनों के आरोप सच हैं तो खतरा। अगर दोनों के आरोप गलत हैं तो भी खतरा और एक सही है और दूसरा गलत तो सवाल खड़ा होता है कि ये दोनों पिछले 30 साल से सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे के साथ कैसे टिके थे?

सवाल मायावती या नसीमुद्दीन जैसे किसी एक-दो नेता का नहीं है। हाल में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उपज और देश की राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर उनके सबसे वफादार साथी कपिल मिश्र ने अपनी आंखों के सामने दो करोड़ रुपये की घूस लेने के आरोप लगाए। अरविंद केजरीवाल के लोगों ने इस आरोप के जवाब में एक प्रति-आरोप लगाया कि कपिल मिश्र भाजपा के एजेंट हैं। क्या अरविंद का इंटेलिजेंस इतना खराब है कि प्रतिद्वंद्वी पार्टी का एक कथित एजेंट उनके साथ वर्षो तक रहता है और उसे वह मंत्री तक बनाते हैं, लेकिन उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगती? क्या कपिल मिश्र मानसिक रूप से इतने पंगु हैं कि उन्हें अपने नेता के बारे में वर्षो तक पता नहीं चल पाता? इन दोनों मामलों में एक कॉमन फैक्टर यह है कि दोनों ने अपने नेता पर आरोप तब लगाए जब उन्हें नेता ने हाशिये पर ला दिया या दरवाजा दिखा दिया। उत्तर प्रदेश चुनाव में हार के बाद मायावती ने नसीमुद्दीन को मध्य प्रदेश का प्रभारी बनाया था। जहां अल्पसंख्यक राजनीति है ही नहीं और जहां पार्टी का अस्तित्व भी नाम मात्र का है। कपिल को अरविंद केजरीवाल में भ्रष्टाचार का दानव उन्हें मंत्री पद से हटाए जाने के अगले 24 घंटे बाद दिखाई दिया।

एक तीसरा मामला भी देखिए। उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले जब अखिलेश ने पिता से बगावत कर कांग्रेस से हाथ मिलाया तो मुलायम सिंह ने कहा, ‘कांग्रेस मेरा मुंह न खुलवाए वरना कई चेहरे बेनकाब हो जाएंगे।’ यह बात उन्हें तब क्यों याद नहीं आई जब वह संप्रग सरकार का साथ दे रहे थे या फिर जब सीबीआइ उनकी आय से अधिक संपत्ति की जांच कर रही थी और उसने देश की सर्वोच्च अदालत में छह बार अपना रुख बदला?

अगर भारतीय राजनीति में मौजूद इन जैसे नेताओं की समझ इतनी खराब है कि वे अपने नेता या अनुयायियों को दशकों तक नहीं पहचान पाते और उन्हें लूटने की शक्ति देते रहते हैं तो क्या इन्हें सार्वजनिक जीवन में रहना चाहिए? मायावती को किसने यह अधिकार दिया कि वह एक कथित ‘ब्लैकमेलर’ को मंत्री बनाएं? इसी तरह अगर नसीमुद्दीन यह जानते थे कि मायावती सत्ता में आने के बाद उगाही करती हैं तो वह इतने वक्त तक चुप क्यों रहे? इन सभी नेताओं ने पद पर आने के पहले संविधान में निष्ठा की शपथ ली थी। क्या इन सभी पर संवैधानिक शपथ को भंग करने का मुकदमा नहीं चलना चाहिए? क्या इन सब घटनाओं से जनता का विश्वास संवैधानिक व्यवस्था से नहीं टूटेगा? समस्या राजनीतिक वर्ग में व्याप्त अनैतिकता की नहीं है। न ही हम यह कह कर बच सकते हैं कि चूंकि राजनीति में यही वर्ग आ रहा है लिहाजा जनता के पास विकल्प नहीं है।

दरअसल जाति, संप्रदाय की राजनीति ने हमारी सामूहिक विवेचना शक्ति छीन ली है। हम अगर इन भावनाओं से बच भी गए तो यह नहीं तलाशते कि राज्य या देश का विकास किसने किया या नहीं किया? राजनीतिशास्त्र का एक सिद्धांत यह कहता है कि अल्पशिक्षित या अर्धशिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे तार्किक और सर्वसमाज के लिए जरूरी मुद्दों पर भारी पड़ जाते हैं। हमें इससे जल्द निकलना होगा, क्योंकि कौन सा वर्ग राजनीति में आकर हमारा भाग्य विधाता बने, यह तो हमें ही तय करना होता है।

(लेखक एनके सिंह, ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव हैं)