दिव्य कुमार सोती

दिल्ली विश्वविद्यालय यानी डीयू के निलंबित प्रोफेसर जीएन साईबाबा को माओवादी गतिविधियों में शामिल होने का दोषी मानते हुए गढ़चिरौली की सत्र अदालत ने बीते मंगलवार को उम्रकैद की सजा सुनाई। साईबाबा प्रोफेसर पद का फायदा उठाकर माओवादियों की हर तरीके से मदद करते थे। पिछले साल जेएनयू में भारत विरोधी नारों से देश भर में मचे हंगामे के बाद जब दिल्ली पुलिस ने उमर खालिद और कन्हैया जैसे छात्रों पर कार्रवाई की तो जेएनयू के तमाम प्रोफेसर इन छात्रों के पक्ष में खड़े हो गए थे। उसी दौरान जाधवपुर विश्वविद्यालय में भी ऐसे ही प्रदर्शन हुए जहां केरल की आजादी के नारे लगाए गए। उस समय केंद्र की मोदी सरकार को असहिष्णुता के नाम पर घेरा जा रहा था। शायद इसीलिए सरकार ने सिरफिरे छात्रों और तथाकथित बुद्धिजीवी प्राध्यापकों की अजीबोगरीब हरकतों को ज्यादा तूल देना मुनासिब नहीं समझा, जिससे वे कानूनी कार्रवाई से बच गए, मगर साल भर बाद वही नारे कुछ प्रोफेसरों की मेहरबानी से रामजस कॉलेज तक पहुंच गए। ध्यान दें कि जब साईबाबा नक्सली गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में निलंबित हुए थे तब भी डीयू के कई प्रोफेसरों ने उनके निलंबन का विरोध किया था। रामजस विवाद की हवा फरवरी की शुरुआत से ही बनानी शुरू कर दी गई थी जब जेएनयू की प्रोफेसर निवेदिता मेनन व्याख्यान देने के लिए जोधपुर विवि गईं। मेनन ने वहां कहा कि भारतीय फौज में आत्मसम्मान से हीन लोग ही रोजी-रोटी कमाने के लिए जाते हैं। उन्होंने सियाचिन ग्लेशियर को खाली करने और कश्मीर एवं पूर्वोत्तर को आजाद करने तक की बात कही। वह यह छिपा गईं कि सियाचिन में भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना द्वारा कब्जा जमाने की सटीक जानकारी के बाद ही भेजी गई थी। अगर भारत ने वह कदम न उठाया होता तो भारतीय सैनिकों की शहादत का आंकड़ा काफी ज्यादा बढ़ जाता, क्योंकि पाकिस्तान के लिए ऊंचाई से हमारे सैनिकों को निशाना बनाना खासा आसान होता। फौज के बाद उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं को कोसा और इच्छा जताई कि भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएं। खुद को नारीवादी भी बताने वालीं मेनन को भारत में मातृभूमि की पर्याय मानी जाने वाली भारत माता को सम्मान देने में घोर आपत्ति है। विश्वविद्यालयों के वातावरण को दूषित करने के मकसद को समझने के लिए उग्र वामपंथी प्रोफेसरों द्वारा छात्रों के जरिये अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का इतिहास जानना जरूरी है।
1966 आते-आते चीन में माओत्से तुंग को लगने लगा था कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार पर उनकी पकड़ ढीली पढ़ रही है तो उन्होंने चीनी विश्वविद्यालयों में समर्थक प्रोफेसरों से यह प्रचार शुरू कराया कि कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार पर पूंजीपतियों का दबदबा हो गया है और पार्टी वामपंथी सिद्धांतों से भटक गई है। इस शिगूफेबाजी से उत्साहित बीजिंग विश्वविद्यालय में उग्र वामपंथी प्रोफेसर नी युआनजी ने एक बुकलेट लिखी जिसमें उन्होंने माओ का समर्थन करते हुए छात्रों का आह्वान किया कि वे विश्वविद्यालयों से ‘पूंजीवादियों’ को बाहर निकालने का काम करें। उन्होंने यह आरोप लगाया कि पूंजीवादी तत्व छात्रों को परिसर में क्रांति और अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दे रहे हैं। भड़काऊ अकादमिक आख्यानों से प्रभावित चीनी विश्वविद्यालयों के छात्रों ने रेड गाड्र्स नामक दल बना लिए, जिनका मकसद सरकार और विश्वविद्यालयों को कथित बुर्जुआ तत्वों और चीन की परंपरागत संस्कृति से मुक्तकरना था। जल्द ही इन हुड़दंगी छात्रों की संख्या लाखों में पहुंच गई। चीनी विश्वविद्यालय और शहर युद्ध के मैदान बन गए। माओ ने इन छात्र गुटों से चीन की प्राचीन सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान मिटाने की अपील की। नतीजतन रेड गाड्र्स ने ऐतिहासिक मंदिरों, स्मारकों, पुस्तकालयों और कलाकृतियों को बर्बाद कर डाला।
माओ ने छात्रों का इस्तेमाल एकदलीय व्यवस्था में सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए किया था। बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले भारत में वामपंथियों की राजनीतिक उपस्थिति महज केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तक सीमित है, मगर पहले नेहरू और फिर इंदिरा गांधी के समय से ही सोवियत संघ की मदद के बदले जेएनयू जैसे अकादमिक केंद्रों में विचार-विमर्श का एकाधिकार वामपंथियों के सुपुर्द कर दिया गया। वामपंथियों ने ही तय किया कि भारतीय छात्र क्या पढ़ेंगे? पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जहां वामपंथियों के पास सत्ता थी वहां ‘शुद्धो आंदोलन’ चलाकर विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचारों को इतिहास की किताबों से मिटा दिया गया। राजनीतिक सत्ता हासिल करने में नाकाम रहे इन वामपंथियों को बस्तर में हथियारबंद नक्सलियों और यूरोप के अतिउदारवाद में उम्मीद दिखी तो अरूंधती राय ने नक्सलियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ बता डाला। विश्वविद्यालयों में फैले इस उग्र वामपंथ और अतिउदारवाद के अजीब कॉकटेल का असर गुरमेहर कौर जैसी छात्रा पर भी पड़ता दिखता है।
भारत और अमेरिका में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उभार से अकादमिक विमर्श पर वर्चस्व के आदी वामपंथियों का बैचेन होना स्वाभाविक है। खासतौर से तब जब सोशल मीडिया के इस युग में तथ्यों को छिपाना कठिन होता जा रहा है। इसलिए उग्र वामपंथी जेएनयू से आगे अन्य विश्वविद्यालयों में पैठ बढ़ाना चाहते हैं। राष्ट्रवादी छात्र संगठनों द्वारा देशविरोधी नारों का विरोध स्वाभाविक है, पर हिंसक झड़पें वामपंथियों को किसी गुरमेहर को आगे कर सहानुभूति हासिल करने और मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का मौका देती हैं। बेहतर यह होगा कि राष्ट्रवादी छात्र इन देशविरोधी नारों के पीछे की गहरी साजिश को समझें। वामपंथी कश्मीर की आजादी और अस्थिरता इसलिए चाहते हैं ताकि गुलाम कश्मीर के जरिये कम्युनिस्ट चीन द्वारा बनाए जा रहे आर्थिक गलियारे के माध्यम से कश्मीर को हड़पा जा सके। बस्तर की आजादी के नारे इसलिए लगाए जाते हैं, क्योंकि वह माओवादियों का गढ़ है और केरल की आजादी के नारे इसलिए, क्योंकि वहां वामपंथी सत्ता में हैं। इसलिए निवेदिता मेनन अपने दफ्तर में भारत का नक्शा उल्टा लगाती हैं ताकि उनके छात्रों को इसमें कुछ अटपटा न लगे। देश की एकता ऐसे लोगों की योजनाओं में एक रोड़ा है इसलिए नई पीढ़ी में भारत की एकता एवं अखंडता के प्रति जहर भरना ही इनका प्राथमिक लक्ष्य है। ऐसे में साईबाबा सरीखे कथित शिक्षकों और उनके साथियों एवं समर्थकों से सचेत रहने की जरूरत बढ़ गई है।
[ लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं ]