आरपी सिंह

वैश्विक सामरिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। एशिया के परिदृश्य में यह बदलाव और तेज दिख रहा है। पुराने दुश्मन अब दोस्त बन रहे हैं तो पुरानी दोस्ती अब खटास में बदलती दिख रही है। अमेरिका और पाकिस्तान के अलावा रूस और चीन के रिश्तों की बदलती तासीर इस मामले में मिसाल है। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में जॉन एफ केनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट के शोध का अनुमान है कि 21वीं सदी के मध्य तक चीन दुनिया की महाशक्ति बन जाएगा। आर्थिक और सैन्य मोर्चे पर बढ़ी ताकत के दम पर दक्षिण चीन सागर और डोकलाम मसले पर चीनी अकड़ वैश्विक बिरादरी को चीन के उभार को लेकर आगाह करती है। पिछले छह दशकों से भी अधिक समय से अपनी सुरक्षा को लेकर जापान एक तरह से अमेरिका की सरपरस्ती में ही रहा है।

जापान को व्यापक प्रतिरोधक क्षमता के तहत अमेरिका से परमाणु सुरक्षा तक की गारंटी मिली हुई है। वहीं उत्तर कोरिया द्वारा आए दिन किए जा रहे मिसाइल परीक्षणों और चीन के सैन्य आधुनिकीकरण से पूर्वी एशिया में सुरक्षा का तानाबाना बदल रहा है। चूंकि डोनाल्ड ट्रंप की अगुआई में अमेरिका की भ्रमित नीतियों के चलते जापान अमेरिका के भरोसे नहीं बैठ सकता इसलिए वह भारत जैसे सुरक्षा साथी की तलाश में है जो चीन के मोर्चे पर उसे कुछ ताकत दे सके। भौगोलिक रूप से भारत और जापान चीन के दो अलग-अलग किनारों पर स्थित हैं, लेकिन चीन की बढ़ती हेकड़ी से दोनों ही चिंतित भी हैं। भारत भी एक बड़ी ताकत है। ग्लोबल फायरवर्क इंडेक्स (वैश्विक सैन्य ताकत) में वह काफी ऊंचे स्थान पर है। ऐसे सामरिक परिदृश्य में अमेरिका, जापान और भारत एक दूसरे को सशक्त बनाकर दक्षिणी चीन सागर में बढ़ते चीनी प्रभाव का तोड़ निकाल सकते हैं।

शायद इसी पृष्ठभूमि में अमेरिका, जापान और भारत ने त्रिपक्षीय सुरक्षा संवाद तंत्र बनाया है। 1सहयोग को बढ़ावा देने के लिए भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन और जापानी विदेश मंत्री तारो कोनो ने 18 सितंबर को न्यूयॉर्क में दूसरी त्रिपक्षीय बैठक की। यह बैठक न्यूयॉर्क में चल रही संयुक्त राष्ट्र महासभा बैठक से इतर हुई। इससे पहले स्वराज, टिलरसन के पूर्ववर्ती जॉन केरी और तत्कालीन जापानी विदेश मंत्री फुमियो किशिदा 2015 में बैठक कर चुके हैं। तीन दशकों में चीन के साथ सीमा पर भारत की सबसे बड़ी तनातनी के बीच अमेरिका और जापान ने भारत जैसे सहयोगियों के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बहुस्तरीय समझौते का नवीकरण किया। 18 सितंबर को हुई बैठक में मंत्रियों ने मुक्त आवाजाही की जरूरत और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान पर सहमति जताई।

कनेक्टिविटी पर अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों और संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने पर सहमति बनी। यह सहमति एक तरह से चीन के वन बेल्ट, वन रोड यानी ओबोर के लिए संदेश है। जहां सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान का नाम लिए बिना कहा कि इस रहस्य से पर्दा उठना चाहिए कि उत्तर कोरिया के पास परमाणु तकनीक किसके माध्यम से पहुंची और इसकी पड़ताल कर उसकी जिम्मेदारी तय की जाए वहीं अमेरिका और जापान ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र को ध्यान में रखकर भारत के साथ व्यापक सामरिक संवाद पर जोर दिया, लेकिन अतीत के अनुभवों से सबक लेते हुए भारत ने इस व्यापक गठजोड़ से किनारा करना ही मुनासिब समझा ताकि चीन को उस पर यह तोहमत मढ़ने का मौका न मिल सके कि वह अमेरिका और जापान के साथ मिलकर उसके उभार पर ग्रहण लगाने को आमादा है।

चीन को लेकर अपनी चिंताओं को देखते हुए भारत ने अमेरिका और जापान के साथ त्रिपक्षीय वार्ता पर सहमति जताई तो ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ द्विपक्षीय साङोदारी को आगे बढ़ाया। 1भारत इस बात को लेकर आश्वस्त है कि किसी व्यापक गठजोड़ में शामिल हुए बिना वह अपनी सीमित भागीदारी से अपना कहीं ज्यादा भला कर सकता है। भले ही भारत ने गुटनिरपेक्षता को व्यावहारिक रूप से तिलांजलि दे दी हो, लेकिन वह किसी भी व्यापक गठजोड़ में शामिल होने से परहेज ही करता है। इस साल शुरुआत में भारत ने त्रिपक्षीय मालाबार नौसैन्य अभ्यास में भाग लेने के ऑस्ट्रेलिया के प्रस्ताव को भाव नहीं दिया था। भारत की हिचक के पीछे तमाम अन्य प्राथमिकताएं हैं। फिलहाल ट्रंप प्रशासन का पूरा ध्यान कोरियाई प्रायद्वीप में बढ़ते तनाव पर है जहां उत्तर कोरिया के मिसाइल परीक्षणों ने उसे परेशान किया हुआ है।

जापान के लिए उत्तर कोरियाई की आक्रामकता और चीन का दबदबा, दोनों ही चुनौतियां हैं। मोदी और ट्रंप के बीच पिछली बैठक में जिस प्रस्ताव पर सहमति बनी कमोबेश वही बात न्यूयॉर्क में टिलरसन और मैटिस ने जापान को सुझाई है। यही वह तंत्र है जिसमें भारत इस बात पर जोर दे सकता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा गारंटर के तौर पर अमेरिकी भूमिका कायम रखने की जरूरत है। जुलाई में मोदी के इजरायल दौरे के बाद से इजरायल के साथ भारत के रिश्ते पहले ही नए युग में पहुंच गए हैं। किसी व्यापक गठजोड़ के बजाय भारत-अमेरिकी और जापान त्रिपक्षीय साङोदारी भी कहीं बेहतर तरीके से भारतीय हितों की पूर्ति करती है।

[लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं]