नई दिल्ली [ दिव्य कुमार सोती ]। जम्मू के सुंजवां सैन्य कैंप पर पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा किए गए हमले में हमारे छह सैनिकों को जान गंवानी पड़ी और दो सैन्य अफसरों सहित करीब दस लोग घायल हुए जो सैनिकों के परिवारों से ही हैं। आतंकियों के निशाने पर कैंप के अंदर बने वे रिहायशी क्वार्टर थे जहां सैन्य कर्मियों के परिवार रहते हैं। अगर सुरक्षा बलों से और चूक हुई होती तो बड़ी संख्या में औरतें और बच्चे आतंकियों का निशाना बन सकते थे और हालात बेहद भयावह हो सकते थे। 2002 में जम्मू के कालूचक में सैन्य कैंप पर हमले के दौरान आतंकियों ने सैनिकों के परिवारों को निशाना बनाया था। उस हमले में 23 लोगों की मौत हुई थी जिनमें 10 बच्चे और 8 महिलाएं थीं।

बड़े लक्ष्य को हासिल करने में नाकामयाब रहा सर्जिकल स्ट्राइक

18 सितंबर 2016 को उड़ी के सैन्य कैंप पर इसी प्रकार के आतंकी हमले में 19 जवानों की जलने से मौत हो गई थी। इसके बाद पाकिस्तान को सबक सिखाने के उद्देश्य से मोदी सरकार ने सेना को नियंत्रण रेखा पार कर आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का आदेश दिया, जिसे सेना ने बखूबी अंजाम भी दिया। तब से अब तक के घटनाक्रम पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह कार्रवाई किसी बड़े सामरिक लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब नहीं रही। नियंत्रण रेखा और साथ ही अंतराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान द्वारा संघर्ष विराम का उल्लंघन जारी है। पाकिस्तान अब स्कूलों तक को निशाना बना रहा है।

जवाबी कार्रवाई असर क्यों नहीं, समझना जरुरी

सुंजवां कैंप पर हमले से ठीक पहले सीमा पर पाकिस्तान ने अचानक एंटी टैंक मिसाइल का इस्तेमाल किया जिसके कारण कैप्टन कपिल कुंडु सहित तीन सैनिकों ने वीरगति प्राप्त की। सुंजवां में आतंकियों के विरुद्ध ऑपरेशन खत्म भी नहीं हुआ था कि श्रीनगर में सीआरपीएफ कैंप पर हमले की कोशिश हुई, जिसमें एक जवान शहीद हुआ। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान की फायरिंग का हमारी सेना मुंहतोड़ जवाब नहीं देती, फिर भी पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक और सीमा पर जवाबी कार्रवाई का कोई खास असर न होने के सामरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं। इन कारणों को समझे बगैर पाकिस्तान का सही तरीके से इलाज नहीं किया जा सकता। पाकिस्तानी जनता की नजर में उसकी फौज देश की बेहद सक्षम रक्षक है।

पाकिस्तानी जनता पढ़ रही मनगढ़ंत इतिहास

पाकिस्तानी फौज हर युद्ध हारने के बावजूद अपनी यह छवि गढ़ने में कैसे कामयाब रही, यह समझना भी जरूरी है। दरअसल पाकिस्तानी फौज ने भारत से युद्ध हारने पर या तो खुद को जीता हुआ बताया या फिर यह कहा कि वह तो जीतने ही वाली थी, लेकिन किसी पाकिस्तानी नेता या किसी जनरल की गलती अथवा अंतरराष्ट्रीय साजिश के कारण हार गई। अपनी जनता को यह घुट्टी पिलाने के लिए पाकिस्तान को अपनी नई पीढ़ी को मनगढ़ंत इतिहास पढ़ाने से भी गुरेज नहीं। पाकिस्तानी फौज के ऐसे शिगूफों पर वहां की जनता ने आसानी से इसलिए भरोसा किया, क्योंकि 1857 के बाद अंग्रेजों ने सैन्य भर्ती में लड़ाकू कौमों की थ्योरी को लागू किया। इसके तहत यह कहा गया कि सतलुज से परे रहने वाली कुछ जातियां और कबीले जन्म से ही लड़ाके होते हैं। अंग्रेजों ने इन इलाकों से जो आज पाकिस्तान में पड़ते हैं, खूब सैन्य भर्ती की। इसके फलस्वरूप इन इलाकों में सैनिकों की सामाजिक साख बहुत ज्यादा बढ़ गई।

पाक सेना इस तरह बनाए रखती है अपनी तीसमारखां वाली छवि

पाकिस्तान में आम धारणा है कि 1965 और 1971 का युद्ध उनकी फौज जीत जाती, अगर पूर्वी पाकिस्तान में कुछ जनरल घबराकर आत्मसमर्पण न करते। पाकिस्तानी जनरल कारगिल संघर्ष में शर्मनाक हार का ठीकरा भी नवाज शरीफ की बुजदिली और अमेरिका के दबाव पर फोड़ते रहे हैं। हाल की सर्जिकल स्ट्राइक पर पाकिस्तानी सेना ने अपनी जनता को यही बताया कि भारतीय सेना ने ऐसा कुछ किया ही नहीं। अगर कभी भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई में पांच-छह पाकिस्तानी सैनिक मरते हैं तो वहां की मीडिया को एक-दो सैनिकों के ही मरने की खबर दी जाती है। इस तरह वहां की फौज अपनी तीसमारखां वाली छवि बनाए रखती है।

पाकिस्तानी सेना को बस एक बार तब शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी जब अमेरिकी कमांडों ने एबटाबाद में सैन्य छावनी में घुस कर ओसामा बिन लादेन को मार डाला था। तब वहां यह सवाल जोर-शोर से उठा था कि अगर अमेरिकी सेना पाकिस्तानी छावनी में कमांडो कार्रवाई करके आराम से लौट जा सकती है तो फौज पाकिस्तान की हिफाजत क्या करेगी? तीसमारखां वाली छवि को लगे इस गहरे धक्के का नतीजा यह हुआ कि तब से पाक फौज ने कोई तख्तापलट नहीं किया और पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार एक लोकतांत्रिक सरकार दूसरी लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता सौंप पाई।

वायुसेना का इस्तेमाल होगा बेहतर विकल्प

अगर पाकिस्तानी फौज सर्जिकल स्ट्राइक की बात मान लेती तो उसकी छवि को एबटाबाद में अमेरिकी कार्रवाई से ज्यादा बड़ा झटका लगता, क्योंकि पाकिस्तान में भारत को अमेरिका से भी बड़ा दुश्मन माना जाता है। ऐसे में भविष्य में भी पाकिस्तानी फौज भारत द्वारा की ऐसी कार्रवाई को आसानी से नकारती रहेगी और भारत में आतंकी हमलों को अंजाम भी देती रहेगी ताकि भारत को झुकाकर बातचीत के लिए मजबूर किया जा सके। यह भी तय है कि बातचीत शुरू होने पर आतंकी हमले तेज होंगे ताकि भारत से अपनी मांगे मनवाई जा सकें। ऐसे मे सीमा पार होने वाली कार्रवाई ऐसी हो कि पाकिस्तानी फौज उसे चाहकर भी नकार न पाए। इसके लिए वायुसेना का इस्तेमाल बेहतर विकल्प है।

भारतीय लड़ाकू जहाज बिना नियंत्रण रेखा पार किए पीओके के शहरी इलाकों के नजदीक स्थित आतंकी ठिकानों और आतंकी नेताओं को निशाना बना सकते हैं। चूंकि पाकिस्तान कश्मीर को विवादित क्षेत्र बताता है इसलिए पीओके में संयुक्त राष्ट्र की सूची में शामिल आतंकी संगठनों को निशाना बनाना न्यायसंगत कदम होगा और विश्व समुदाय तनाव बढ़ने से रोकने के लिए तुंरत बीच-बचाव भी करेगा जैसा कारगिल, आपरेशन पराक्रम और 26/11 के दौरान हुआ था।

नाकामी छुपाने के लिए करता है आतंकी हमले

पीओके में इस प्रकार की कार्रवाई वहां अरबों डालर की लागत से आर्थिक कॉरीडोर बना रहे चीन को भी चिंता में डालेगी और वह पाकिस्तान पर दबाव बनाने को मजबूर होगा। चूंकि वायु सेना के स्तर पर पाकिस्तान हमसे बेहद कमजोर है और उसकी जवाबी कार्रवाई का हम प्रतिकार कर सकते हैं इसलिए पाकिस्तानी वायुसेना की फजीहत होनी तय है। फिलहाल पाक फौज को नियंत्रण रेखा पर चल रही गोलीबारी रास आ रही है, क्योंकि जैसे हथियार हमारे पास हैं वैसे ही उसके पास भी हैं। इसके अलावा वह अपने नुकसान को आसानी से छुपा लेता है और जवाब में आतंकी हमलों को बढ़ावा देता है। स्पष्ट है कि हमें पाकिस्तान को बराबरी के इस मुकाबले से खींचकर गैर बराबरी के उस स्तर की ओर ले जाना होगा जहां वह हमारा मुकाबला न कर सके।

(लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)