राजनाथ सिंह ‘सूर्य’

रिजर्व बैंक ने एक बार फिर से उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों के 36,000 करोड़ रुपये के कर्ज को माफ किए जाने के निर्णय की आलोचना की है। विधानसभा चुनाव के समय भाजपा ने इस कर्जमाफी का वादा किया था। उधर महाराष्ट्र सरकार ने भी तीस हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी का एलान कर दिया है। जिस प्रकार किसान आंदोलन महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश तक पैर पसार रहा है, वह अन्य राज्यों में भी इस प्रकार के आंदोलन को हवा दे रहा है। यह सच है कि चुनाव के समय वोट बैंक का महत्व समझकर पार्टियों द्वारा अनेक ऐसी घोषणाएं की जाती हैं जिसका बोझ उठाने में सरकार समर्थ नहीं होती। दुर्भाग्य की बात है कि घाटे के बजट का बढ़ता चलन और योजनाओं के लिए स्वीकृत धनराशि को जुटा पाने में असमर्थता का निवारण करने के लिए सबसे सरल उपाय के रूप में कर्ज लेना हो गया है, जिसे अनुदान या सहायता का नाम दिया गया है। देश में बैंकों, जीवन बीमा निगम से कर्ज लेकर और विदेशों से ‘सहायता’ प्राप्त कर योजनाओं को पूरा करने के प्रयास में कोढ़ में खाज का काम कर रहा है ‘कमीशन’। इसलिए या तो योजनाओं की लागत में दस से सौ प्रतिशत तक हो इजाफा जाता है या बहुत सी योजनाएं निरुपयोगी घोषित होकर बंद हो जाती हैं। विडंबना है कि विदेशों से मिली ‘सहायता’ का भुगतान तो हम कर नहीं पाते, ऊपर से उसका ब्याज चुकाने के लिए और कर्ज लेते जाते हैं। चाहे केंद्र की सरकार हो या राज्यों की, सभी कर्ज और सहायता की सदैव मोहताज रहती हैं। दो दशक पहले एक अर्थशास्त्री ने कहा था कि भारत में पैदा होने वाला बच्चा सत्तर हजार से सवा लाख रुपये तक के कर्ज का बोझ लेकर संसार में आता है। निश्चित रूप से आज इसमें और बढ़ोतरी हो गई होगी?
हमने शासन व्यवस्था के लिए संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली को अंगीकार किया है जो लोक कल्याण की मूलभूत अवधारणा पर आधारित है। लोक कल्याण को वोट बैंक के प्रभाव में हम निरंतर मुफ्त बनाते गए। नतीजा कई प्रकार से घातक हो रहा है। ‘मुफ्त’ के रूप में बिजली और पानी की सुविधा दी जा रही है। लैपटॉप और टीवी आदि का वितरण किया जा रहा है। छात्रवृत्ति के नाम पर धन उगाहने के लिए फर्जी शिक्षण संस्थाओं और छात्रों की संख्या में इजाफा हो रहा है। सरकारी बजट का एक बड़ा हिस्सा इनकी भेंट चढ़ जा रहा है। रोजगार का तात्पर्य सिर्फ सरकारी नौकरी मान लेने के कारण स्वरोजगार का क्षेत्र सूखता जा रहा है। जो कुशल कारीगर या शिल्पकार हैं वे बड़े उद्योग घरानों के नौकर होकर रह गए हैं। फलस्वरूप कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या करने वालों में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर पहुंच गया है। क्या कभी हमारे राजनेताओं, आर्थिक चिंतकों और सामाजिक संगठनों ने इस बात पर विचार किया है कि मुफ्त की योजनाओं, कर्ज माफी और ‘सहायता’ का हमारी अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? लोगों में भौतिक भूख बढ़ती जा रही है। यह स्थिति देश में नोच-खसोट की बुरी प्रवृत्ति को जन्म दे रही है। इसका सबसे विकृत उदाहरण है आंदोलनों के समय निजी और सरकारी संपत्तियों, वाहनों आदि को नष्ट किया जाना। यह नुकसान करोड़ों तो कई बार अरबों या खरबों रुपये में होता है। आखिर ‘सरकारी संपत्ति’ किसकी संपत्ति होती है? क्या वह प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, नौकरशाहों या व्यवस्था से जुड़़े अन्य लोगों की है? वह संपत्ति किसके द्वारा किसके साधनों से किसके लिए खड़ी की जाती है? यह ठीक है कि कुछ विशेष कारणों से आम आदमी उससे वंचित रह जाता है, लेकिन फिर भी वह संपत्ति उसी के साधन से उसी की सुविधा के लिए होती है। तो क्या कभी हमने विचार किया है कि जिस संपत्ति को हम सरकारी कहकर उत्तेजनाओं से वशीभूत होकर नष्ट करते हैं वह किसकी है और नष्ट संपत्ति यानी बस और रेलगाड़ी आदि को फिर से बनाने के लिए किससे धन लिया जाता है? इसी प्रकार मुफ्त की योजनाओं और कर्ज माफी पर जो सरकारी धन व्यय होता है उसका बोझ किसे उठाना पड़ता है? मुफ्त की योजनाओं और कर्ज माफी के लिए रकम राजकोष से ही आती है। इसकी पूर्ति के लिए सड़क, सिंचाई, पढ़ाई या अन्य इस प्रकार की योजनाओं में या तो कटौती करनी पड़ती है या फिर उसके लिए कर्जदार होकर भावी पीढ़ी पर हम बोझ डालते जाते हैं। यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने इस प्रकार की कर्ज माफी की योजनाओं को अनुचित बताने का साहस किया है। क्या ऐसा साहस हमारे जनप्रतिनिधि दिखा सकते हैं?
उत्तर प्रदेश में वर्ष 1967 में चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार थी तब किसानों से लेवी न लेने और लगान माफी के मसौदा पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए सभी दल वचनबद्ध थे। सरकार बनाने में जिस जनसंघ की सबसे ज्यादा भागीदारी थी, वह भी अपने घोषणापत्र में ऐसा ही वादा कर चुका था। दीनदयाल उपाध्याय से लखनऊ में आयोजित एक प्रेस वार्ता में पत्रकारों ने पूछा कि जनसंघ के घोषणापत्र में तो लेवी और लगान माफी का वादा किया गया है? तब दीनदयाल जी का उत्तर था। घोषणापत्र हमारी आकांक्षाओं का प्रतीक है। जब हम सरकार में आते हैं तो उस आकांक्षा की धरातलीय तथ्य के आधार पर समीक्षा करते हैं। उनमें जो अव्यावहारिक हैं उन्हें छोड़ देना चाहिए तथा अन्य आकांक्षाओं की प्राथमिकता संसाधनों के आधार पर निर्धारित करनी चाहिए। घोषणापत्र आकांक्षाओं का प्रतीक है, लेकिन अव्यावहारिक होकर उसे लागू करना अराजकता को जन्म देता है।
दरअसल वोट बैंक की राजनीति ने ‘मुफ्त की योजनाओं और कर्ज माफी’ को मुख्य चुनावी मुद्दा बना दिया है। इसमें जो होड़ चल रही है उससे मर्यादा तार-तार तो हो ही रही है, बिना परिश्रम के अधिक से अधिक संपन्न होने का लोभ भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है और समाज अराजकता की ओर बढ़ता जा रहा है। इस ‘मुफ्त की योजनाओं और कर्जमाफी’ का प्रभाव सबसे ज्यादा आम आदमी पर पड़ता है। उसे समय रहते यह बात समझ में आ जाए इसके लिए राजनेताओं, बुद्धिजीवियों और सामाजिक संगठनों को तत्काल पहल आरंभ कर देनी चाहिए। भारत से ‘मुफ्त और माफी’ की यह संस्कृति खत्म होनी चाहिए। एक शक्तिशाली भारत का निर्माण तभी हो सकेगा जब वह इस महामारी से मुक्त होगा।
[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]