बीते दिनों दावोस में विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक से पहले अधिकार समूह ऑक्सफैम की ओर जारी एक अध्ययन के अनुसार दुनिया की एक फीसदी सबसे अमीर आबादी की संपत्ति का आंकड़ा बाकी 99 फीसदी आबादी की कुल संपत्ति से भी ज्यादा है। गिनती के आठ अति अमीरों के पास दुनिया की आधी आबादी के बराबर संपत्ति है। ऑक्सफैम के मुताबिक वर्तमान में दुनिया की कुल संपत्ति 2.56 लाख अरब डॉलर है। इसमें से करीब 6,500 अरब डॉलर की संपत्ति अरबपतियों के पास है। विश्व आर्थिक मंच के सालाना जलसे से पहले इस अध्ययन को सार्वजनिक करने का एक उद्देश्य उद्योग-व्यापार जगत के शीर्ष लोगों का ध्यान दुनिया भर में बढ़ती गैर-बराबरी की ओर आकृष्ट करना था। पता नहीं वे गैर बराबरी की इस स्थिति से कितना चिंतित हुए, लेकिन कम से हमारे नीति-नियंताओं को चिंतित होना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि असमानता की इस वैश्विक प्रवृत्ति से भारत भी अछूता नहीं है। ऑक्सफैम के अनुसार भारत की कुल 58 फीसदी संपत्ति पर देश के महज एक फीसदी अमीरों का कब्जा है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हर साल चिंता प्रकट किए जाने के बावजूद आर्थिक विषमता की यह खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। देखा जाए तो इसकी असली वजह यह है कि विकास का ढांचा गरीबों के नहीं अमीरों के अनुकूल है। ऑक्सफैम की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक चीन, भारत, इंडोनेशिया, लाओस, बांग्लादेश और श्रीलंका में दस फीसदी अमीरों की आय में 15 फीसदी का इजाफा हुआ तो सबसे गरीब 10 फीसदी आबादी की आमदनी में 15 फीसदी से अधिक की गिरावट आई।
ऑक्सफैम ने उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि यह मॉडल संपत्ति के न्यायपूर्ण बंटवारे में नाकाम साबित हुआ है, क्योंकिपूंजी आधारित इस व्यवस्था का फायदा पहले से मजबूत लोगों को ही अधिक हो रहा है। एक विडंबना यह भी है कि दुनिया भर की सरकारें और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा गरीबी और असमानता को दूर करने के प्रयासों के बावजूद यह मॉडल गरीबोन्मुख नहीं बन पा रहा है। हालांकि इन नीतियों के कारण विश्व अर्थव्यवस्था में तेजी आई है और बड़े पैमाने पर समृद्धि भी बढ़ी है, लेकिन इस समृद्धि के कुछ ही हाथों में सिमट जाने से गैर-बराबरी बढ़ती जा रही है। नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने अपनी पुस्तक प्राइस ऑफ इनइक्वलिटी में बताया है कि आय की असमानता जिस रफ्तार से बढ़ती है उससे कहीं ज्यादा रफ्तार से संपत्ति की असमानता बढ़ती है। पिछले दिनों उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने एक सम्मेलन में कहा था कि सामाजिक न्याय का कानून बन जाने के बावजूद असमानता बढ़ती जा रही है। उन्होंने वित्तीय एजेंसी क्रेडिट सुइस का हवाला देते हुए कहा था कि भारत की कुल संपत्ति में से लगभग आधी सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के हाथ में है, जबकि शीर्ष 10 फीसदी के हाथों में इसका करीब 74 फीसदी है। आठ साल पहले अर्जुन सेनगुप्त समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस असमानता को उजागर किया था। रिपोर्ट के मुताबिक तेज आर्थिक प्रगति के बावजूद देश की 77 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये से कम पर गुजारा करने पर मजबूर है।
यह विचित्र है कि देश की राजनीति में जातिगत असमानता पर सियासत करने वाले आर्थिक असमानता पर कभी-कभार ही मुंह खोलते हैं। एक ऐसे समय जब हम अपना गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं और इस उत्सव के चंद दिनों बाद मोदी सरकार का निर्णायक माना जाने वाला बजट आने वाला है तब देश में बढ़ती असमानता को कम करने के उपायों पर गहन विचार किया जाना आवश्यक है। इसलिए और भी, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का कहना है कि उदारीकरण के दौर में एशियाई देश विकास और समानता के लक्ष्य को नहीं हासिल कर पाए हैं। ऊंची विकास दर गरीबी से लड़ने में उतनी कारगर नहीं हुई जितनी कि होनी चाहिए थी। इसी का नतीजा है कि जहां दुनिया भर में असमानता कम हो रही है वहीं एशियाई देश विशेषकर भारत और चीन में यह बढ़ रही है। उदारीकरण के दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य, वित्तीय संस्थानों में निजी प्रभुत्व बढ़ा है जिससे उन तक गरीबी को पहुंच कम हुई है। भारतीय में बढ़ती असमानता का कारण यह है कि यहां गरीबी उन्मूलन को तेज आर्थिक विकास दर और शहरीकरण का पर्याय मान लिया गया है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि ग्रामीण और अद्र्ध शहरी इलाकों के साथ-साथ शहरों में भी असमानता तेजी से बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र ने अपनी हालिया रिपोर्ट में बताया है कि पिछले 20 वर्षों में भारत की शहरी आबादी 21.7 करोड़ से बढ़कर 37.1 करोड़ हो गई है। इसके 2031 तक 60 करोड़ तक पहुंच जाने की उम्मीद है। बेहतर सुख-सुविधाओं के लिए हो रहे शहरीकरण में गैर-बराबरी तेजी से पैर पसार रही है। इसका कारण यह है कि मांग आधारित अर्थव्यवस्था के चलते जिस रफ्तार से शहरों की आबादी बढ़ रही उस रफ्तार से शहरी आधारभूत ढांचा नहीं बढ़ रहा है। इसी को देखते हुए विशेषज्ञों का एक समूह अब ग्रामीण विकास में निवेश बढ़ाने की वकालत कर रहा है। उनके मुताबिक जैसे-जैसे देश कम आय वर्ग से मध्यम आय वर्ग में बदल रहा है वैसे-वैसे खेती का स्वरूप जीविकोपार्जी से बाजार केंद्रित होता जा रहा है। ऐसे में खेती के आधुनिक बनने से उर्वरक, रसायन, कृषि मशीनरी, बीज, ईंधन जैसे गैर कृषि गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा। स्पष्ट है कि खेती-किसानी में बढ़ा हुआ निवेश गैर कृषि गतिविधियो को बढ़ावा देने का काम करेगा। इससे गांवों के साथ-साथ शहरों की गरीबी में कमी आएगी, लेकिन यह तभी संभव है जब खेती को जीविकोपार्जी से वाणिज्यिक बनाने के लिए सार्वजनिक निवेश में भारी-भरकम बढ़ोतरी की जाए। इसके साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा ढांचे को मजबूत किया जाना जरूरी है।
दुर्भाग्यवश भारत में ग्रामीण आधारभूत ढांचा लंबे अर्से से उपेक्षित रहा है और यहां सामाजिक सुरक्षा पर खर्च भी बहुत कम होता है। भारत सकल घरेलू उत्पाद का केवल तीन फीसदी शिक्षा पर और 1.1 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। वहीं दक्षिण अफ्रीका 6.1 फीसदी शिक्षा पर और 3.7 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। नतीजतन कभी भारत से भी अधिक असमानता के लिए कुख्यात दक्षिण अफ्रीका में गैर-बराबरी तेजी से कम हुई है। स्पष्ट है कि भारत को भी शहरीकरण के साथ-साथ ग्रामीण विकास और खेती को लाभकारी बनाने पर ध्यान देना होगा। ऐसा तभी होगा जब तंत्र गण के उत्थान पर अतिरिक्त ध्यान देगा।
[ लेखक रमेश दुबे, सचिवालय सेवा के अधिकारी एवं आर्थिक मामलों के विश्लेषक हैं ]