शकील हसन शम्सी

बीते मंगलवार कश्मीर में एक के बाद एक छह आतंकी हमले हुए। असल में मंगलवार को रमजान की 17 तारीख थी और इसी दिन पैगंबर हजरत मोहम्मद पर मक्का के सैन्य दलों ने हमला किया था। इस्लामी इतिहास में इस दिन का महत्व इसलिए है कि उस समय पैगंबर हजरत मोहम्मद के साथ केवल 313 लोग थे और मक्का से आए आक्रमणकारी हजारों की संख्या में थे। कायदे से यह आतंकवाद विरोधी दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए, क्योंकि पैगंबर साहब ने कम संख्या होने के बावजूद अपने दुश्मनों को छिपकर निशाना नहीं बनाया, बल्कि बद्र के खुले मैदान में जंग लड़ी और विजयी हुए। छद्म युद्ध करने वाले आतंकियों और उनके पाकिस्तानी आकाओं को अगर पैगंबर साहब का अनुसरण करना ही था तो फिर छिप कर भारतीय सेना पर आक्रमण करने के बजाय खुले मैदान में मोर्चा लेते। कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों पर हमले के ठीक पहले दुनिया के सबसे निर्दयी हत्यारों के संगठन आइएस ने जंग-ए-बद्र की जयंती के अवसर पर अपने समर्थकों का आह्वान किया कि वे हमलों में तेजी लाएं। रमजान में भी आइएस की इस छटपटाहट की एक वजह यह है कि वह कतर और सऊदी अरब के बीच उत्पन्न विवाद से बौखलाया हुआ है। अभी तक आइएस जिस शिया-सुन्नी विवाद के नाम पर अपनी गतिविधियां चला रहा था उस विवाद को खाड़ी के दो सुन्नी देशों के टकराव ने बहुत उलझा दिया है। अब आइएस परेशान है कि वह कतर को सुन्नी देश माने या सऊदी अरब को? अमेरिका भी इस विवाद से बहुत परेशान है, क्योंकि अभी तक वह ईरान और सीरिया में शिया-सुन्नी के नाम पर ही अपना खेल खेलता आया है, लेकिन कतर और ईरान के बीच अचानक दोस्ती हो जाने से आइएस के आतंकवाद को शिया-सुन्नी का रंग देना मुश्किल हो गया है।
आइएस का सुन्नी वर्ग से कुछ लेना-देना नहीं है। इसे अमेरिका और उसके अरब सहयोगियों ने ही खड़ा किया था ताकि सीरिया और इराक में अशांति पैदा की जा सके, लेकिन जब आइएस के पास हथियार आए तो उसने अमेरिकी हितों को ताक पर रखकर शिया वर्ग के साथ-साथ अमेरिकी समर्थक कुर्द, यजीदी और ईसाई नागरिकों को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया। इस पर अमेरिका को अपने ही पाले हुए सांपों का फन कुचलने पर मजबूर होना पड़ा। असल में अमेरिका चाहता था कि इराक और सीरिया में आइएस (जिसे अरबी भाषा में दाइश कहा जाता है) केवल शिया-सुन्नी विवाद को ही बढ़ाए, मगर दाइश की नजर में शिया के साथ अन्य मुस्लिम तबके भी काफिर हैं। इसीलिए उसने सभी पर निशाना साधना शुरू कर दिया। दाइश के आतंकी मुस्लिम जगत में तकफीरी कहलाते हैं। यानी एक ऐसा वर्ग जो अपने अलावा दूसरे तमाम मुसलमानों को काफिर समझता है। दाइश ने बेहद चालाकी से खुद को सुन्नियों के रूप में पेश करते हुए अपनी खिलाफत कायम करने का एलान किया।
सुन्नी वर्ग में बरेलवी, सूफी, देवबंदी, सलाफी और अहल-ए-हदीस जैसे समुदाय शामिल हैं। वहीं शिया वर्ग भी उसूली, अखबारी, बोहरा, जैदिया, अलवी और इस्माइली समुदायों में बंटा हुआ है। दाइश के सदस्य इनमें से किसी समुदाय से ताल्लुक नहीं रखते। यहां शिया-सुन्नी विवाद के बारे में भी यह जानना आवश्यक है कि ऐतिहासिक सच यही है कि पैगंबर हजरत मोहम्मद के निधन के बाद जब उनके उत्तराधिकार का मामला आया तो उनके मित्रों ने हजरत मोहम्मद के एक वरिष्ठ सहयोगी हजरत अबू बकर को मुसलमानों का खलीफा चुन लिया, मगर एक गुट मानता था कि पैगंबर साहब के उत्तराधिकारी बनने के असली हकदार उनके दामाद हजरत अली हैं। इसी बात को लेकर मुसलमानों में विवाद हुआ और इसी वजह से दो वर्ग भी बन गए, लेकिन इसने कभी झगड़े या युद्ध का रूप नहीं लिया, जैसा कि कुछ लोग प्रचारित करते हैं। सुन्नी हजरत अबू बकर और उनके बाद के खलीफाओं को और शिया लोग हजरत अली को अपना इमाम मानते रहे, लेकिन जब तीसरे खलीफा हजरत उस्मान को उपद्रवी भीड़ ने शहीद कर दिया तो फिर सभी मुसलमानों ने हजरत अली को अपना खलीफा चुन लिया और सभी विवाद खत्म हो गए। बाद में हजरत अली को सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया ने खलीफा मानने से इन्कार कर दिया और उनके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। इसके बाद इस्लामी गणराज्य दो भागों में बंट गया। इसी बीच हजरत अली को कूफा की मस्जिद में नमाज पढ़ते समय शहीद कर दिया गया और मुआविया ने हजरत अली के बेटे हजरत हसन के साथ संधि कर सत्ता कब्जा ली। यही समय था जब खिलाफत और राशिदा कहे जाने वाले इस्लामी शासन का अंत हो गया और मुसलमानों में शाही दौर शुरू हुआ।
अमीर मुआविया ने अपने अंतिम समय में अपने बेटे यजीद को उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया। यजीद ने पिता का स्थान ग्रहण करने के बाद अरब की परंपरा के अनुसार सम्मानित व्यक्तियों से अपने लिए मान्यता मांगी, मगर हजरत अली के छोटे पुत्र हजरत हुसैन और उनके परिजनों ने यजीद को मान्यता देने से इन्कार कर दिया, क्योंकि यजीद एक दुराचारी और अत्याचारी शासक था। इसी के बाद इराक के कर्बला नामक स्थान पर यजीदी सेना और इमाम हुसैन के 72 साथियों के बीच युद्ध हुआ जिसमें हजरत हुसैन शहीद हुए। ध्यान रहे कि शिया और सुन्नी वर्गों के समस्त गुट इमाम हुसैन के हक पर यजीद को गलत मानते है, मगर दाइश और उसके जैसे अन्य गुट हजरत हुसैन को गलत और यजीद को सही समझते हैं। यह भी एक सच है कि जितने भी आतंकी संगठन हैं वे यजीद को ही अपना आदर्श मानते हैं। अभी पश्चिम एशिया में जो हो रहा है उसका शिया-सुन्नी विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है, क्योंकि आतंकियों ने लगभग हर वर्ग के मुसलमानों को अपना निशाना बनाया है। वहां लड़ाई अमेरिकी हितों की है। पश्चिम एशिया में ईरान, इराक और बहरीन शिया बहुल देश हैं जहां अमेरिका का विरोध बहुत ज्यादा है। अमेरिका चाहता है कि इन देशों में उसके विरोधी चैन से रहने न पाएं। यमन, दक्षिण लेबनान और सीरिया में भी अमेरिकी विरोधी उसके लिए मुसीबत बने हुऐ हैं। वह चाहता है कि वहां उसके मित्र देश ही फलें-फूलें। इसके लिए वह आतंक को बढ़ावा देने से भी गुरेज नहीं करता।
[ लेखक उर्दू दैनिक इंकिलाब, उत्तर भारत के संपादक हैं ]