आज ऐसे एक ठोस कचरा प्रबंधन तंत्र की जरूरत है जो सस्ता हो, पर्यावरण को सुरक्षित रखे। साथ ही साथ कूड़ा उठाने वाले और कबाड़ी का काम करने वाले जैसे अनौपचारिक क्षेत्र का भी इसमें समावेश हो। इस विचार का आधार कचरे को कम करना और उसके दोबारा इस्तेमाल को बढ़ावा देना है। वास्तव में कचरे का उपयोग आजीविका के सृजन और गरीबी के खात्मे में सहायक होने के साथ-साथ स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार का माध्यम बन सकता है।

भारत अपने ही कचरे में डूबता जा रहा है। हालिया अनुमान के मुताबिक अभी प्रति व्यक्ति कचरा उत्पादन 0.57 किग्र्रा प्रति दिन है। 2025 तक यह दोगुना हो जाएगा। लैंड फिल साइटें भर चुकी हैं। कचरे से ऊर्जा बनाने वाले प्लांट हवा को प्रदूषित कर रहे हैं। हम कचरा उठा नहीं पा रहे हैं। इसका मानव स्वास्थ्य और धरती पर बड़ा असर पड़ रहा है। लैंडफिल हमारे भूजल को भयावह तरीके से दूषित कर रही हैं। उसके आसपास के क्षेत्रों में कैंसर का प्रकोप गहरा रहा है। कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्र डाइऑक्सिन नामक विषैले रसायन निकालते हैं। ये उन 12 घातक रसायनों में शामिल है जिनसे दुनिया शीघ्र छुटकारा पाने की जुगत में है। कचरा मक्खियों का स्वर्ग है। रोगों को फैलाने में इनकी बड़ी भूमिका होती है। कचरे से भरे नाले बाढ़ का कारण तो बाद में बनते हैं, पहले गंदगी से पैदा होने वाली बीमारियों के जनक होते हैं। भारत द्वारा ग्र्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में 3 फीसद हिस्सेदारी खराब कचरा प्रबंधन की है।

अंतत: कचरे को अक्सर समझा जाता है कि यह वह पदार्थ है जो अब बेकार हो चुका है। लेकिन सही तरीके से कचरा प्रबंधन का आशय है कि कैसे तत्वों को सुरक्षित रखा जाए, दोबारा इस्तेमाल किया जाए और पर्यावरण को सुरक्षित रखा जाए। उदाहरण के लिए अगर कचरे को सही ढंग से एकत्र किया जाए और उन्हें रीसाइकिल करें तो सीधे-सीधे हमें कच्चे पदार्थ मिल जाएंगे जिससे धातुओं को पाने के लिए खदानों का भार कम होगा या फिर कागज के लिए जंगल कम कटेंगे।

भारत का तेजी से शहरीकरण जारी है। ऐसे में अगर हालात से सही तरीके से निपटा न गया तो शहरी और ग्र्रामीण लोगों की जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। चीजें और खराब होंगी अगर अनौपचारिक रीसाइकिलिंग क्षेत्रों के कूड़ा उठाने वालों, कबाड़ी और रिसाइकिल करने वालों को नहीं शामिल किया गया। दिल्ली में ही ऐसे लोग रोजाना 2000 टन पेपर, प्लास्टिक, धातु और कांच का रीसाइकिल करते हैं। ये लोग म्युनिसपालिटी का प्रतिदिन एक करोड़ रुपया बचाते हैं। चिंतन के एक अध्ययन के मुताबिक अनौपचारिक क्षेत्र का यह समूह केवल दिल्ली में 3.6 गुने से अधिक ग्र्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कमी करता है। दुर्भाग्य यह है कि उन्हें समाज में तिरस्कृत समझा जाता है। सबके भले की खातिर वे खुद बीमार पड़ते हैं, म्युनिसपालिटी के अधिकारियों का अपमान सहते हैं। देश में इस अनौपचारिक कचरा प्रबंधन क्षेत्र की पहचान के लिए कुछ राष्ट्रीय कानून और नीतियां हैं। लेकिन दिल्ली सरकार और हमारी म्युनिसपालिटी इसे नजरअंदाज करती हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति (2006), नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज (2009), प्लास्टिक वेस्ट (मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग) रूल्स, 2011 और ई-वेस्ट (मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग) रूल्स, 2011 इनमें प्रमुख हैं। शहरों के कचरा प्रबंधन तंत्र में कूड़ा उठाने वालों को शामिल करके उनके द्वारा स्थापित कानूनों का न केवल अनुपालन सुनिश्चित किया जा सकता है बल्कि इसके द्वारा शहरी गरीबों के एक बड़े हिस्से की स्थायी और सुरक्षित आजीविका सुनिश्चित की जा सकती है।

-चित्रा मुखर्जी

(हेड ऑफ प्रोग्र्राम्स, आपरेशंस, चिंतन एनवायरमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्र्रुप)