भ्रम कभी-कभी इतने घर कर जाते हैं कि मनुष्य किसी प्रश्न और तर्क के बगैर उन्हें सत्य मान लेता है। ऐसी बहुत सी निर्मूल अवधारणाएं हैं, जिन्होंने उसे सदियों से घेर रखा है। जैसे यह मान लिया गया है कि इच्छाएं स्वाभाविक हैं। यदि इच्छाएं न हों, तो मनुष्य की प्रगति रुक जाएगी। उसे प्रेरित किया जाता है कि वह सपने देखे। बड़ी कल्पनाएं करे। भौतिकता ने इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया है। कुछ पाने को आगे बढ़ना मान लिया गया है। अपनी पात्रता को न देख लोग आसपास के लोगों से होड़ कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति के केंद्र में जो आदर्श पुरुष दिखता है, उसका प्रमुख गुण इच्छाओं से रहित होना है। इच्छाएं विकारों की जननी हैं और पाप कर्मों की ओर ले जाने वाली हैं। जब मनुष्य इच्छाओं से मुक्त होगा, तभी वह अपने स्व को जान सकेगा और वास्तविक जीवन कर्म कर सकेगा।
एक प्रमुख समस्या यह है कि मनुष्य के अधिकांश कर्म दूसरों को प्रभावित करने के लिए हैं। एक पुष्प किसी बाग में, पगदंडी पर वन अथवा पर्वत पर खिले उसके रंग, सौन्दर्य और सुगंध में कोई अंतर नहीं होता। मोर का नृत्य अपने मन की तरंग है। उसे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई देख रहा है अथवा नहीं। पुष्प और मोर ने स्वयं को पहचान लिया है और ईश्वर प्रदत्त गुणों के अनुसार कर्म किए जा रहे हैं। मनुष्य का व्यवहार स्थिति और समय के अनुसार होता है। उसे बोध ही नहीं कि परमात्मा ने उसे सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ जीव के रूप में क्यों रचा है। समय-समय पर अवतरित हुए महापुरुषों ने उसे जाग्रत और सचेत करने के उपाय किए, उनकी शिक्षाओं पर चल कर किसी का भी जीवन सफल हो जाता। मनुष्य ने उन महान पुरुषों की पूजा तो आरंभ कर दी, किंतु उनके उपदेशों को ताक पर रख दिया था। सारे धर्म ग्रन्थों, धर्म पुरुषों द्वारा स्थापित मूल्यों का एक ही सार है अपने जीवन के उद्देश्य को पहचानना और मन को शुद्ध कर उसे अर्जित करना। मनुष्य के अंगों की सफलता परमात्मा को पाने और उसमें अभेद हो जाने में है। उसके कर्मों की श्रेष्ठता परमात्मा की दृष्टि में ग्राह्य होने पर आश्रित है। वह परमात्मा के प्रति उत्तरदायी है। इसके लिए संसार के मोह को त्यागकर संसार में रहना होगा। आत्म को विस्मृत कर परमात्म भाव में जीना होगा। इच्छारहित होकर अपने गुणों से समाज को लाभान्वित करना एक सुंदर सुगन्धित पुष्प और मुक्त नृत्य करता मोर बनना है, जिसे देख किसी का भी मन मोहित हो जाए।
[ डॉ सत्येंद्र पाल सिंह ]