हम सब गीता को पवित्र मानकर इसका पाठ करते हैं और इसकी पूजा करते हैं। न्यायालयों में हम गीता पर हाथ रखकर ही सच और केवल सच बोलने की कसम खाते हैं। गीता के महत्व का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा? गीता एक धार्मिक और आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि एक जीवनोपयोगी मनोवैज्ञानिक ग्रंथ भी है, लेकिन इस सब के बावजूद भी क्या हम गीता से जुड़े हुए हैं? गीता में कहा गया है कि मनुष्य फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करे। मनुष्य के लिए सबसे अनिवार्य है कर्म। विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से मनीषियों द्वारा इस संसार सागर को पार करने अथवा मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाए गए हैं-भक्ति, ज्ञान और कर्म। जो व्यक्ति नियमित रूप से कर्म करता हुआ व्यस्त रहता है उसे बाकी चीजों के लिए न तो समय ही मिल पाता है और न उसे बाकी चीजों की जरूरत ही रह जाती है।
भारतीय मनीषियों में स्वामी विवेकानंद ने तो कर्म को ही सबसे अधिक महत्व दिया है। उनका विचार है कि एक बंद कमरे में बैठकर धर्मग्रंथ पढ़ने से मैदान में जाकर फुटबॉल खेलना श्रेयस्कर है। उनके लिए मानव मात्र की सेवा ही सबसे बड़ी आध्यात्मिकता है जो सात्विक और निष्काम कर्म का ही एक उत्तम रूप है। कुछ लोग अच्छे साधक भी होते हैं इसमें संदेह नहीं, लेकिन थोड़ी सफलता प्राप्त कर लेने के बाद प्राय: अहंकारी हो जाते हैं। भक्ति और ज्ञान की तरह कर्म के मार्ग में ये खतरे नहीं हैं। निरंहकार रहकर अपने कर्म, सेवा अथवा मजदूरी द्वारा दूसरों की मदद करने वाला किसी भी प्रकार से एक योगी से कम नहीं। एक किसान अथवा मजदूर सबसे बड़ा योगी है, क्योंकि पूरे संसार के लोगों का पेट भरने की खातिर वह चुपचाप कर्म रूपी मौन साधना में रत रहता है।
गीता के पठन-पाठन और स्वाध्याय के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन क्या केवल गीता सुनने, उसका संदेश रटने मात्र से धर्म लाभ हो सकता है? शायद नहीं। गीता जीवनग्रंथ है। यह जीवन जीने की कला सिखाता है। जब तक जीवन जीने की कला का व्यावहारिक उपयोग नहीं किया जाता, वह व्यर्थ है। गीता का पठन-पाठन और स्वाध्याय जरूरी है ताकि इसका संदेश स्पष्ट हो सके, लेकिन गीता का महत्व गीता से यथार्थ रूप में जुड़ने अर्थात जीवन में कर्म को सर्वोपरि मानने और कर्म में संलग्न होने में है और वह भी पूर्णत: निष्काम भाव से।
[ सीताराम गुप्ता ]