आदिकाल से ही या यूं कहिए कि जब से सृष्टि की रचना हुई प्राणी भांति-भांति की ध्वनियों व स्वरों से परिचित हुआ। बहती नदी की कलकल, झरनों की ध्वनि, पक्षियों का कलरव, वायु व वर्षा के जल के स्पर्श से झूमते फूल-पत्तियों की मनमोहक ध्वनि को सुनने भर से प्राणी कितना कुछ सीखता रहा। ऐसे प्राकृतिक नाद के श्रवण मात्र से मनुष्य निरंतर जिज्ञासु होता गया और फिर वाणी की उत्पत्ति और विकास हुआ। पैदा होते ही बालक तीव्र ध्वनि से रोते हुए अपने अस्तित्व के होने का प्रमाण देता है। फिर उसके स्वर, उसकी वाणी और भाषा का विकास होना प्रारंभ होता है। मनुष्य की वाणी, वाक्पटुता उसके वातावरण पर निर्भर करती है। यदि यह सत्य है तो उतना सत्य यह भी है कि श्रवण करने की पटुता बोलने की क्षमता से कहीं अधिक आवश्यक और प्रभावशाली होती है। वे दिन लद गए जब बच्चे बाल्यावस्था से ही अपनी नानी-दादी की कहनियां सुन-सुन कर बड़े हुआ करते थे।
अब तो साल भर का बच्चा सुनना समझना प्रारंभ कर देता है, मोबाइल की ध्वनियों को। आज न तो किसी के पास समय है, और न श्रवण करने के प्रति आस्था। एकाग्रता से सुनना अपने में एक योग है जिसे निरंतर प्रखर करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। दुख तो यह है कि वर्तमान परिवेश में हर कोई स्वयं को ही अभिव्यक्त करना चाहता है। वह बस इस भ्रम में जीने लगता है कि केवल उसका वक्तव्य ही सत्यता के निकट है, बाकीसब मानो अर्थहीन। आज का यथार्थ यही है कि कोई किसी को नहीं सुनता, फिर वो चाहे परिवार हो, विद्यास्थल हों, राजनीतिक गलियारे हों या फिर मीडिया। ऐसा प्रतीत होता है कि केवल अपनी अपनी ढपली और अपना-अपना राग ही श्रवण-योग्य है। यह विडंबना नहीं तो क्या है कि माता-पिता, गुरुजनों की शिक्षा व सीख का श्रवण नितांत रूढ़िवादी माने जाने लगे हैं। इतिहास गवाह है कि प्रभावशाली व्यक्ति तो गिनती के होते है, परंतु उनको श्रवण करने वाले उनके अनुयायी अनगिनत। यह तथ्य शत-प्रतिशत सही है कि एकाग्र होकर सुनने से मनुष्य वैचारिक, आध्यात्मिक व भावनात्मक उत्थान की ओर अग्रसर होता है। निश्चित रूप से ज्ञान की प्राप्ति का पहला चरण है श्रवण। अंत:करण की शुद्धि के लिए भगवान का नाम सुनना अति आवश्यक है।
[ छाया श्रीवास्तव ]