प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एक बार फिर अप्रिय कारणों से चर्चा में है। संसद पर हमले के गुनहगार आतंकी अफजल गुरु के समर्थन के साथ ही भारत विरोध में हुई नारेबाजी के मामले ने जिस तरह तूल पकड़ा और संकीर्ण स्वार्थों वाली राजनीति के कारण विरोधी विचारधाराओं के टकराव में तब्दील हो गया उससे इस विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा तो गिरी ही, यह सवाल भी उत्पन्न हुआ कि क्या कोई विश्वविद्यालय स्वायत्तता अथवा अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की भी अनदेखी कर सकता है? यह पहला अवसर नहीं जब जेएनयू में छात्रों के एक समूह ने वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर देश विरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया हो। इस बार अफजल गुरु की फांसी की बरसी मनाने के लिए छात्रों का एक समूह एकत्रित हुआ और इस दौरान उसे शहीद बताते हुए उसके समर्थन में न केवल नारेबाजी की गई, बल्कि कश्मीर की आजादी और भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहने का इरादा भी जताया गया। जेएनयू में पहले भी कुछ इसी तरह के आयोजन होते रहे, लेकिन न तो उनकी ज्यादा चर्चा हुई और न ही पुलिस ने हस्तक्षेप किया। इस बार देशविरोधी नारेबाजी के वीडियो और अफजल के समर्थन वाले पोस्टर सार्वजनिक हो गए। ऐसा होते ही लोगों में आक्रोश फैला और जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया गया और कथित सांस्कृतिक संध्या के आयोजकों की तलाश शुरू हो गई। हालांकि गृह मंत्रालय ने यह स्पष्ट किया है कि इस मामले में किसी को अकारण तंग नहीं किया जाएगा, लेकिन विपक्षी दल जमकर राजनीति कर रहे हैं।

आखिर देशविरोधी नारे लगाने के आरोपी छात्र कन्हैया की गिरफ्तारी पर इतना हंगामा क्यों? कन्हैया जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष है। वह उमर खालिद सरीखे छात्रों से अनभिज्ञ-अपरिचित भी नहीं है। उससे इस बारे में पूछताछ होनी ही चाहिए कि उसके रहते जेएनयू में देशविरोधी नारे कैसे हुई? उमर खालिद के बारे में यह सामने आ रहा है कि उसका संपर्क-संवाद कश्मीर में कुछ लोगों से है। वह जिस डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन का सदस्य है उसे नक्सलियों का समर्थक खुद संप्रग सरकार ने माना था। क्या नक्सलियों और कश्मीरी आतंकियों के तार जुड़ रहे हैं और इसमें माध्यम बन रहे जेएनयू के उमर खालिद जैसे छात्र? यह गंभीर सवाल है और इसका जवाब तभी सामने आएगा जब कोई गहन जांच होगी? क्या नक्सलियों और कश्मीरी आतंकियों में साठगांठ की आशंका की अनदेखी कर दी जाए?

चाहे जेएनयू हो या अन्य कोई सरकारी या निजी शिक्षा संस्थान, वहां देश विरोधी नारों की इजाजत नहीं दी जा सकती। यह सामान्य बात नहीं कि जैसे नारे जेएनयू में लगे वैसे ही जादवपुर विवि में भी। जब सभी दलों को देश विरोधी नारे लगाने वाले छात्रों की निंदा करनी चाहिए तब वे इस या उस बहाने सरकार पर हमलावर हैं। इनमें वह कांग्रेस भी शामिल है जिसने आजादी के आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मोदी के अंधविरोध में न केवल आरोपी छात्रों के समर्थन में वाम दलों के नेताओं के साथ जेएनयू पहुंच गए, बल्कि राष्ट्रपति से शिकायत करने के साथ ही केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोल दिया। ऐसा लगता है कि राहुल यह भूल गए कि संसद पर हमले के दोषी अफजल को जब फांसी पर लटकाया गया तब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग की ही सरकार थी। अफजल के मामले में लगभग पूरी न्यायिक प्रक्रिया संप्रग के शासनकाल में ही चली। आखिर आज कांग्रेस उपाध्यक्ष अफजल के समर्थन में खड़े छात्रों के एक समूह से सहानुभूति क्यों जता रहे हैं? यह कांग्रेस की नकारात्मकता की हद है कि उसे देश विरोधी भी अपने लगने लगे हैं। राहुल को यह भी याद रखना चाहिए कि जब एक कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को महज राजनीतिक कार्टून के लिए देशद्रोह का आरोपी बनाया गया था तब महाराष्ट्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। अन्य दलों को भी केंद्र सरकार को ज्ञान देने के पहले यह देखना चाहिए कि राष्ट्रद्रोह के तहत की जाने वाली कार्रवाई के मामले में उनका क्या रिकार्ड है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बता रहे कि 2014 में देश भर में कुल 58 लोग राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ्तार हुए। इनमें सबसे ज्यादा 28 बिहार में हुए।

जेएनयू अपनी स्थापना के समय से ही वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है। अब यह विचारधारा भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है, लेकिन उसका प्रतिनिधित्व करने वाले लोग आज के परिवेश के हिसाब से आवश्यक बदलाव नहीं ला पा रहे हैं। आज यदि देश का बड़ा हिस्सा नक्सलवाद की चपेट में है तो इसकी बड़ी वजह अतिवादी वामपंथी विचारधारा है। नक्सलवादियों ने एक तरह से भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने नक्सलवादियों को जिन बुद्धिजीवियों या दलों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन मिल रहा वे वामपंथी विचार वाले हैं। ऐसे लोगों की शिक्षा-दीक्षा भी आम तौर पर वामपंथ के वर्चस्व वाले विश्वविद्यालयों में हुई है। अगर वामपंथी विचारक अतिवादी वामपंथी गुटों के साथ-साथ कश्मीर के अलगाववादी गुटों को भी अपना वैचारिक समर्थन देना शुरू कर देते हैं तो यह एक नया खतरा होगा। इस खतरे की अनदेखी नहीं की जा सकती।

जेएनयू में उभरे विवाद पर दिल्ली पुलिस की कार्रवाई को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। विशेष रूप से इसलिए, क्योंकि पुलिस हड़बड़ी में काम करती नजर आई। उसे कन्हैया को गिरफ्तार करने के पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि उसके पास पर्याप्त सुबूत हैं। पता नहीं कन्हैया के खिलाफ पर्याप्त सुबूत का दिल्ली पुलिस का दावा कितना सही है, लेकिन अब उस पर लगे आरोपों का फैसला अदालत को करना है, राजनीतिक दलों को नहीं इसलिए उन्हें अपनी चीख-पुकार बंद करनी चाहिए। यह कोई तर्क नहीं कि पूर्व की सरकारों की तरह मोदी सरकार को भी जेएनयू की अवांछित गतिविधियों की अनदेखी करनी चाहिए। यह आरोप सस्ती राजनीति के अलावा और कुछ नहीं कि मोदी सरकार विश्वविद्यालयों को निशाना बना रही है। जेएनयू में जैसी नारेबाजी की गई है उसे अभिव्यक्ति की आजादी के आवरण में नहीं ढका जा सकता। अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र का एक आवश्यक गुण है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएं हैं। केंद्र सरकार की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह उन तत्वों को हतोत्साहित करे जो भारत की बर्बादी की कामना कर रहे हैं।

जेएनयू में भारत विरोधी नारेबाजी करने वालों का समर्थन कर रहे राजनीतिक दलों का रवैया जितना अप्रिय और अरुचिकर है उतना ही दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में वकीलों का व्यवहार भी। इस अदालत के वकीलों ने जिस तरह कानून अपने हाथ में लेने की कोशिश की और कन्हैया को निशाना बनाने के साथ मीडिया के लोगों से मारपीट की वह शर्मनाक है। आश्चर्य नहीं कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की। यदि कानून के सहायक ही कानून पर भरोसा नहीं करेंगे तो यह स्थिति अराजकता को ही जन्म देगी। वकीलों का ऐसा आचरण स्वीकार नहीं। इसी तरह उस भाजपा विधायक के आचरण को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता जिसने सरेआम लोगों के साथ मारपीट की। पटियाला हाउस कोर्ट की घटना निदंनीय है। हिंसा-हंगामा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। कार्रवाई की मांग सर्वथा उचित है, लेकिन इसी के साथ इस अपेक्षा का कोई मतलब नहीं कि जेएनयू की घटना से सरकार मुंह मोड़ ले।

[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]