उदय प्रकाश अरोड़ा

अहिंसा, सहिष्णुता, सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुंबकम-ये ऐसे शब्द हैं जो स्वाभाविक रूप से हिंदू धर्म के साथ जुड़ते हैं। हिंदू धर्मानुयायियों ने बचपन से ही इन शब्दों को पने धर्म के पर्याय के रूप में सुना और समझा है। जो विदेशी थोड़ा सा भी हिंदू धर्म के बारे में जानते हैं वे भी हिंदू धर्म की उपरोक्त विशेषताओं से परिचित हैं। अफसोस होता है तब जब अपने देश के नेक लोग और यहां तक कि मीडिया के एक हिस्से के लोग अक्सर हिंदू आतंकवाद और हिंदू कट्टरवाद जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। हिंदू धर्म के साथ ऐसे विशेषणों के प्रयोग देखकर गांधी के विचार याद आते हैं। गांधी जी ने एक अमेरिकी को 20 क्टूबर, 1927 को एक लंबा पत्र लिखा था। लिखा था। इस पत्र के एक अंश इस तरह था: ‘ध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैंने जाना उनमें हिंदू धर्म को सबसे धिक सहिष्णु पाया। इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है। यह बात मुझे बहुत आकर्षित करती है, क्योंकि इस कारण इसके अनुयायी को आत्माभिव्यक्ति का अधिक से अधिक मौका मिलता है।

हिंदू धर्म वर्जनाशील नहीं है। दुनिया के सभी नबी और पैगंबरों की पूजा के लिए इसमें स्थान है। इसीलिए इसके अनुयायी न सिर्फ दूसरे धर्म का आदर कर सकते हैं, बल्कि वे सभी धर्मो की अच्छी बातों को पसंद कर सकते हैं और अपना सकते हैं। हिंदू धर्म सभी लोगों को अपने-अपने धर्म के अनुसार ईश्वर की उपासना करने को कहता है। और इसीलिए उसका किसी धर्म से कोई झगड़ा नहीं है। अहिंसा यद्यपि सभी धर्मो में है, किंतु हिंदू धर्म में इसकी उच्चतम अभिव्यक्ति और प्रयोग हुआ है। मैं जैन और बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म से अलग नहीं मानता। हिंदू धर्म न केवल सभी मनुष्यों की एकात्मकता में, बल्कि समस्त जीवधारियों की एकात्मकता में विश्वास करता है। मेरी राय में हिंदू धर्म में गाय की पूजा मानवीयता के विकास की दशा में उसका एक अनोखा योगदान है। सभी प्रकार के जीवन की पवित्रता में इसके विश्वास का यह व्यवहारिक रूप है।’

उपरोक्त पत्र से यह स्पष्ट है कि गांधी ने जिस चीज को हिंदू संस्कृति की सबसे बड़ी शक्ति माना वह है अहिंसा। यद्यपि अहिंसा और धर्मो में भी है, किंतु हिंदू धर्म में सबसे अधिक बढ़कर है। अहिंसात्मक शक्ति का जितना व्यापक प्रयोग हिंदुस्तान में हुआ है वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई पड़ता। न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर भी यहां अहिंसा का प्रयोग किया गया। इतिहास साक्षी है कि यहूदी, इस्लाम और ईसाई आदि सेमेटिक सभ्यताएं सदैव आपस में लड़ती रहीं। इसके विपरीत भारत ने कभी भी अपनी सेनाएं बाहर लड़ने के लिए नहीं भेजीं। सम्राट अशोक ने अपने दूत दूर-दूर देशों में अहिंसा और शांति के संदेश के प्रचार के लिए भेजे। अपने एक अभिलेख में अशोक ने लिखवाया था कि जो व्यक्ति अपने धर्म की प्रशंसा और दूसरे की निंदा करता है वह स्वयं अपने धर्म की सबसे बड़े हानि करता है। इस प्रकार के वक्तव्य कि केवल मेरा सत्य ही सही है और दूसरे बिल्कुल गलत हैं, वैमनस्य और हिंसा को जन्म देते हैं। दूसरे भी सही हैं, ऐसे विचार सहिष्णुता, अहिंसा और प्रेमभाव को बढ़ाते हैं।

किसी भी विचार के जितने भी पक्ष हो सकते हैं, हिंदू धर्म उन सभी पक्षों के प्रति आदरभाव रखता है। हिंदू धर्म कहता है कि अच्छी सीख जहां से भी मिले उसे लेने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिए।‘वसुधैव कुटुंबकम’ के संदेश को सर्वत्र पहुंचाने वाला हिंदू धर्म जब विश्व स्तर पर अहिंसात्मक शक्ति की बात करता है तो उसका अर्थ है अहिंसात्मक शक्ति द्वारा हिंसा का दमन अर्थात सभी तरह के बैरभाव को पूर्णत: समाप्त करना, शत्रु की बुराई को प्रेम से जीतना और न्याय के विरूद्ध युद्ध छेड़ना। न्याय आज अनेक रूपों में है। दलितों का दमन, किसानों और मजदूरों का शोषण, शक्तिशाली द्वारा निर्बल को दबाना-ये सभी अहिंसा और न्याय के विविध रूप हैं। अहिंसा के खिलाफ लड़ाई हिंसा से नहीं की जा सकती। सभी तरह के न्याय से लड़ने के लिए हिंदू धर्म ने नेक अहिंसात्मक तरीकों को विकसित किया है।

इन अहिंसात्मक तरीकों में सबसे अधिक प्रसिद्ध है गांधी का सत्याग्रह सिद्धांत अर्थात सत्य के लिए आग्रह। सत्याग्रह वह हथियार है जिसके द्वारा कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी झूठ और न्याय के खिलाफ डटकर मुकाबला कर सकता है। केवल व्यक्ति ही नहीं, बल्कि समूह भी यहां तक कि राष्ट्र भी इस शक्तिशाली हथियार द्वारा न्याय को खत्म करने की आशा कर सकता है, जैसा कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा कहते रहते हैं। दुख की बात है कि हिंदू धर्म के मूल तत्व हिंसा को आज चुनौती दी जा रही है। उस पर संदेह किया जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों? कोई कह सकता है कि यह सब कुछ धर्मांधता के कारण है जो इस समय सभी धर्मों के लोगो में दिखाई देती है। धर्म के क्षेत्र में ही नहीं, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी है, लेकिन हिंदुओं को दूसरों की नहीं, अपनी चिंता करनी चाहिए। हिंदू तो कभी उग्र नहीं थे, कभी भी कट्टरपंथी नहीं थे। उग्रता, कट्टरपन और धर्माधता से हिंदुत्व का विरोधाभास रहा है।

अहिंसा और सहिष्णुता के बिना हिंदू धर्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती। सत्य, अहिंसा और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश भारत ने दुनिया को दिया है। इसलिए सबसे पहली बात तो यह होनी चाहिए कि उग्रवाद, आतंकवाद और कट्टरवाद जैसे शब्द हिंदू धर्म के साथ न जोड़े जाएं, क्योंकि यह हिंदू धर्म की मूल भावना के खिलाफ है। पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जब विवेकशून्य उत्तेजित भीड़ ने गोरक्षा के नाम पर हत्याएं की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित इन घटनाओं की सभी ने भर्त्सना की। समाज का यह कर्तव्य बनता है कि कोई भी संगठन या व्यक्ति जो हिंसक विचारधारा या कार्यो को बढ़ावा देते हुए स्वयं को हिंदू धर्म का रक्षक घोषित करता है, उसे हिंदू समाज से तुरंत बहिष्कृत करे।

धर्म के बारे में जोर-जबर्दस्ती का हिंदू धर्म सख्त विरोध करता है। हिंदू धर्म की यह खासियत रही है कि जब कभी कुप्रथाएं और बुराइयां उस पर हावी हुईं, धार्मिक-सामाजिक सुधारकों ने उनके खिलाफ आवाज उठाई। इन सुधारकों और संतों ने लकीर का फकीर होने से समाज को बचाया। समय बदलने के साथ धर्मग्रंथों की पुर्नव्याख्या की गई। दुर्भाग्य की बात है कि आजादी के बाद ढोंगी बाबाओं और मठाधीशों का अधिक प्रभाव बढ़ा। उन्होंने धर्म के नाम पर अपार संपत्ति जमा की। आज जरूरत है हिंदू धर्म को ऐसे पाखंडियों से बचाने की। यह एक वैचारिक क्रांति से ही संभव है। इसमें मीडिया, सहिष्णु हिंदू संगठन और संत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। नए भारत का निर्माण तभी संभव है जब हम वैज्ञानिक सोच वाले एक तार्किक, विवेकशील, मानववादी और अहिंसा में विश्वास रखने वाले समाज का निर्माण करेंगे।

[लेखक जेएनयू में ग्रीक चेयर प्रोफेसर रहे हैं]