कैप्टन आर विक्रम सिंह

सैनिकों की शहादतें हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनती जा रही हैं। कभी कश्मीर, कभी पूर्वोत्तर तो कभी दंतेवाड़ा। कैमरा शहीद की चिता, शहीद की विधवा, बच्चों, बूढ़े माता-पिता पर फोकस होता है। फिर संवेदना भरे बयान, जिंदाबाद-अमर रहे... के नारे और फिर गहरी उदासी। पाकिस्तान और माओवादी हैं कि मानते नहीं। ऐसा नहीं कि सरकार परवाह नहीं कर रही। वन रैंक वन पैंशन, एक बड़ी उपलब्धि है। इससे इन्कार नहीं, लेकिन बात उनकी भी है जो ताबूत में नहीं आए यानी पूर्व सैनिकों की। क्या पूर्व सैनिकों की क्षमता, योग्यता सिर्फ पेंशन लेने तक ही सीमित है? देश उनकी शक्ति का उपयोग कब करेगा? क्या राष्ट्र निर्माण में उनकी कोई भूमिका नहीं है? अमेरिका के राष्ट्रपतियों में से आधे से अधिक सैन्य पृष्ठभूमि से रहे। कहना न होगा कि अमेरिका को अमेरिका बनाने में इन पूर्व सैनिक प्रशासकों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। एक अति पर पाकिस्तान है जहां सेनाएं जब चाहे सत्ता पर कब्जा कर लेती हैं। दूसरी अति पर हम हैं जो सक्षम जनशक्ति के अभाव से जूझते अपने देश में पूर्व सैनिकों के लिए किसी भूमिका की तलाश ही नहीं कर पाया है। करीब 50 हजार के आसपास सैनिक प्रतिवर्ष रिटायर होते हैं। उनकी अवस्था 37 से 45 वर्ष के बीच होती है। सेना उन्हें कर्मठता, ईमानदारी और विषम हालात से मुकाबला करना सिखाती है। देश के सबसे सक्षम संस्थान भारतीय सेनाओं से सेवामुक्त होने के बाद सैनिकों के पास कोई काम नहीं है। ट्रंप प्रशासन ने अपने यहां तीन जनरलों को देश की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी हैं, लेकिन हमारा देश उनकी क्षमताओं का उपयोग नहीं करता। हमारे सेवानिवृत्त कमांडो काम के लिए सिक्योरिटी एजेंसियों के चक्कर काटते हैं। आखिर सीआरपीएफ ,बीएसएफ , सीआइएसएफ आदि पैरामिलिटरी बलों में उनका समायोजन क्यों नहीं हो सकता? इससे एक ओर हमारे अर्ध सैनिक बल सक्षम होगें दूसरी ओर पेंशन की धनराशि में भी काफी बचत होगी, क्योंकि अर्ध-सैनिक बलों में सिविल पुलिस के समान सेवानिवृत्ति की सीमा 58 वर्ष तक है।
राज्यों की पुलिस सेवाओं में भी हमने पूर्व सैनिकों के समायोजन के बारे में गंभीरता से विचार नहीं किया है। कई राज्यों में पूर्व सैनिकों के लिए 15 प्रतिशत तक आरक्षण की व्यवस्था है। उत्तर प्रदेश में यह सीमा कभी दस प्रतिशत थी, अब घटकर पांच प्रतिशत रह गई है,जबकि यहां पूर्व सैनिकों की संख्या देश में सबसे अधिक है। व्यवस्था कुछ ऐसी है कि जो कोटा है भी वह खाली रहता है। एक लाख शिक्षामित्र बने, लेकिन उनमें शायद ही कोई पूर्व सैनिक हों। बिहार सरकार ने गत वर्षों में पूर्व सैनिकों को पुलिस की सेवा में संविदा पर रखने की प्रक्रिया आरंभ की थी। इसके बहुत ही उत्साहवर्धक परिणाम सामने आए। पूर्व सैनिक राज्य सेवाओं को सक्षम बनाता है उन पर बोझ नहीं बनता। जब एक प्रशिक्षित जनशक्ति का विशाल भंडार सरकारों के सम्मुख उपलब्ध है तो उनका उपयोग न किया जाना समझ में नहीं आता। करीब 14 वर्ष पूर्व लेखक की ओर से उत्तर प्रदेश शासन के सम्मुख यह प्रस्ताव दिया गया था कि प्रदेश में पूर्व सैनिकों के जन प्रबंधन की दृष्टि से एक मंत्रालय का गठन किया जाए। उस प्रस्ताव का सिर्फ इतना प्रभाव हुआ कि सैनिक कल्याण के नाम से एक मंत्री जी नियुक्त होने लगे, लेकिन आज तक विभाग की कोई रूपरेखा नहीं बन सकी।
सेवारत सैनिकों के घर परिवार की भी बहुत सी समस्याएं हैं और पूर्व सैनिक की समस्याएं तो हैं ही। कुल मिलाकर जिम्मेदारियों का यह एक बड़ा क्षेत्र बनता है जो युवकों के चयन से लेकर उनकी सेवानिवृत्ति के बाद तक की व्यवस्था संभाल सकता है, लेकिन ऐसा विचार विकसित ही नहीं हुआ। हम दिव्यांग वर्ग की उचित ही परवाह करते हैं। उनके लिए सेवाओं में आरक्षण है। यह कार्य हमारे प्रशासन और शासन की संवेदनशीलता प्रदर्शित करता है। दिव्यांगों के लिए आरक्षित पदों पर भर्तीअभियान चलते हैं, लेकिन क्या आपने पूर्व सैनिकों के बारे में कभी सुना है कि उनका कोटा भरने के लिए भर्ती अभियान चला हो? भारतीय प्रशासनिक सेवा में कभी पूर्व सैन्य अधिकारियों के लिए आरक्षण था। वह समाप्त कर दिया गया। उत्तर प्रदेश ने तो क एवं ख वर्ग में आरक्षण शून्य ही कर दिया। आखिर जो ताबूत में नहीं आए उन्हें कोई पूछने वाला क्यों नहीं? पूर्व सैनिक बढ़ गए, उनका आरक्षण घट गया। हद तो तब हो गई जब 1993 के शासनादेश में कहा गया कि पूर्व सैनिकों को आरक्षण उनके जातीय सवंर्ग में ही मिलेगा। अर्थात पिछड़े, अनुसूचति जाति और सामान्य वर्ग के पूर्व सैनिक अपनी-अपनी श्रेणी में ही आरक्षण के पात्र होंगे। यह बड़ा गजब का फैसला था। सेना में चयन कभी भी जाति, वर्ग आधार पर होता ही नहीं। सैनिक एक राष्ट्रीय नागरिक बन जाता है। यह शासनादेश जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त पूर्व सैनिकों को फिर से अगड़े-पिछड़े के दलदल में ढकेल देता है। ऐसे शासनादेश के बाद पूर्व सैनिक अधिकारियों एवं पूर्व सैनिकों का राज्य की प्रशासनिक, पुलिस सेवाओं में प्रवेश की संभावनाओं पर पूर्ण विराम लग गया। 1999 में संशोधित शासनादेश जारी कर पूर्व सैन्य अधिकारियों के श्रेणी- क एवं ख की सेवाओं में प्रवेश के रास्ते स्थाई रूप से बंद कर दिए गए। यही रास्ते बंद करने वाले जब शहीद परिवारों और पूर्व सैनिकों की प्रशंसा में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है।
ऐसा लगता है कि हमारे राजनीतिक दल जातियों को लुभाने में पूर्व सैनिकों को भूले हुए हैं। पूर्व सैनिक और सैनिक परिवारों की देश में बहुत बड़ी संख्या है, लेकिन अनुशासित संवर्ग होने के कारण वे नारेबाजी, चक्का-जाम नहीं करते, रेल नहीं रोकते और बसें नहीं फूंकते। राजनीति की सोच में सरकारी सेवाएं अपने लोगों को उपकृत करने के लिए होती हैं, उच्च स्तरीय प्रशासन या सेवाएं देने के लिए नहीं। चूंकि प्रशासन को बेहतर बनाने की सोच नहीं है इसलिए शायद उनके यहां पूर्व सैनिकों, अधिकारियों का कोई उपयोग नहीं है। हम रोज शहादतों की कहानियां पढ़ते हैं और भूल जाते हैं। देश और प्रदेशों के प्रशासन में पूर्व सैनिकों को सार्थक भूमिका देने का समय आ गया है। जब जागो तभी सवेरा! देश को यह भरोसा होना चाहिए कि जिन्होंने रक्षा का दायित्व निभाया है वे राष्ट्र-निर्माण में भी कहीं से पीछे नहीं रहेंगे।
[ लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं ]