शंकर शरण

स्वतंत्र भारत में विदेश नीति रूमानी कल्पनाओं से शुरू हुई जिसका भारी दंड हमें मिला और फिर भी सबक नहीं सीखे गए। पहले पाकिस्तानी और फिर चीनी आक्रमणों के बाद सैन्य बल मजबूत करने पर ध्यान दिया गया, किंतु कूटनीति और विदेश नीति का उचित संचालन अभी तक नहीं सीख पाए। हमारी तिब्बत-नीति इसका उदाहरण है। स्वतंत्रता मिलते ही भारत ने बिना कारण तिब्बत में अपने अधिकार और व्यवस्थाएं अपनी ओर से खत्म कर दीं जबकि उसे बनाए रखने की तमाम वजह थीं। सबसे पहली तो यही कि भारत और चीन के बीच स्वतंत्र या संरक्षित तिब्बत बना रहना दो बड़े देशों के बीच संबंध सामान्य रखने हेतु जरूरी था। सामान्य इतिहास से भी साफ था कि तिब्बत की भौगोलिक स्थिति उसे अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है। इसीलिए अंग्रेजों ने वहां सदैव नजर रखी ताकि दूसरे दाखिल न हो पाएं। यह इसलिए भी जरूरी था कि भारत वहां अपने पारंपरिक अधिकार बनाए रखता। इस सबसे अनजान स्वतंत्र भारत ने कल्पनावादी नीतियां शुरू कीं। तिब्बत पर नीति तय करने में स्वयं तिब्बतियों से कोई मशविरा नहीं किया गया। नेहरू जी चीनी क्रांति से बहुत प्रभावित थे। चीन के साथ अप्रैल, 1954 में अपने पंचशील समझौते की व्याख्या उन्होंने इस तरह की, ‘कोई दूसरे पर हमला नहीं करेगा, कोई दूसरे से नहीं लडे़गा... यही हमारा मूल सिद्धांत है जिसे समझौते में रखा गया है।’
नेहरू यह भूल गए कि कुछ समय पहले ही चीन ने तिब्बत पर हमला किया था। उन्हें यह सोचना भी जरूरी न लगा कि उस समझौते के पालन की गारंटी क्या है? किस बल पर उसका पालन सुनिश्चित होगा? अपनी सदभावना पर निर्भरता का दुष्परिणाम तिब्बत के साथ-साथ भारत को भी उठाना पड़ा। उस समझौते के आठ वर्ष बाद ही चीन ने भारत पर भी आक्रमण किया। इसे चीन का धोखा कहा गया। चीन स्थित भारतीय राजदूत ने और उससे भी पहले हमारे गृहमंत्री सरदार पटेल ने चीनी प्रवृत्तियों की चेतावनी स्पष्टत: दे दी थी। दुर्भाग्यवश हम आज भी विदेशी संबंधों में व्यावहारिकता की अनदेखी करने पर ही तुले हैं। हमने सोचा ही नहीं कि आखिर चीन या कोई भी देश भारत के प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार कैसे करेगा?
चीन द्वारा पंचशील समझौते का उल्लंघन किए जाने के बाद तिब्बत पर नीति बदलनी चाहिए थी। विशेषकर इसलिए, क्योंकि पंचशील समझौता भारत और चीन के बीच नहीं बल्कि ‘तिब्बत रीजन ऑफ चाइना एवं भारत के बीच व्यापार और व्यवहार’ के लिए हुआ था। वह भारत और तिब्बत के बीच व्यवहार के स्पष्ट नाम से था। समझौते का उल्लंघन होते ही तिब्बत का प्रश्न भारत को जोरदार तरीके से उठाना चाहिए था। यह भारत का अधिकार ही नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी थी जिसे पूरा न करने का दंड ही हम आज तक भुगत रहे हैं।
चीन द्वारा 1949 में तिब्बत पर कब्जे के बाद से ही दुनिया ने भारत की ओर देखा था। तिब्बत की स्थिति से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला पड़ोसी भारत था। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में भारत द्वारा ही चीन का समर्थन करने से ही दुनिया चुप हो गई। वरना तब कम्युनिस्ट चीन कोई महाशक्ति तो क्या मान्यता प्राप्त देश तक न था। उस समय मान्यता फारमोसा यानी ताइवान को थी। अगर तब भारत तिब्बत के लिए आवाज उठाता तो पूरी दुनिया चीन पर दबाव डालती कि तिब्बत स्वायत्त रहे, लेकिन भारत ने वह आज तक नहीं किया। चीन के विरुद्ध विकल्प होने के बावजूद भारत ने उसका इस्तेमाल नहीं किया। तिब्बत के विध्वंस से भारत की सुरक्षा के साथ-साथ हमारे सांस्कृतिक, पर्यावरणीय हितों को चोट पहुंची है। चुप्पी साधकर हमने तिब्बत के साथ-साथ अपना भी अहित किया। ऐसे देश को वैश्विक मंच पर सम्मान नहीं मिलता।
यदि 1959 या 1962 के बाद भारत ने डटकर तिब्बत का मुद्दा उठाया होता तो यकीन मानिए चीन को हमारे साथ सद्भावपूर्ण संबंध बनाने की अधिक चिंता होती। तिब्बत की स्थिति भी सुधरती, क्योंकि वह जरूरी लगता। ‘हम चीन का क्या कर सकते हैं’ की भीरू मानसिकता ने ही भारत की कूटनीतिक दुर्गति की। यह सीधा सत्य हमें दिखना चाहिए। कोई भी देश बात-बेबात युद्ध नहीं छेड़ देता। आक्रमण का उत्तर देने के लिए ही सेना होती है, किंतु हर हाल में युद्ध से बचने की प्रवृत्ति हमें ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। यह कूटनीति का सार्वभौमिक सत्य है कि जहां लड़ने की तैयारी हो वहीं शांति रहती है, क्योंकि आक्रमणकारी को मालूम होता है कि उसे कड़ा जबाव मिलेगा। अंतरराष्ट्रीय संबंध अमूमन सैन्य बल-प्रयोग की तुलना में भंगिमाओं से अधिक चलते हैं। चीन इसका खास उदाहरण है। उसने 1978-79 में वियतनाम पर हमले के बाद से अभी तक कोई लड़ाई नहीं लड़ी। वियतनाम को ‘सबक सिखाने’ का प्रयास भी महंगा पड़ा जब चीनियों को 50 हजार सैनिकों से हाथ धोना पड़ा। इसीलिए, चीनी विमर्श में अमेरिकी, फ्रांसीसियों से लड़ाई का उल्लेख होता है, मगर वियतनाम युद्ध पर वे चुप रहते हैं।
यदि भारत ने सैन्यबल पर भारी खर्च किया है तो सदैव लड़ाई से बचने और धमकियों से डरने की प्रवृत्ति छोड़नी चाहिए। यही प्रवृत्ति उल्टे दुश्मनों को उद्धत बनाती है। खासतौर से चीन के साथ हमें अपनी हीनता ग्र्रंथि दूर करनी चाहिए। उसे एक बार आक्रमण की चुनौती देकर जरा उसका भी दम देख लिया जाए। यह एक बड़ा भ्रम है कि तिब्बत मसला उठाने या दलाई लामा को राजनीतिक प्रतिष्ठा देने जैसे अहिंसक कार्यों का भी परिणाम चीनी आक्रमण होगा। यह भी बेवजह का डर है। चीन हमें ऐसे अवसर देता रहा है कि हम तिब्बत का मामला सुसंगत रूप से उठा सकें। जब भारत के विरुद्ध कुख्यात आतंकी को भी आतंकी घोषित करने का विरोध चीन करता है तब हमें दलाई लामा को ‘भारत रत्न’ देने और राजनीतिक गतिविधियों की सुविधा देने से कौनसी चीज रोकती है? दलाई लामा को समुचित महत्व न देना और तिब्बत की उपेक्षा करना हमारी दुर्बलता का स्वघोषित प्रमाण बना रहा है। इसने चीन का हौसला और बढ़ाया। यदि हमने तिब्बत पर आवाज उठाई होती तो चीन भारत से सहज संबंध बनाने का अधिक इच्छुक रहा होता। वैदेशिक संबंध सैन्य-बल से अधिक मनोबल एवं बुद्धिमत्ता से तय होते हैं। बीते पचास वर्षों में भारत ने सैन्य बल बढ़ाने की चिंता तो की, मगर अन्य कारकों को सुधारने पर कभी नहीं सोचा। तिब्बत को बीच में लाए बिना भारत-चीन संबंध कभी सामान्य नहीं होंगे। तिब्बत की सच्ची स्वायत्तता ही भारत-चीन के शांतिपूर्ण संबंधों की ऐतिहासिक कुंजी है।
[ लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]