ह्रदयनारायण दीक्षित

सभ्यता देह है और संवाद प्राण। दुनिया की सभी सभ्यताओं का विकास सतत संवाद से हुआ है। भारतीय संस्कृति में आस्था से भी संवाद की परंपरा है। सर्वोच्च न्यायालय ने राम जन्मभूमि विवाद को परस्पर संवाद से हल करने का सुझाव दिया है। न्यायालय ने अयोध्या विवाद को संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा बताया और कहा कि ऐसे मसलों पर सभी पक्षों को सौहार्दपूर्ण संवाद कर सर्वसम्मत निर्णय लेना चाहिए। अदालती टिप्पणी स्वागतयोग्य है, लेकिन इतनी सुंदर और सरल बात कहने में उसे कई बरस लग गए। श्रीराम भारतीय इतिहास के ‘मंगल भवन अमंगलहारी’ नायक हैं। राम जन्मभूमि मंदिर स्वाभाविक ही भारत की श्रद्धा है। मंदिर का इतिहास है। पुरातत्व के भी साक्ष्य हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट में 3500 ईसा पूर्व के विवरण हैं। 3500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व भी अयोध्या एक तथ्य है। रिपोर्ट में शुंगकाल (200-100 ईसा पूर्व), कुषाण काल (100 ईसा पूर्व से 300 ई) और गुप्त काल के नगरों, सिक्कों और कलाकृतियों का उल्लेख है। एक मंदिर का भी जिक्र है। 50 खंभों के आधार हैं। इस मंदिर का अस्तित्व 1500 ई. तक रहा। इसके बाद का इतिहास बाबर का है। बाबर के सिपहसालार मीर बकी ने 1528 में मंदिर को ही मस्जिद में तब्दील कराया। एडवर्ड थार्टन के अध्ययन ‘गजेटियर ऑफ द टेरीटरीज अंडर दि गवर्नमेंट ऑफ ईस्ट इंडिया कंपनी’ के अनुसार यहां बाबरी मस्जिद हिंदू मंदिर के खंभों से बनी, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने ऐसे हजारों साक्ष्यों को दरकिनार किया। पुरातत्व और इतिहास के साथ छेड़खानी की। मस्जिद के पक्ष में माहौल बनाया और संवाद की संभावनाओं को पलीता लगाया।
सार्थक संवाद के लिए सौहार्द चाहिए। तथ्यों और प्रमाणों पर विश्वास भी चाहिए। जर्मन दार्शनिक वॉल्टेयर ने कहा था कि यदि आप संवाद चाहते हैं तो अपने शब्दों की परिभाषा तय करनी चाहिए। पुरातात्विक साक्ष्यों को न मानने की जिद संवाद में बाधा है। एएसआइ के क्षेत्रीय निदेशक (उत्तर क्षेत्र) रहे केके मोहम्मद ने मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा ‘नज्न एन्ना भारतीयन’ (मैं एक भारतीय) में वामपंथी इतिहासकारों इरफान हबीब और रोमिला थापर पर बाबरी मसले को गलत ढंग से प्रस्तुत करने का आरोप लगाते हुए लिखा है कि 1976-77 में प्रोफेसर बी लाल की अगुआई में हुई खुदाई में भी यहां मंदिर के साक्ष्य पाए गए थे। इतिहासकार एमजीएस नारायन ने मोहम्मद के साथ सहमति जताई है। वामपंथी इतिहासकारों ने सौहार्द का वातावरण बिगाड़ने का ही काम किया। रोमिला थापर, विपिन चंद्रा आदि ने मंदिर ध्वंस की बात कभी नहीं स्वीकारी। इरफान हबीब और डीएन झा के विचार भी सौहार्द संवाद में बाधा बने। इतिहास का विरुपण गंभीर अपराध है। पुरातत्व और प्राचीन साहित्य इतिहास की दो आंखे हैं। साहित्य संकेत देता है और प्रेरित करता है। पुरातत्व साक्ष्य देता है। केके मोहम्मद ने पुरातत्वविद् का कत्र्तव्य निभाया। अपना विचार नहीं जोड़ा। उन्होंने लिखा है कि ‘मैंने जो देखा वह इतिहास का ही तथ्य है। 14 खंभों वाला मंदिर आधार भी पाया।’ उन्होंने अनेक अंग्रेजी समाचार पत्रों में अपने निष्कर्ष भेजे, मगर वे नहीं छपे। सिर्फ एक अखबार ने संपादक के नाम पत्र में ही उन्हें जगह दी। सुप्रीम कोर्ट ने बातचीत का विकल्प दिया है, लेकिन वार्ता के लिए वातावरण बनाना सभी का कत्र्तव्य है। अदालत को मध्यस्थता करनी ही चाहिए। इससे दोनो पक्षों के तर्क और तथ्य उसके संज्ञान में रहेंगे। वार्ता के असफल होने पर कोर्ट को अपना काम करने में सुविधा रहेगी। बेशक मंदिर-मस्जिद का मामला संवेदनशील और भावनात्मक है, लेकिन इससे भी ज्यादा तथ्यात्मक भी है। यहां पुरातत्व के साक्ष्य हैं, देश-विदेश के तमाम विद्वानों के अध्ययन निष्कर्ष हैं। इस्लामी परंपरा के कई विद्वानों ने भी यहां मंदिर का ही उल्लेख किया है। मंदिरों का विध्वंस भारतीय इतिहास का त्रासद अध्याय है। सोमनाथ मंदिर पर महमूद का हमला हम भूल गए हैं। स्वतंत्र भारत में इसका पुनर्निर्माण हुआ। श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी की भी चर्चा हम नहीं करते, लेकिन अयोध्या का क्या करें? मिर्जाजान की किताब ‘हदीकाए शहदा’ (1856, पृष्ठ 4-7) में जिक्र है ‘सुल्तानों ने इस्लाम की हौसला अफजाई की। फैजाबाद और अवध को कुफ्र से छुटकारा दिलाया। अवध राम के पिता की राजधानी थी। जिस स्थान पर मंदिर था वहां बाबर ने सरबलंद (ऊंची) मस्जिद बनाई।’ हाजी मोहम्मद हसन ‘जियाए अख्तार’ (1878) में लिखते हैं कि ‘राजा रामचंद्र के महलसराय और सीता रसोई को ध्वस्त करके बादशाह के हुक्म से बनी मस्जिद में दरारें हैं।’ मौलवी अब्दुल करीम ने ‘गुसस्ते हालाते अयोध्या’ (1885) में लिखा कि ‘राम के जन्मस्थान पर बाबर ने अजीम मस्जिद बनाई।’ अनेक मुस्लिम विद्वानों ने यही बातें दोहराई हैं।
भारत बदल रहा है। चुनाव में जाति मजहब और पंथ की संकीर्णताएं टूट चुकी हैं। सबकी आस्था और विश्वास का आदर राष्ट्रीय आवश्यकता है। मजहबी आक्रामकता से देश का भारी नुकसान हो रहा है। अथर्ववेद के भूमि सूक्त में पृथ्वी की स्तुति है-‘यह पृथ्वी भिन्न-भिन्न आस्थाओं, भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वालों को समान प्यार देती है।’ भारत के मन, संस्कृति और दर्शन में सभी विचारों, आस्थाओं और उपासनाओं का आदर सम्मान है। हिंदू मन ईश्वर से भी वाद-विवाद और संवाद का अभ्यस्त है। श्रीराम और राम जन्मभूमि मंदिर जीवंत इतिहास का हिस्सा हैं। दूसरे पक्ष को बहुसंख्यक समाज की इस भावना का सम्मान करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इसीलिए बातचीत का सुझाव दिया है। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर केवल एक है। मस्जिदें लाखों की संख्या में हैं। इनमें तमाम मंदिर तोड़कर दिल्ली में बनी ‘कुबतुल इस्लाम’ नाम की मस्जिद भी है। मस्जिद के सामने लगे पत्थर में 27 मंदिरों की सामग्री का उल्लेख है। हम भारत के लोग किसी संप्रदाय की ताकत नहीं परस्पर मोहब्बत ही देखने के प्यासे हैं। दुराग्रह से बात नहीं बनती।
अदालत द्वारा प्रस्तावित बातचीत भविष्य की राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। मंदिर बनाम मस्जिद के पैरोकार पक्ष बनेंगे, लेकिन मसला मंदिर और मस्जिद की सीमा से बाहर भी प्रभाव डालेगा। यहां दो विश्वासों और दो आस्थाओं के बीच प्रीतिपूर्ण संवाद हो सकता है। बाबरी के नाम पर राजनीति करने वालों की बात दीगर है। बाकी विद्वान और उलेमा बहुसंख्यक समुदाय की भावना पर गहन विचार करें। भारत और समस्त दुनिया के हिंदू यहां श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के पक्षधर हैं। यह साधारण मंदिर की मांग नहीं। हिंदू सभी संप्रदायों,का आदर करते रहे हैं। हिंदू-मुस्लिम का सहअस्तित्व महान भारत की गारंटी है। बाबरी के आग्रही पुनर्विचार करें। बाबर हमलावर था। वह दाराशिकोह की तरह भारतीय अनुरागी नहीं था। वह अकबर जैसा शासक भी नहीं था। मंदिर पर सहमति के परिणाम अंतरराष्ट्रीय ईर्ष्या का विषय होंगे। तब श्रीराम जन्मभूमि मंदिर बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक प्रीति का दिव्य भव्य स्मारक होगा। पूरी दुनिया भारत के सांप्रदायिक सद्भाव का स्तुतिगान करेगी। मंदिर अनेक हैं, लेकिन श्रीराम जन्मभूमि मंदिर राष्ट्रभाव की अभिव्यक्ति है।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य हैं ]