मानव धर्म हमें संसार में परस्पर प्रेम, सहानुभूति और एक-दूसरे के प्रति सम्मान करना सिखाकर श्रेष्ठ आदर्शों की ओर ले जाता है। मानव धर्म उस स्वच्छ व्यवहार को माना गया है जिसका अनुसरण करके सभी को प्रसन्नता और शांति प्राप्त हो सके। दूसरों की भावनाओं को न समझना और उनके साथ छल-कपट करना मानव धर्म नहीं है। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है तो युधिष्ठिर ने यही कहा कि दया ही श्रेष्ठ धर्म है। दूसरों पर दया करना और अपने मन, वचन और कर्म से प्राणिमात्र का हित करना ही मनुष्य का कर्तव्य है और धर्म भी। जब तक मनुष्य में दूसरों के लिए दया भाव जाग्रत नहीं होगा तब तक उसमें सेवा भाव का होना भी असंभव है। इंसान में दूसरों के प्रति सेवा, सहानुभूति, दया और परोपकार की भावना विकसित हो तभी उसमें सेवा की भावना पनप सकती है। असत्य, लोभ, घृणा, ईष्र्या और आलस्य जैसे दुर्गुणों को त्यागकर ही मनुष्य दूसरों के प्रति सेवा भाव उत्पन्न कर सकता है। मनुष्य को हमेशा दूसरों का हित भी देखना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपने परिवार की तरह समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह भी करना चाहिए। मनुष्य की सच्ची, स्वार्थरहित और निष्ठापूर्ण सेवाओं से कई बार हमारे समाज में बड़े-बड़े चमत्कार हुए हैं जिनसे देश के विकास के भौतिक और सांस्कृतिक पक्षों को बल मिला है।
निस्वार्थ सेवा से व्यक्ति जटिल परिस्थितियों में भी विजय प्राप्त कर अपने समाज और देश की उन्नति में अमूल्य योगदान दे सकता है। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक महापुरुषों ने निस्वार्थ भाव से सेवा और त्याग करके असंभव को संभव कर दिखाया। इन महापुरुषों से प्रेरणा पाकर हम भी अपने देश व समाज के विकास में सहयोग कर सकते हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम यानी समस्त धरती ही अपना परिवार है’ की भावना का हम जितना अधिक विस्तार करेंगे, हमारे समाज में उतनी ही सुख-शांति और समृद्धि फैलेगी। इसके लिए हमें अपने सुख के साथ दूसरे के सुख का भी ध्यान रखना होगा। मानव होने के नाते जब तक हम एक-दूसरे के दुख-दर्द से नहीं जुड़ेंगे तब तक हम इस जीवन की सार्थकता को भी सिद्ध नहीं कर सकेंगे। यदि दूसरों के दुखों को देखकर व्यक्ति को भी पीड़ा महसूस हो तो वही मनुष्य है, वरना वह हड्डियों से बना एक ढांचा भर है। हमारी सेवा में दिखावा या ढोंग भी नहीं होना चाहिए।
[ महायोगी पायलट बाबा ]