वरद शर्मा

बीते दिवस गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने एक अप्रत्याशित घटनाक्रम के तहत जम्मू-कश्मीर में संवाद की प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक वार्ताकार की नियुक्ति की घोषणा की। इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आइबी के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को केंद्र सरकार का विशेष प्रतिनिधि बनाने का ऐलान करते हुए यह कहा गया कि उन्हें राज्य के सभी पक्षों से बातचीत करने का कार्य सौंपा गया है। दिनेश्वर शर्मा कश्मीर में नब्बे के दशक में आइबी के सहायक निदेशक के पद पर काम कर चुके हैं। वह आइबी के प्रमुख के रूप में भी कश्मीर के हालात से परिचित रहे हैैं। उनकी नियुक्ति की घोषणा मोदी सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति को एक नया आयाम देती दिखती है। अभी तक कश्मीर के मामले में मोदी सरकार की छवि कठोर दृष्टिकोण वाली बताई जाती रही है। गृहमंत्री की ओर से कश्मीर के लिए वार्ताकार नियुक्त करने की घोषणा सुरक्षा बलों के आतंक विरोधी ऑपरेशन ऑलआउट शुरू होने और राष्ट्रीय जांच एजेंसी के अलगाववादियों और उनके समर्थकों पर छापेमारी के बाद की गई। ऐसी किसी घोषणा की अपेक्षा तबसे की जा रही थी जबसे स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में कहा था-न गाली से समस्या सुलझने वाली है, न गोली से, समस्या सुलझेगी हर कश्मीरी को गले लगाने से। प्रधानमंत्री मोदी एक तरह से जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बात को अपने अंदाज में दोहरा रहे थे। सईद कहा करते थे-न बंदूक से, न गोली से, बात बनेगी बोली से।


गृहमंत्री राजनाथ सिंह के मुताबिक निरंतर बातचीत के माध्यम से जम्मू-कश्मीर के लोगों की वैध आकांक्षाओं को समझा जाएगा और इस क्रम में राज्य के युवावर्ग की आकांक्षाओं को खास महत्ता दी जाएगी। यह पूछे जाने पर कि क्या अलगाववादी गुट हुर्रियत कांफ्रेंस के साथ भी बातचीत होगी, उनका कहना था कि इसका निर्णय दिनेश्वर शर्मा ही करेंगे। चूंकि इस वार्ता प्रक्रिया के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या केंद्र सरकार यह मानने लगी है कि जम्मू-कश्मीर की समस्या सिर्फएक राजनीतिक समस्या है? क्या मोदी सरकार यह कहने से कतरा रही है कि आज के दिन कश्मीर समस्या की बुनियाद जिहाद है? कश्मीर समस्या का समाधान करने की पहल के पहले यह स्पष्टता आवश्यक है कि यह समस्या है क्या? सच तो यह है कि कोई भी सरकार जम्मू-कश्मीर में तीन दशकों से चल रहे आतंकवाद को परिभाषित करने से कतराती रही है। इस मामले में भाजपा के नेतृत्व वाली मौजूदा केंद्र सरकार भी पहले की सरकारों से बहुत अलग नहीं है। ध्यान रहे कि यह वही भारतीय जनता पार्टी है जो हमेशा से जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर राष्ट्रहित की बात करती थी और बाकी राजनीतिक पार्टियों के रवैये की आलोचना करती थी।
जम्मू-कश्मीर में पिछले तीन-चार वर्षों में आतंकी घटनाओं में बढ़ोतरी देखी गई है। दो अगस्त, 2017 को संसद में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने आतंकी घटनाओं केआंकड़े रखते हुए कहा था कि जम्मू-कश्मीर में वर्ष 2014 में 222, वर्ष 2015 में 208, वर्ष 2016 में 322 और वर्ष 2017 (जुलाई तक)184 आतंकी हमले हुए। 2016 में हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी की सुरक्षा बलों केहाथों मौत के बाद जो भीषण उपद्रव कश्मीर में देखने को मिला उससे यही स्पष्ट हुआ था कि घाटी के नौजवानों का एक बड़ा तबका भारत विरोधी जिहाद की ओर आकर्षित हुआ है। विश्वभर में इस्लामी जगत में जो कुछ घटनाएं घट रही हैं उससे कश्मीर के लोग और विशेषकर युवा अनभिज्ञ नहीं हैं। इस्लामी जगत की घटनाओं का सीधा प्रभाव कश्मीर घाटी के युवाओं पर पड़ रहा है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने यह काम और आसान कर दिया है। कश्मीर में सोशल मीडिया के माध्यम से इस्लामी कट्टरपंथी विचारधारा का प्रचार बड़ी तेजी से हो रहा है। इस बारे में हाल में थलसेनाध्यक्ष बिपिन रावत भी चिंता जता चुके हैैं। कश्मीर में तथाकथित आजादी की लड़ाई का असली चेहरा भी बार-बार देखने को मिलता है। यह वही चेहरा है जिसे कश्मीर का वैध संघर्ष बताकर मीडिया के कुछ लोगों और देश-विदेश के बुद्धिजीवियों की ओर से आम लोगों को भटकाने का प्रयास किया जाता है। जब कश्मीर बीते साल की घटनाओं से उबरने की कोशिश कर रहा है तब वहां महिलाओं की चोटी-काटने की घटनाएं सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक नया सिरदर्द बनकर सामने आ रही हैैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उत्तरी एवं दक्षिणी कश्मीर के ग्रामीण इलाकोंमें आतंकी गतिविधियां अभी भी जारी हैैं। नि:संदेह बीते कुछ समय में सुरक्षा बलों ने तमाम आतंकी सरगनाओं को सफलतापूर्वक ढेर किया है, लेकिन इस कोशिश मेंं कई जवानों को शहादत का सामना करना पड़ा है। एक तथ्य यह भी है कि जम्मू संभाग में भाजपा-पीडीपी सरकार के प्रति रोष बढ़ता जा रहा है। लोगों को शिकायत है कि जम्मू के मसलों को नजरअंदाज किया जा रहा है। लोगों को यह शिकायत तो है ही कि जम्मू के विकास को प्राथमिकता नहीं दी जा रही है। इसके अलावा वे इससे भी खफा हैैं कि अवैध रूप से आ बसे रोहिंग्या प्रवासियों के मामले में कुछ नहीं किया जा रहा है। हाल में जम्मू की उपेक्षा का सवाल उठाते हुए पीडीपी के नेता विक्रमादित्य सिंह ने पार्टी छोड़ी है। उन्होंने पीडीपी के साथ ही विधान परिषद की सदस्यता भी छोड़ दी है। वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह के बेटे हैैं।
जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष वार्ताकार की नियुक्ति कोई नई बात नहीं है। संप्रग-एक सरकार के समय जम्मू कश्मीर राज्य के लिए पांच कार्यकारी समूह बनाए थे। इसी तरह संप्रग-दो के वक्त तीन वार्ताकारों-दिलीप पड़गांवकर, राधाकुमार, एमएम अंसारी को नियुक्त किया गया था। इसके अतिरिक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य के मसलों को हल करने के लिए राउंड टेबल कांफ्रेंस आयोजित की थीं। इसके और पहले पूर्व रक्षामंत्री कृष्णचंद्र पंत और जम्मू-कश्मीर के वर्तमान राज्यपाल नरेंद्र नाथ वोहरा भी केंद्र सरकार के वार्ताकार रह चुके हैैं। सभी जानते हैैं कि इन सारी कवायद का कोई हल नहीं निकला। एक सच यह भी है कि ज्यादातर वार्ताकारों की रपटें सरकारी अलमारियों में धूल खाती रहीं। यह समय ही बताएगा कि नवनियुक्त वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा का तौर-तरीका क्या होगा और वे किस-किस से बात करेंगे, लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि मोदी सरकार के पास जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य की समस्याओं के हल के लिए कोई ठोस उपाय है।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं कश्मीर मामलों के जानकार हैं ]