पाकिस्तान के साथ कैसे निर्वाह हो
युद्ध और भी बदसूरत हो जाता है जब पुराने पड़ोसियों के बीच हो। एक दूसरे को हानि पहुंचाने और नीचा दिखाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
कुलदीप नैयर
युद्ध बुरा है। यह और भी बदसूरत हो जाता है जब पुराने पड़ोसियों के बीच हो। एक दूसरे को हानि पहुंचाने और नीचा दिखाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। पाकिस्तान ने दो भारतीय सैनिकों की हत्या कर दी और उनके शव को तब क्षत-विक्षत कर दिया। यह बर्बरता की हद को छूने वाली घटना है। यह घटना तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन के उस सुझाव के तुरंत बाद घटी जिसमें उन्होंने पाकिस्तान और भारत के बीच के गतिरोध दूर करने के लिए कश्मीर पर बहुपक्षीय बातचीत की बात कही थी। नई दिल्ली उनकी राय के खिलाफ है, क्योंकि उसका मानना है कि कश्मीर दो पक्षों के बीच की समस्या है और इसे दोनों देशों को आमने-सामने बैठकर सुलझाना चाहिए। सैनिकों का सिर काटना नई बात नहीं है। दोनों ओर की सेना पर ऐसा करने का आरोप है। निराशा की बात यह है कि पाकिस्तान ने घटना से साफ इन्कार कर दिया। यह भी दुर्भाग्य की बात है कि उसने कोई खेद या दुख प्रकट नहीं किया। एक संभावना हो सकती थी कि संयुक्त राष्ट्र सच्चाई का पता लगाए, लेकिन नई दिल्ली ने हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय को भारत के खिलाफ पाकिस्तान की याचिका स्वीकार करने से इस दलील के आधार पर रोक दिया कि दोनों पक्ष आपस में ही मामला सुलझाते हैं और इसलिए वह तीसरे पक्ष को अनुमति नहीं दे सकती, लेकिन घटना इतनी गंभीर है कि इसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता है। पहले जो घटनाएं हुईं उनके बारे में भारत के पास यह साबित करने के लिए सबूत था कि लश्करे-तोइबा का प्रमुख हाफिज सईद, जिसे अब नजरबंद कर दिया गया है, सीमा पर मौजूद था। इस बार पाकिस्तान अपनी ओर से जांच का आदेश देने में विफल रहा। हो सकता है कि यह अनियमित सैनिकों की ओर से किया गया हो। वे इस्लामाबाद की जंग करने वाली सेना का हिस्सा लगते हैं।
पाकिस्तान पहले से ही आंतरिक हिंसा का सामना कर रहा है। तालिबान हर रोज 20-25 पाकिस्तानियों को मार रहा है और ऐसा कोई इलाका नहीं है जो उनकी बंदूक के निशाने से बाहर हो। यह समझ नहीं आता कि पाकिस्तान लगातार घरेलू हिंसा का सामना कर रहा है और फेडरल एडमिनिस्टे्रटिव ट्राइबल एरिया में तालिबान से युद्ध कर रहा है, फिर भी वह भारत के खिलाफ मोर्चा क्यों खोले है? वास्तव में इस्लामाबाद ने पश्चिमी सीमा पर लड़ाई के लिए भारत की सरहद से कुछ फौज हटा ली है। भारत को यह समझना चाहिए कि अगर पाकिस्तान कभी भी बरबाद होता है तो भारत को तालिबान का सीधा खतरा झेलना पड़ेगा और अस्थिरता का सामना करना पड़ेगा। हमारी नीति यह होनी चाहिए कि पाकिस्तान को उसके निराशाजनक हालात से कैसे बाहर निकाला जाए? एक कमजोर पाकिस्तान भारत के लिए खतरा है। भारत पर्याप्त ताकतवर है। तनाव में किसी भी प्रकार की बढ़ोतरी या माकूल समय पर माकूल जवाबी कारवाई सिर्फ हालात बिगाड़ेगी। बातचीत ही परिस्थिति सुधारने का एकमात्र रास्ता है और इसे कभी भी स्थगित या कम नहीं करना चाहिए। बातचीत का कोई विकल्प नहीं है, लेकिन मैं पाकिस्तान की ओर से आ रहे कुछ गैर जिम्मेदाराना बयानों पर अचरज में हूं कि सरहद पर हो रही झड़पों के बावजूद बातचीत जारी रहनी चाहिए। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संयम और परिपक्वता दिखाई है और उन्होंने कोई विपरीत टिप्पणी नहीं की, लेकिन नई वीजा नीति को रोके रखने का सरकारी फैसला सिर्फ दोनों ओर के लोगों के बीच संपर्क को कम करेगा जबकि बेहतर आपसी समझ के लिए यह जरूरी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह बयान समझ में आने लायक है कि पाकिस्तान के साथ संबंध पहले की तरह जारी नहीं रह सकते। हालांकि सर्जिकल स्ट्राइक का उम्मीद के मुताबिक असर हुआ था, लेकिन मेरा अनुभव यही कहता है कि जब भारत कदम पीछे लेता है और विचार करता है तो पाकिस्तान अपने कठोर रवैये को छोड़ देता है। हमें सीखना है कि एक कट्टर पाकिस्तान के साथ किस तरह रहना है। मुझे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के व्यापार महानिदेशक इस्माइल खान के कुछ साल पहले दिए गए बयान की याद आती है। उन्होंने कहा था कि जब तक सरहद पर झड़प बंद नहीं होती, सीमा के आर-पार व्यापार और यात्रा स्थगित रहेगी। यह एक अदूरदर्शी कदम था जिसने निश्चित तौर पर उतना ही नुकसान पाकिस्तान को पहुंचाया होगा जितना भारत को। कुछ वजहों से दोनों ओर के पूर्व सेना अधिकारी और ज्यादा हमलावर हो गए हैं। पाकिस्तान नेवी के एडमिरल इकबाल के उस बयान को सुनकर मुझे धक्का लगा था। इसमें उन्होंने भारत को हजार साल के मुस्लिम शासन की याद दिलाई थी। ऐसी ही अंधराष्ट्रवादी सलाह एक रिटायर्ड मेजर जनरल ने की थी कि सैनिक कारवाई ही पाकिस्तान के साथ भारत की समस्या का हल है। दोनों को समझना चाहिए कि दो देशों के बीच संघर्ष कोई सड़क पर होने वाला झगड़ा नहीं होगा। उनके पास परमाणु हथियार है और सबसे बुरा घट सकता है। दोनों देश के नागरिक समाज निराशाजनक साबित हुए हैं। स्थिति का निष्पक्षता से विश्लेषण करने के बदले उन्होंने अपने-अपने देशों के नजरिये का समर्थन किया है।
खेद की बात है कि जब भी सरहद पर टकराव होता है या कोई विवाद खतरनाक रूप अख्तियार करता है, नागरिक समाज सदैव सत्ता के साथ होता है। अगर दोनों नागरिक समाज शांति के पक्ष में अपनी ताकत लगा देते और चीजों के बारे में साफ-साफ बात करते तो उनकी बात सुनी जाती। नई दिल्ली का यह आकलन शायद सही हो कि संघर्ष विराम का उल्लंघन आतंकियोंं को कश्मीर घाटी में प्रवेश कराने के लिए है, लेकिन घाटी में तैनात सुरक्षा बल इतने ताकतवर हैं कि वे उन्हें खदेड़ सकते हैं। तनाव का नतीजा कश्मीर के लोगों पर बुरा असर डालता है। वे और असुरक्षित महसूस करते हैं और उन्हें सर्वाधिक बुरा होने का डर सताता है। यासिन मलिक और शब्बीर शाह समेत सभी अलगावादी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि वे लगातार अप्रासांगिक हो रहे हैं। हुर्रियत के साथ भी यही हो रहा है। मेरी कामना है कि दोनों देशों का शासन संघर्ष विराम को पवित्र समझे। इसे शिमला समझौते के तहत नियंत्रण रेखा में तब्दील किया गया है। उस समय प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने इसका स्वागत शांति की रेखा कह कर किया था। पिछले तीन दशकों में इसका उल्लंघन कभी-कभार ही हुआ है। सरहद पर खून-खराबे ने अनावश्यक रूप से यथास्थिति को भंग किया है। जल्द ही दोनों पक्षों को यह समझना चाहिए कि कुछ समझौता जरूरी है।
[ लेखक जाने-माने पत्रकार एवं स्तंभकार हैं ]