जिस समय देश और मीडिया का ध्यान पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के हो-हल्ले में उलझा हुआ था उस दौर में सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी पर कम ही लोगों का ध्यान गया होगा। यह टिप्पणी मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ द्वारा किसानों की आत्महत्या के संगीन मामलों पर दायर एक जनहित याचिका के संदर्भ में आई है। देश भर में खेती और किसानों की बिगड़ती हालत सुधारने के लिए फसल बीमा सहित कई सरकारी घोषणाओं के बावजूद देश के अन्नदाता किसानों की आत्महत्या का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।

नोटबंदी के कारण रबी की बुआई वैसे भी देर से हुई है और इसी बीच डीजल के दाम भी बढ़ गए हैं। इस पर चिंता जताते हुए माननीय अदालत ने कहा कि किसान की मौत के बाद उसके पीड़ित परिवार को मुआवजा दे देना इस गंभीर समस्या का माकूल हल नहीं है। किसान अक्सर बैंक से लिया कर्ज न चुका पाने की स्थिति में ऐसा आत्मघाती कदम उठाते हैं। ऐसे में सिर्फ किसी मृतक किसान के परिवार को मुआवजा देकर कर्तव्य की इतिश्री मान लेना समस्या की मूल वजह को नजरअंदाज करना है। 1चुनावों के समय किसान वोटबैंक की ठकुरसुहाती हमेशा होती आई है। इस बार भी विधानसभा चुनावों में लगभग हर दल के घोषणापत्र में किसानों को फिर से बैंक कर्जमाफी का आश्वासन दिया गया है। यहां 2008 के बजट में तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा कृषि कर्जमाफी की घोषणा और उसके नतीजों पर गौर करना आंखें खोलने वाला साबित होगा।

वर्ष 2008 में छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए कर्जमाफी का एक बड़ा अभियान चलाया गया था। इसके तहत एक लाख करोड़ रुपये से अधिक राशि के कर्ज माफ किए गए थे। फिर भी उसके लगभग एक दशक बाद भी छोटे किसानों की दशा दयनीय क्यों बनी हुई है कि प्रत्येक दल उन्हें कर्जमाफी का सब्जबाग दिखाकर बड़े-बड़े वादे कर रहा है। दूसरी ओर शीर्ष अदालत पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक देश के अलग-अलग हिस्सों में सैकड़ों किसानों की आत्महत्या का गंभीर संज्ञान लेकर कह रही है कि मुआवजा नाकाफी है? इस मामले में हैदराबाद की एक अकादमिक संस्था ‘सेंटर फॉर एनालिटिकल फाइनेंस’ का शोध खासा उल्लेखनीय है। शोधकर्ताओं ने पाया कि 2008 में बैंक का कर्ज न चुका पाने पर न किसानों को कर्जमाफी मिली थी उनमें से तकरीबन 50 फीसद बहुत छोटी (दो हेक्टेयर से कम) जोत वालों को अगले चार साल तक किसी बैंक ने कर्ज नहीं दिया। इसी तरह उनसे कुछ बड़ी जोत वाले (लगभग 50 फीसद) किसानों को कर्ज मिल गया, लेकिन वे पहले की तरह इस बार भी सही समय पर ब्याज तक चुकाने में नाकाम रहे।

आखिरकार उन्हें फिर गांव के उन्हीं साहूकारों की शरण लेनी पड़ी जो बैंकों से कई गुना अधिक ब्याज पर पैसे देते हैं और वसूली भी कड़ाई से करते हैं। नतीजा फिर वही यानी आत्महत्या। वर्ष 2008 में व्यापक स्तर पर हुई सरकारी बैंकों की कर्जमाफी के दायरे में तकरीबन चार करोड़ किसान आए थे। वह योजना यदि सही तरह से परवान चढ़ती तो आज हालात जुदा हो सकते थे। देश में खेती-किसानी कहां से कहां पहुंच चुकी होती। मगर बैंकों की कर्जमाफी से लाभान्वित 9,759 धारकों से संबंधित आंकड़ों से साबित हुआ कि दूध से जले बैंक छाछ को फूंक-फूंककर पी रहे हैं। अपने अनुभव के उजास में वे अब दो हेक्टेयर से कम जोत वाले ऐसे किसानों को कर्ज देने से बचते हैं नका ब्याज सही समय पर जमा नहीं होता और कई बार मूल राशि भी डूब जाती है। इसकी वजह यही है कि चुनावी दौर में हमारी सरकारों को जनहितकारी छवि बनाने की खुजली उठती रहती है। इससे बड़ा नुकसान होता है।

किसानों को बिजली पानी मुफ्त तथा कर्जमाफी दिलाकर उनको भले वाहवाही मिले, लेकिन तमाम बिजली कंपनियां, जल बोर्ड और बैंक घाटे में चले गए हैं। औपचारिक बैंकिंग क्षेत्र को कड़ाई बरतने पर दोष क्या देना? आखिर उनको भी तो अपना धंधा चलाना है और शेयरधारकों के लिए मुनाफा कमाकर देना है। बैंक भले ही साहूकारों से कम ब्याज पर कर्ज देते हों, लेकिन वे इस क्षेत्र में परमार्थ के लिए तो कारोबार नहीं करते। इसलिए अगर उनके प्रबंधकों-प्रशासकों को लगता हो कि अमुक वर्ग उनसे कर्ज लेकर नियमित ब्याज चुकाने में नाकाम रहेगा और उसके बाद चुनावी वादों के चलते कर्जमाफी भी पा लेता है तो वे अगली दफा उसे कर्ज देने में आनाकानी ही करेंगे। छोटे किसानों के कर्ज पाने के बाद के खर्चो और कर्ज चुकाने के रुझान का अध्ययन करने से यह भी जाहिर हुआ कि उन्हें दोबारा कर्ज हासिल भी हो गया हो तब भी वे उसे चुकाने में नाकाम रहते हैं।

इसकी एक वजह तो यही है कि गरीब परिवारों के पास बचत के नाम पर बहुत मामूली पैसा बचता है और उसके ऊपर हारी-बीमारी, शादी-ब्याह का बोझ तिस पर मौसम पर निर्भरता से अधिकांश छोटे किसान ‘रोज कुआं खोदना और रोज पानी पीने’ को बाध्य हैं। अगर किस्मत की मेहरबानी से उन्हें कर्ज मिल भी जाता है तो खेती की बढ़ती लागत और अनावृष्टि जैसी मौसमी मार से उनकी माली हालत खराब होकर ‘पुनमरूषको भव’ वाली हो जाती है। दूसरी वजह यह भी है कि कई बार निपट गरीबी मनुष्य को आत्मरक्षा में काइयां बना देती है। मतलबी नेता किसानों को झूठे आश्वासन दिलाते रहते हैं कि एक बार रो-धो कर उनका कर्जा माफ हो गया सो कुछ और धरने-प्रदर्शन कराने से वे फिर सरकार को उन पर तरस खाने को मना लेंगे। कुल मिलाकर बेचारा किसान तमाम कोशिशों और कर्जमाफी के बाद भी कमोबेश वैसा ही फटेहाल बना रहता है जैसा कि पहले था।

कहने का मतलब यह भी कतई नहीं कि सरकार किसानों के कष्टों का निवारण न करे, लेकिन यह काम तार्किक तरीके से किया जाना चाहिए। दीर्घकालिक उपचार तो यह होगा कि बदलते मौसम के अनुरूप अब हर कहीं पारंपरिक फसलों के स्वरूप पर दोबारा विशेषज्ञों की मदद से किसानों को माकूल सलाह मिले। बेहतर मंडी व्यवस्था और फसल मूल्य निर्धारण तंत्र बने जो सिर्फ दबाव की स्थिति में ही हरकत में न आए। गल्ले की अंतरराज्यीय बिक्री तथा भंडारण और सिंचाई व्यवस्था भी बेहतर हो। साथ ही गांवों से मंडी तक सड़कों और सर्वसुलभ परिवहन का अच्छा और सहज साध्य तंत्र कायम हो। केंद्र सरकार कहती रही है कि वर्ष 2020 तक वह किसानों की आय दोगुनी कर देना चाहती है। यह बहुत नेक विचार है, लेकिन इसके लिए उपज की बेहतरी के साथ भंडारण और वाब मूल्य का तय होना भी जरूरी बनता है। हाल के दिनों में नोटबंदी की मार ङोलते आलू व टमाटर उगाने वाले किसानों को अपनी उपज खेतों में ही सड़ानी पड़ी या फिर सड़कों पर फेंकनी पड़ी। यह अक्षम्य चूक थी और इसका बार-बार होना सरकार के लिए चिंता का विषय बनना चाहिए।

(लेखिका मृणाल पाण्डे प्रसार भारती की पूर्व अध्यक्ष एवं जानी-मानी स्तंभकार हैं)