15 अगस्त, 1947 को कलात को आजाद देश घोषित किया गया था। उस दिन शुक्रवार की प्रार्थना के बाद कलात के खान ने वहां की जामा मस्जिद से ऐतिहासिक भाषण दिया। उन्होंने कहा कि मैं आपको बलूची भाषा में संबोधित कर गर्व महसूस कर रहा हूं। अल्लाह को बहुत धन्यवाद कि उसने हमारी आजाद होने की इच्छा पूरी कर दी है। उस दिन कलात का परंपरागत झंडा फहराया गया। उसी दिन भारत को भी आजादी मिली थी, लेकिन बलूचिस्तान के बारे में भारतीयों से पूछें तो बहुत संभव है कि वे अपने कंधे उचका कर इस नाम से अनभिज्ञता जाहिर करेंगे। कलात बलूचिस्तान के बड़े हिस्से में शामिल था। वास्तव में एक समय इसकी सीमा बलूचिस्तान में संलग्न थी। कलात ब्रिटिश इंडिया की 560 भारतीय रियासतों का हिस्सा कभी नहीं था। इसकी अलग श्रेणी थी। इसकी प्रकृति एक सहायक राज्य की थी, जिसकी बागडोर ब्रिटेन के विदेश विभाग के हाथों थी। खान ने दिल्ली में रजवाड़ों के राजाओं के सम्मेलन में कभी हिस्सा नहीं लिया। यह कह सकते हैं कि कलात ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का हिस्सा नहीं था।
पाकिस्तान के कुल भूभाग में 43 फीसद हिस्सा बलूचिस्तान का है। पाकिस्तान की लगभग समूची समुद्री सीमा बलूचिस्तान से लगती है। उसकी सीमा अरब सागर के साथ-साथ दक्षिण और मध्य एशिया के साथ ईरान के पठार को छूती है। वह अफगानिस्तान, मध्य एशिया और चीन को समुद्री मार्ग उपलब्ध कराता है। इससे बलूचिस्तान की सामरिक महत्ता का आभास होता है। यही वजह है कि पाकिस्तान ने वहां अपना सैन्य बेस और कराची के बजाय ग्वादर में नौसैनिक बेस स्थापित करना ज्यादा मुनासिब समझा है। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटेन ने ईरान और अफगानिस्तान की सीमा से लगते बलूचिस्तान के क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए कलात से एक समझौता किया। इस संधि ने ब्रिटिश सेना को बलूच जमीन का कुछ समय के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी। समय के साथ ब्रिटेन का इस पर सख्त कब्जा हो गया। कलात के खान को उम्मीद थी कि 1947 के बाद यह क्षेत्र उन्हें वापस मिल जाएगा, लेकिन ब्रिटेन तब उस स्थिति में नहीं था कि वह संधि के अनुसार कदम उठा सके।
19 जुलाई, 1947 को एक समझौते के लिए वायसराय माउंटबेटन नई दिल्ली में एक कलात प्रतिनिधिमंडल से मिले थे। तब उन्होंने 1876 की संधि को कानूनी रूप से मान्यता दी थी और माना था कि कलात एक स्वतंत्र राज्य है। तब पाकिस्तान के प्रतिनिधि अब्दुर रब निश्तार ने बैठक में इसका कोई विरोध नहीं किया था। खान जिन्ना से भी मिले थे और उन्हें भरोसा दिलाया था कि कलात और पाकिस्तान के बीच एक उपयुक्त संधि की जाएगी। बाद में माउंटबेटन के साथ एक बैठक में जिन्ना और लियाकत अली खान ने भी कलात को एक संप्रभु राज्य माना था। इस यथास्थिति को बनाए रखने के लिए उस बैठक में एक समझौते की जरूरत बताई गई थी। हालांकि जिन्ना ने कलात से पूछा कि क्या उसके प्रतिनिधि पाकिस्तान की संविधान सभा में हिस्सेदारी लेंगे, लेकिन कलात ने अपनी स्वतंत्र प्रभुसत्ता के कारण इससे इंकार कर दिया। हालांकि कलात ने माना कि रक्षा, संचार और विदेश मामलों में पाकिस्तान के साथ एक तार्किक समझ-बूझ कायम की जा सकती है। बाद में इसके लिए एक मसौदा तैयार किया गया और माउंटबेटन, जिन्ना और कलात ने इस पर सहमति व्यक्त की। इसमें लिखा गया था कि पाकिस्तान की सरकार कलात को एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य के रूप में मान्यता देती है। पाकिस्तान सरकार द्वारा विरासत में मिली कलात और ब्रिटिश सरकार के बीच हुई संधि पर कानूनी राय ली जाएगी। इस बीच कलात और पाकिस्तान के बीच यथास्थिति बनाए रखने के लिए एक संधि होगी। इस बिना पर खान ने स्वयं को आजाद घोषित कर लिया। राष्ट्रमंडल संबंधों के राज्यमंत्री ने एक विपरीत दृष्टिकोण रखते हुए 12 सितंबर 1947 को कलात के खान को लंदन से एक ज्ञापन भेजा, जिसमें कलात की स्वतंत्र सत्ता पर प्रश्न खड़ा किया गया था। हालांकि तब माउंटबेटन ने उन्हें इसके खतरे से आगाह किया था। पाकिस्तान में ब्रिटेन के उच्चायुक्त से कहा गया कि वह पाकिस्तान सरकार को सलाह दें कि वह कलात से कोई समझौता न करे, क्योंकि उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान पर तस्वीर पूरी साफ नहीं है।
कलात-पाकिस्तान समझौते के तहत पट्टे पर दिए जाने वाले क्षेत्रों पर चर्चा करने के लिए बाद में कलात ने अपने प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को कराची भेजा। लेकिन बैठक फलदायी नहीं रही, पाकिस्तान ने संधि के बजाय अपने में विलय पर जोर दिया। इस प्रकार पाकिस्तान-कलात समझौता आकार नहीं ले पाया। इसके बाद से पाकिस्तान कलात को बलपूर्वक मिलाने का अभियान चलाने लगा। खान ने अपने रक्षा प्रमुख ब्रिगेडियर जनरल परवेज को पाकिस्तान से मिलने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए तैयारी करने को कहा, लेकिन वह हथियारों की आपूर्ति के लिए ब्रिटेन को मनाने में असफल रहे। इस दरम्यान उन्होंने भारतीय शासन और अफगान किंग के पास भी मदद की गुहार लगाई, लेकिन सफलता नहीं मिली। जिन्ना ने कलात के खान को कहा कि वह पाकिस्तान में शामिल हो जाएं, लेकिन उन्होंने इससे इंकार कर दिया। यह भी अटकलें लगाई गईं कि अफगानिस्तान ने खान को यह मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाने में मदद की पेशकश की थी। बहरहाल 26 मार्च 1948 को पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपने तीनों सेना प्रमुखों के साथ बलूचिस्तान पर एक बैठक बुलाई। उसमें निर्णय लिया गया कि जनरल ग्रेसी पूरी ब्रिगेड को बलूचिस्तान भेजेंगे, जिसमें से दो क्वेटा जाएंगी और एक रिजर्व रहेगी। पाकिस्तानी सेना बलूचिस्तान के मरकान सहित कई इलाकों में प्रवेश कर गई। 27 मार्च 1948 को ऑल इंडिया रेडिया ने खबर दी कि भारत के विदेश विभाग के वीपी मेनन ने एक साक्षात्कार में कहा है कि दो माह पूर्व कलात ने भारतीय संघ में शामिल होने की बात कही थी। लेकिन कलात के खान ने इस खबर को सिरे से खारिज कर दिया। बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने भी इसका खंडन किया। बहरहाल 27 मार्च, 1948 को ही कलात के तत्कालीन प्रधानमंत्री डीवाई फील ने पाकिस्तान के पास जाने का निर्णय किया। उन्होंने कलात और पाकिस्तान के बीच मतभेदों को जिन्ना के सामने रखा और कहा कि इस पर उनका जो भी निर्णय होगा कलात को मान्य होगा।
भारत के तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने कलात की स्थिति का फायदा नहीं उठाकर भारी चूक कर दी। उन्होंने कलात को न तो स्वायत्तता हासिल करने में मदद की और न ही पाकिस्तान से निपटने में उसकी सहायता की, जबकि कांग्रेस के नेताओं को बलूचिस्तान की सामरिक स्थिति का अच्छी तरह भान था। लोगों की मांग पर खान ने कलात असेंबली का चुनाव अगस्त 1947 में कराया था, जिसमें नेशनल पार्टी की जीत हुई थी। लेकिन 1947 के बाद से आज तक बलूचिस्तान में शायद ही कभी अच्छी तरह चुनाव हुआ हो और लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ हो। अधिकांश समय तक या तो यहां सैनिक शासन रहा या गवर्नर का शासन रहा है।
[ विदेश मंत्रालय में रहे लेखक राधवेंद्र सिंह, वर्तमान में कृषि मंत्रालय में अपर सचिव हैं ]