शिवेंद्र कुमार सिंह

इस पर हैरत नहीं कि बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधू की कामयाबी देश भर में सुर्खियां बनी। हर किसी ने और यहां तक कि प्रधानमंत्री से लेकर दूसरे तमाम खिलाड़ियों और हजारों आम लोगों ने उनकी उपलब्धि की जमकर तारीफ की। वह इस तारीफ की हकदार भी हैैं, क्योंकि उन्होंने कोरिया ओपन सीरीज पर कब्जा किया। बड़ी बात यह रही कि कोरिया ओपन के फाइनल में उन्होंने उसी खिलाड़ी को मात दी जिससे पिछले महीने उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। पिछले महीने विश्व चैंपियनशिप के फाइनल में नोजोमी ओकुहारा ने सिंधू को हराया था। कोरिया ओपन सीरीज में सिंधू ने उस हार का बदला ले लिया। इन दोनों खिलाड़ियों की काबिलियत और कड़ी प्रतिस्पर्धा का पता 22-20, 11-21 और 20-18 की स्कोर लाइन से चलता है। कोरिया ओपन सीरीज पर कब्जा करने वाली पीवी सिंधू पहली भारतीय खिलाड़ी हैैं। यह इस साल का उनका दूसरा सुपर सीरीज खिताब है। पीवी सिंधू की कामयाबी की चर्चा करते समय हम उनके कोच पुलेला गोपीचंद के योगदान की अनदेखी नहीं कर सकते।
गोपीचंद खुद भी एक बेहतरीन खिलाड़ी रहे हैं। वह ऐसे कोच हैैं जिन्होंने देश को कई नायाब बैडमिंटन खिलाड़ी दिए हैैं। इनमें एक बड़ा नाम साइना नेहवाल का भी है। साइना ने जब लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीता था तब गोपीचंद ही उनके कोच थे। बाद में वह गोपीचंद से अलग होकर कोच विमल कुमार के साथ जुड़ीं, लेकिन कुछ रोज पहले ही उन्होंने वापस गोपीचंद की हैदराबाद की उसी एकेडमी में जाने का फैसला किया जहां उन्होंने विश्व स्तरीय खिलाड़ी बनने का सपना देखा और पूरा भी किया। इस बात से शायद ही कोई इन्कार करे कि हर सिंधू या नेहवाल के लिए एक गोपीचंद की जरूरत होती है। सवाल यह है कि गोपीचंद जैसे अन्य कोच कितने हैैं? बैडमिंटन से बाहर निकलें तो 2016 ओलंपिक में जिमनास्टिक जैसे खेल में भारत को नई पहचान दिलाने वाली दीपा कर्माकर के पास बिश्वेसर नंदी जैसे प्रतिबद्ध कोच हैं। दीपा ने 2016 ओलंपिक में जिमनास्टिक में चौथा स्थान हासिल किया था। दीपा के लिए उनके कोच कई बार अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी नजरअंदाज करते हैं और शायद इसीलिए दीपा उन्हें पितातुल्य मानती हैैं। ओलंपिक में जब वह पदक से चूक गई थीं तो कोच नंदी की आंखें भी गीली थीं। जैसे बैडमिंटन में दूसरा गोपीचंद नहीं दिखता उसी तरह जिमनास्टिक में भी दूसरा बिश्वेसर नंदी खोजना कठिन है। दोनों में समानता यह है कि दोनों देशी कोच हैैं। देशी कोच का महत्व समझाने के लिए दीपा कर्माकर एक दिलचस्प किस्सा बताती हैं। दिल्ली के कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियों से पहले एक विदेशी कोच ने उन्हें एक खास तकनीक से तैयारी करने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि उनकी सरीखी सपाट तलवे वाली लड़की ऐसा नहीं कर पाएगी। इसके बाद दीपा के साथ-साथ उनके कोच ने उस विदेशी कोच की सोच को गलत साबित किया। बिश्वेसर नंदी की लगन को इससे समझा जा सकता है कि उन्होंने अगरतला में संसाधनों के अभाव का रोना रोने के बजाय दीपा की तैयारी एक पुराने स्कूटर के जरिये कराई। इस किस्से को बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि भारतीय कोचों को कमतर आंकना ठीक नहीं है। परेशानी यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिलहाल सिर्फ यही दो भारतीय कोच दिखाई देते हैं जिन्होंने अपनी पहचान साबित की है। एक कोच का सही रोल क्या होता है, यह इन दोनों दिग्गजों ने समझाया है। अगर हमें दूसरे खेलों में इन जैसे कोच चाहिए तो इसके लिए तेजी से काम शुरू करना होगा। इसमें स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया और संबंधित खेल फेडरेशनों का बड़ी भूमिका है।
भारत में खेलों की स्थिति को लेकर यही दो संस्थाएं प्राथमिक तौर पर जिम्मेदार हैं। शायद आपको यह जानकर ताज्जुब हो कि खेल मंत्रालय की भूमिका बहुत बाद में आती है और वह बहुत सीमित भी रहती है। खेल मंत्रालय की सीमित भूमिका के बाद भी नए खेल मंत्री राज्यवद्र्धन सिंह राठौड़ से बड़ी उम्मीदें हैैं? देखना यह है कि उनके खेल मंत्री बनने के बाद हालात बदलते या नहीं? बदलाव और बेहतरी की उम्मीद इसलिए बढ़ी है, क्योंकि एक तो वह खुद बड़े खिलाड़ी रहे हैैं और दूसरे उन्होंने खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालते ही यह घोषणा की कि टोक्यो ओलंपिक, कॉमनवेल्थ और एशियाई खेलों की तैयारियों में जुटे 152 एथलीटों को हर महीने 50,000 रुपये की रकम दी जाएगी ताकि वे अपने जरूरी खर्च पूरे कर सकें। उनके इस फैसले की खूब तारीफ हुई।
खेल मंत्री के रूप में उनके चयन को एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि एक खिलाड़ी के लिए चैंपियन बनने के सफर में आने वाली तमाम रुकावटों से खेल मंत्री कहीं भली तरह परिचित हैैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वह इन रुकावटों को दूर करने के लिए जरूरी कदम उठाएंगे। इस क्रम में उन्हें खेल सुविधाओं के साथ-साथ अच्छे कोच तैयार करने पर खास ध्यान देना होगा। देश को अच्छे कोच के साथ काबिल खेल प्रशासकों की भी जरूरत है। इन तीनों पक्षों में से कोई एक पक्ष भी कमजोर हुआ तो अच्छे नतीजे नहीं आएंगे। इसका प्रमाण यह है कि 2008 और 2012 में बॉक्सिंग और कुश्ती जैसे खेलों में अच्छे प्रदर्शन के बाद फेडरेशन की खींचतान की वजह से इन दोनों ही खेलों में हमारा प्रदर्शन गिरा है। इसी के साथ इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि टेनिस में सेकेंड लाइनअप के खिलाड़ी नहीं हैं तो हॉकी जैसे कुछ खेलों में कोच की किचकिच है। खिलाड़ी, कोच, फेडरेशन और प्रशासकों को कैसे एकजुट किया जाए, यही असली चुनौती है। जो खेल और खिलाड़ी इस चुनौती के मकड़जाल से बाहर निकल पाएगा वही पीवी सिंधू की तरह देश का नाम रोशन कर पाएगा। यह अच्छी बात है कि राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने यह कहकर माहौल बदलने की उम्मीद जगाई है कि खेल सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं होते हैं और न ही उन्हें कॉलेज या स्कूल तक सीमित रखा जाना चाहिए। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि खेल मंत्रालय के माहौल को भी बदलना जरूरी है और साथ ही खेलों को लेकर रवैया बदलने की भी दरकार है। चूंकि उन्होंने वादा किया है कि वह हर उस चीज की शुरुआत करेंगे जिसकी जरूरत भारतीय खिलाड़ियों को है इसलिए उनसे उम्मीदें कहीं अधिक बढ़ गई हैैं।
[ लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैैं ]