गिरीश्वर मिश्र। भारतीय पर्व और उत्सव अक्सर प्रकृति के जीवन क्रम से जुड़े होते हैं। ऋतुओं के आने-जाने के साथ ही वे भी उपस्थित होते रहते हैं। इसलिए भारत का लोकमानस उसके साथ विलक्षण संगति बैठाता चलता है, जिसकी झलक गीत, नृत्य और संगीत की लोक-कलाओं और रीति-रिवाजों सबमें दिखती है। साझे की जिंदगी में आनंद की तलाश करने वाले समाज में ऐसा होना स्वाभाविक भी है। हमारा मूल स्वभाव तो यही सुझाता है कि हम प्रकृति में अवस्थित हैं और प्रकृति हममें स्पंदित है। हमारा अस्तित्ववान होना प्रकृति की ही देन है। जीवन की संभावना अंतत: प्रकृति का ही एक दिव्य उपहार है, एक अनोखा उपहार, क्योंकि सारी तकनीकी प्रगति के बावजूद अभी तक जीवन का कोई विकल्प नहीं मिल सका है। यह अलग बात है कि प्रकृति या दूसरे मनुष्यों के साथ रिश्तों को लेकर कृतज्ञता का भाव अब दुर्लभ होता जा रहा है। फाल्गुन के महीने की पूर्णिमा से यह उत्सव पूरे भारत में शुरू होता है और बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। होली का सामुदायिक उत्सव हमें अपने समग्र अस्तित्व को जागृत करने वाला होता है। वह हमें हमारे व्यापक अस्तित्व की याद दिलाता है। आज इस तरह की बातें आसानी से हमारे ध्यान-पटल पर नहीं उतरतीं। वहां जिन विचारों, अनुभवों और भावनाओं की आपाधापी है, उनकी भीड़ में आज न प्रकृति को आंख भर निहारने की फुरसत मिल रही है और न यह सच्चाई ही महसूस हो पा रही है कि हम मूलतः प्रकृतिजीवी हैं, पर इस सच को नहीं झुठलाया जा सकता कि जीवन निरपेक्ष नहीं होता। प्रकृति है तो ही जीवन है। जल, पृथ्वी, आकाश, अग्नि और वायु जैसे तत्व जीवन के अनिवार्य प्राणदायी आधार-स्रोत हैं और आगे भी बने रहेंगे। प्रकृति माता है और हम सब पर प्रकृति का अकूत ऋण है। इस प्रकृति को चुनौती देती और मानवनिर्मित तकनीकी सब पर हावी हो रही है।

नित्य बढ़ते जा रहे तमाम दबावों के बीच डूबता-उतराता आज का आदमी अपने जीवन में तकनीकी के प्रवेश के साथ खुद अपनी प्रकृति या स्वभाव को बेगाना बनाता जा रहा है। उसका तकनीकजीवी बनता जा रहा मानस जीवन और प्रकृति के साथ अपने अटूट रिश्ते को भूलता-बिसराता जा रहा है। अब उसे पग-पग पर तकनीक की जरूरत पड़ रही है। अब दुख-सुख, प्रेम-मोहब्बत और मान-मनौवल जैसी भावनाओं का इजहार-इकरार सब कुछ मानवीय संवेदना से दूर तकनीक के सुपुर्द होता जा रहा है। जीवन की गाड़ी उसी के भरोसे चल रही है। तकनीकजीवी का जीवन आदमी का अपना जीवन नहीं होता है। वह टिका हुआ है सूचना के अनवरत प्रवाह पर। इसमें आगत से अधिक अनागत या ठीक से कहें तो जो आने वाला है या आ सकता है उसकी चिंता और भय वर्तमान को डंसे जा रहे हैं। इसलिए कुछ करने से अधिक जो हो रहा है उसकी पल-पल निगरानी और हिसाब-किताब करते रहने की जरूरत बढ़ती जा रही है। लोग लगातार ई-मेल या वाट्सएप देखने को बेताब रहते हैं और मोबाइल पर उनकी अंगुली लागातार चलती ही रहती है। श्वास-प्रश्वास की तरह मोबाइल-संचालन हमारे जीवन का एक अहर्निश चलने वाला व्यापार होता जा रहा है। यह जरूर है कि इसमें एक किस्म की सृजनशीलता का भ्रम जरूर छिपा रहता है और लगता है कि हम कुछ कर रहे हैं।

मनुष्य समाज में पैदा होता है और उसी में पलता-बढ़ता भी है। होली के दौरान उत्फुल्लता मन और वन, दोनों में एक साथ निखर कर सामने आते हैं। वसंत का चरम उत्कर्ष तब होता है, जब शीत काल की ठिठुरन बीतने के बाद परिवेश में ऊष्मा का संचार होता है। खिलखिलाते रंग-बिरंगे फूलों के गहनों से लदी-सजी प्रकृति सबके स्वागत के लिए सजीव हो उठती है। तब खुद को जीवन-कार्य में जोड़ने की तैयारी का अवसर मिलता है। खेती-किसानी के लिए भी होली एक प्रस्थान बिंदु जैसा होता है। चैत के महीने में वासंतिक नवरात्र के साथ भारतीय नव वर्ष शुरू होता है। नए की भावना द्वंद्वों और संघर्षों से उबरते हुए नए समारंभ करने की प्रेरणा वाली होती है। रंगों और प्रेम भाव से सुवासित समानता और समता की गारंटी देने वाला होली का उत्सव आवाज देता है कि अपने-अपने अहं का विसर्जन कर आगे आओ। यह बैर का दहन कर उल्लास का प्रसाद बांटने का अवसर होता है। रंगों में भीगने-भिगोने के बाद होली के दिन रुचिकर व्यंजन भी बनते हैं और परिजनों के साथ खान-पान का आनंद लेते हैं। संगीत और काव्य की दृष्टि से होली का अवसर सृजनशीलता को आमंत्रित करता रहा है।

होली पर सभी सबको एक रंग में रंगने को आतुर रहते हैं। सबको एक-सा बनाने का प्रयोजन सौहार्द और निकटता की भावना को जगाना होता है। इसका एक अभिप्राय यह भी है कि हम उस अविभक्त अव्यय भाव को महसूस करें, जो अव्यक्त हो कर सबके अंतर्मन में व्याप्त रहता है। अपनी-अपनी अस्मिताओं को बचाने और बनाने का उत्सव तो सब करते हैं, पर उसे छोड़ कर व्यापक समष्टि की अस्मिता अपनाने का साहस दिलाना होली का प्रयोजन है। अपनी अस्मिता को छोड़ या उसका विस्तार कर बड़ी अस्मिता को अंगीकार करना सामाजिक परिवर्तन की शक्ति होती है। इसके साथ समानताओं की पहचान भी जरूरी है। हम सिर्फ एक दूसरे से भिन्न हैं, यह कहना अधूरी बात होगी और असत्य भी, क्योंकि हम सबमें व्यापक समानताएं भी हैं। मनुष्य होने के लक्षण सबमें हैं और मनुष्यता भी इसीलिए जीवित है, क्योंकि सभी किसी न किसी सीमा तक मनुष्यता से जुड़े हैं। होली का संदेश यही है कि संकुचित और छुद्र अस्मिताओं से ऊपर उठ कर देश और समाज की व्यापक अस्मिता का अंग बनते हुए ही हम उन्नति के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं।

(लेखक शिक्षाविद् हैं)