हर्ष वी पंत

मोदी सरकार के तीन साल का कार्यकाल पूरा होने के अवसर पर उसके प्रदर्शन का आकलन पेश करने की होड़ मची है। सरकार भी खुद अपनी उपलब्धियों का प्रचार कर रही है और प्रधानमंत्री ने भी अपनी सरकार के प्रदर्शन आकलन का स्वागत करते हुए कहा कि वह रचनात्मक आलोचना का स्वागत करते हैं जो हमारे लोकतंत्र को मजबूत बनाता है। असल में किसी भी सरकार के प्रदर्शन को परखने के लिए तीन साल की अवधि बहुत कम है विशेषकर मोदी सरकार जैसी सरकार के लिए तो यह और भी कम है जो सरकार कायाकल्प करने वाले एजेंडे के साथ सत्ता में आई हो। यह ऐसी सरकार है जो भारतीय राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था में आधारभूत बदलाव लाना चाहती है और ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि भाजपा मोदी सरकार के लिए दो से तीन और कार्यकाल की मांग कर रही है। फिर भाजपा के रणनीतिकार यह भी जानते होंगे कि लोकतंत्र का स्वभाव बड़ा चंचल होता है जहां कई बार मुश्किलें एकाएक दस्तक दे देती हैं और मुश्किलों का यह सिलसिला भी बड़ा लंबा खिंचकर अंतहीन हो जाता है जैसा कि अभी कांग्रेस पार्टी के साथ हो रहा है। ऐसे में भाजपा भले ही लंबे समय तक सरकार में बने रहने की रणनीति पर काम कर रही हो, लेकिन यह भी जरूरी हो जाता है कि सरकार के प्रदर्शन की नियमित रूप से परख होती रहे।
विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी सरकार का प्रदर्शन बेहद शानदार रहा है। हालांकि यह बात सरकार के आलोचकों के गले नहीं उतरेगी, लेकिन आप दुनिया के किसी भी कोने में जाइए तो आपको महसूस होगा कि तीन साल पहले नई दिल्ली के बारे में बनी धारणा अब काफी हद तक बदली है। नरेंद्र मोदी ने भारतीय हितों की इतनी मजबूती से पैरवी की जिसने तमाम विश्लेषकों को चौंकाया, क्योंकि जब उन्होंने सत्ता संभाली थी तो विदेश नीति के मोर्चे पर उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं था। वैश्विक मामलों में उन्होंने भारत की पूछ बढ़ाई है और यहां तक कि उनके विरोधी भी उन्हें इसका श्रेय देंगे।
उनके कार्यकाल के शुरुआती महीनों के दौरान यही दलील दी गई कि मोदी भले ही बहुत तन्मयता और जोश के साथ विदेश नीति को आगे बढ़ा रहे हों, लेकिन उसमें कोई ठोस बदलाव नहीं पा पाएंगे। हद से हद शैलीगत बदलाव लाने में ही सफल हो रहे हैं। हालांकि इस सच से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि ताकतवर देशों में नेतृत्व के स्तर पर परिवर्तन होने से विदेश नीति के मामले में नाटकीय परिवर्तन नहीं होता। इसकी रूपरेखा तैयार करने में ढांचागत या बुनियादी कारक कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। इसके उलट अगर हम बारीकी से गौर करें तो पाएंगे कि इस दौरान भारतीय विदेश नीति में कुछ आमूलचूल बदलाव आए हैं। अतीत में इससे पहले भारतीय कूटनीति ने वैश्विक स्तर आ रहे क्रांतिकारी बदलावों पर शायद ही कभी इतनी चतुराई से ताल बिठाई हो। इस लिहाज से मोदी सरकार भारतीय विदेश नीति के चक्र को सुचारू रूप से चलाने में जरा भी विचलित नहीं हुई है। भारत-अमेरिका संबंधों को तेजी से आगे बढ़ाने में झिझक अब इतिहास की बात हो गई है। इजरायल के साथ भारत के संबंध भी आखिरकार मुखरता के साथ मजबूत हुए हैं। सबसे बड़ा बदलाव चीन के स्तर पर आया है जहां भारत अब चुपचाप नहीं बैठता और अपने पड़ोसी को तल्ख तेवर दिखाने से गुरेज नहीं करता। गुटनिरपेक्षता को बड़े सलीके से दफन कर दिया गया है और ताकतवर देशों के साथ पारस्परिक व्यवहार के आधार पर ही कूटनयिक संबंध बनाए जा रहे हैं। गुटनिरपेक्षता के नाम पर नई दिल्ली लंबे समय से चीनी हितों की खुशामद में ही लगी थी। अब भारत चीन की परिधि में भी दबाव बनाने और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थायित्व के लिए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की तरह ताकत का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकता। हालांकि भारत में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आज भी अमेरिकी विरोध की बांसुरी बजाने में ही मगन है, लेकिन उनकी परवाह न करते हुए मोदी ने अपने निर्णायक जनादेश का इस्तेमाल अमेरिका से संबंध मजबूत बनाने में किया है ताकि भारत की प्रगति के लिए उन्हें अमेरिकी पूंजी और तकनीक का साथ मिल सके। इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताकत और दादागीरी को चुनौती देने में वह किसी ऊहापोह के शिकार नहीं हैं।
इसका अर्थ यह भी है कि भारत के प्रतिद्वंद्वी देशों को अब विदेश नीति में भारत के बदले हुए तेवरों से दो-चार होना पड़ रहा है। इससे पहले चीन और पाकिस्तान की करतूतों के जवाब में भारत की ढुलमुल और अपेक्षित प्रतिक्रिया ही नजर आती थी, लेकिन मोदी सरकार ने इन रिश्तों में चौंकाते हुए धारणा बदलने का काम किया है। इसने भारत को अपने दांव दिखाने में खासी सामरिक गुंजाइश दी है। भारत अब उन रास्तों से भी परहेज नहीं कर रहा जिनसे अतीत में वह बचता आया है जिसका परिणाम यही होता था कि भारत की सैन्य कार्रवाई से पाकिस्तान इन्कार कर देता था। लंबे समय तक पाकिस्तान ही सीमा पर भारत के धैर्य की परीक्षा लेता आया है, लेकिन अब तस्वीर यकायक उलट गई है। वन बेल्ट, वन रोड की चीनी मुहिम पर भी ऐसा ही हुआ जो चीन को यही संदेश देता है कि भारत अंतिम वक्त तक अपने पत्ते नहीं खोलता और सीपीईसी के रूप में बीजिंग-इस्लामाबाद की सांठगांठ का कई तरह से जवाब दे सकता है।
निश्चित रूप से चुनौतियां कम नहीं हैं। मोदी सरकार जोखिम लेने के लिए तैयार है और जोखिमों के साथ उनके लिए चुकाई जाने वाली कीमत भी जुड़ी होती है। इस समय पश्चिमी देशों में कई आधारभूत बदलाव आंतरिक राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल रहे हैं। साथ ही शक्तिशाली देशों के संबंधों में समीकरण भी परिवर्तित रहे हैं जिनसे भारत को पूरी गंभीरता के साथ निपटना होगा। जैसे चीन-रूस की बढ़ती नजदीकियां दीर्घावधि में भारत के हितों को काफी प्रभावित कर सकती हैं। इसी तरह ट्रंप के नेतृत्व में चीन-अमेरिकी संबंधों के भी परवान चढऩे के संकेत मिल रहे हैं।
अगर भारत की आर्थिक बुनियाद ऐसे ही मजबूत बनी रहती है और वह अपनी रक्षा नीति को सही तरह से आकार देने में सफल रहता है तो इससे उपजे आत्मविश्वास के दम पर भारत को इन चुनौतियों से निपटने में परेशानी नहीं आनी चाहिए। कुल मिलाकर तीन साल पहले सत्ता संभालने के दौरान जिस नेता की प्रांतीय सोच को लेकर आलोचना की जा रही थी, उसने भारतीय विदेश नीति को चरणबद्ध रूप से उस निर्णायक दिशा में अग्र्रसर किया है जिस दिशा में कदम बढ़ाने की उनके पूर्ववर्तियों ने हिम्मत नहीं दिखाई। उनके आलोचक लगातार इससे असहमति जताएंगे, लेकिन सत्ता के शीर्ष पर कुछ वर्षों तक मोदी की मौजूदगी में भारतीय विदेश नीति निश्चित रूप से खासी अलहदा नजर आएगी। जहां भारतीय राजनीति का भी जिस दक्षिणपंथ की ओर निर्णायक झुकाव हुआ है वह भी एक आधारभूत बदलाव ही है जिसकी अनुगूंज दुनियाभर में सुनाई पड़ेगी।

[ लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं ]