हृदयनारायण दीक्षित

प्रकृति सदा से है। संस्कृति मनुष्य का सचेत सृजन कर्म है। सृजन कर्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है भाषा। भाषा संवाद का माध्यम बनी और प्रीतिपूर्ण समाज का विकास हुआ। भारत बहुभाषिक राष्ट्र है, लेकिन बहुभाषिकता सांस्कृतिक एकता में बाधक नहीं रही। अमेरिकी विद्वान एमेन्यू ने ‘भारत को एक भाषी क्षेत्र’ स्वीकार किया है। सुब्रमण्यम भारती प्रख्यात तमिल कवि थे। उनकी जन्मशताब्दी (1982) पर भारती की चुनिंदा रचनाओं का हिंदी अनुवाद छपा था। एक कविता में भारत माता की उपासना है ‘बोले 18 भाषाएं वह/किंतु एक चिंतन एक ध्यान है।’ भारती ने अंग्रेजी की आलोचना की थी। भारत एक सांस्कृतिक इकाई है। हिंदी, संस्कृत, कन्नड़ या तमिल आदि भाषाएं एक ही राष्ट्रभाव को प्रकट करने का माध्यम हैं। संविधान सभा में तमिलनाडु और कर्नाटक के भी सदस्य थे। अधिकांश सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के समर्थक थे। बावजूद इसके तमिलनाडु व कर्नाटक के कुछ दल व संगठन केंद्र सरकार पर हिंदी थोपने का घटिया आरोप लगा रहे हैं। कर्नाटक के ‘कर्नाटक राक्षणा वेदिके’, राज ठाकरे की मनसे, तमिलनाडु की डीएमके सहित ओडिशा व केरल के कुछ संगठनों ने बेंगलुरु में बैठक की है और हिंदी प्रसार को क्षेत्रीय संस्कृतियां नष्ट करने का अभियान बताया है।
कर्नाटक विकास की दौड़ में प्रगति पर है ही, तमिलनाडु भी विकास कर रहा है। आइटी के क्षेत्र में बेंगलुरु का नाम चर्चित है। यह हिंदी भाषी नौजवानों से भरापूरा है। बेंगलुरु में मेट्रो स्टेशनों पर हिंदी में लिखे नामपट्टों को हिंदी थोपने की साजिश बताया जा रहा है। नीट, सीबीएसई और जीएसटी आदि के बहाने केंद्र पर राज्य के अधिकार कम करने के आरोप भी लगाए गए हैं। तमिलनाडु में डीएमके के कार्यवाहक अध्यक्ष एमके स्टालिन ने इसे चोरी छिपे हिंदी थोपने की साजिश कहा है। उनका आरोप है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार तमिल भावनाओं का सम्मान नहीं करती। एमडीएमके प्रमुख वाइको ने केंद्र को नए हिंदी विरोधी आंदोलन की चेतावनी दी है। संविधान में हिंदी संघ की राजभाषा है। इसलिए क्षेत्रीय राजनीति की मांगें निंदनीय हैं।
भारत में 100 करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी हैं। भारत के बाहर नेपाल, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, ओमान, दुबई, सऊदी अरब, फिजी, म्यांमार, रूस, कतर, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका में भी लाखों हिंदी भाषी हैं। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में हिंदी फिल्मों व टीवी धारावाहिकों का बड़ा दर्शक समुदाय है। दक्षिण भारतीय राज्यों में भी हिंदी का चलन है, लेकिन भाषाई राजनीति की मांगें संकीर्ण हैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रसार को राज्यों के अधिकार छीनने वाला कृत्य कहा है। आरोप है कि केंद्र एक देश, एक धर्म, एक भाषा और एक टैक्स व हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के विचार लागू कर रहा है। सच यह है कि तमिल या कन्नड़ से हिंदी का कोई बैर नहीं। भारतीय भाषाएं अपनी ही हैं। तमिल या कर्नाटक में राजभाषा हिंदी भी चलेगी तो राष्ट्रीय एकता के बंधन और भी मजबूत होंगे। हिंदी सबको जोड़ने का रससूत्र क्यों नहीं बन सकती, लेकिन हिंदी भाषी भी पूर्ण सजग नहीं जान पड़ते। उत्तर भारत में हिंदी की ही तमाम बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग उठती है। बिहार सरकार ने भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में लाने का प्रस्ताव केंद्र को भेजना तय किया है। भोजपुरी हिंदी का ही प्रेमपूर्ण हिस्सा है। मधुरस भीगी भोजपुरी के बिना हिंदी रसहीन होगी। अवधी या बृज को महत्व देने वाले भी ऐसी ही मांग करें तो राजभाषा हिंदी का गौरव अक्षुण्ण कैसे रह सकता है? इस प्रश्न का उत्तर हिंदी भाषियों को ही देना है।
संविधान सभा ने लंबी बहस के बाद 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा बनाया था। 15 वर्ष तक अंग्रेजी में ही राजकाज चलाने का प्रावधान भी किया। राजभाषा आयोग बनाने की भी व्यवस्था की गई। इस आयोग को भारतीय संघ के सरकारी कामकाज के लिए ‘हिंदी के अधिकाधिक प्रयोग और अंग्रेजी के प्रयोग पर रोक आदि के लिए सिफारिश का दायित्व मिला। संविधान (अनुच्छेद 351) में हिंदी का विकास केंद्र का कर्तव्य बताया गया है कि ‘वह हिंदी का प्रसार बढ़ाए। उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी और आठवीं अनुसूची में दर्ज अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात कर शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द लेकर हिंदी को समृद्ध करे।’ हिंदी की समृद्धि और पूरे देश में प्रसार केंद्र का संवैधानिक कर्तव्य है। क्या केंद्र कुछेक संगठनों या राजनीतिक दलों के दबाव में अपना संवैधानिक कर्तव्य छोड़ दे? राजभाषा विरोधी दल या संगठन आखिरकार संविधान का पालन क्यों नहीं करते?
संविधान सभा ने हिंदी को यों ही राजभाषा नहीं बनाया। एनजी आयंगर ने सभा (12.9.1949) में कहा, ‘हम अंग्रेजी को एकदम नहीं छोड़ सकते। ...यद्यपि शासकीय प्रयोजनों के लिए हमने हिंदी को अभिज्ञात किया है।’ पंडित नेहरू ने कहा, ‘हमने अंग्रेजी इसलिए स्वीकार की कि वह विजेता की भाषा थी। ...अंग्रेजी कितनी ही अच्छी हो, किंतु हम इसे सहन नहीं कर सकते।’ 1947 तक अंग्रेजी विजेता की भाषा थी। विजेता अंग्रेज पराजित हो गए। फिर हिंदी विजेता की भाषा क्यों नहीं बनी? संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, ‘हमने संविधान में एक भाषा रखी है। अंग्रेजी के स्थान पर एक भारतीय भाषा (हिंदी) को अपनाया है। हमारी परंपराएं एक हैं। संस्कृति एक है।’ भारतीय भाषाओं से हिंदी का कोई विरोध नहीं। सारी भाषाएं और बोलियां भारत की बहुभाषिकता का श्रंगार हैं। अंग्रेजी भाषा तमिल, तेलुगू, कन्नड़ या मलयालम के सामने कहीं नहीं टिकती। अपनी भाषाएं भारतीय संवाद का माध्यम हैं। राजभाषा के प्रश्न को क्षेत्रीय अस्मिता से जोड़ना असंवैधानिक है और राष्ट्रीय एकता का विध्वंसक भी।
हिंदी का क्षेत्र अपने उपयोगिता मूल्य के कारण ही बढ़ा है। फारसी या अंग्रेजी की तरह उसे राज्याश्रय नहीं मिला। बादशाह फारसी चाहते थे, लेकिन अरबी फारसी के अनेक विद्वानों ने भारत की भाषाई पहचान के लिए हिंदी शब्द का ही प्रयोग किया था। अमीर खुसरो ने इसे हिंदवी या हिंदुवी कहा। ईस्ट इंडिया कंपनी हिंदी की उपयोगिता से परिचित थी। बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने एक पत्रक (29.9.1830) में कहा था, ‘प्रयुक्त भाषा को वादी, प्रतिवादी, वकील और सामान्यजन भी जानें।’ ऐसी भाषा हिंदी थी। स्वाधीनता आंदोलन की भाषा हिंदी थी। गांधी जी ने एक अखिल भारतीय भाषा सम्मेलन (1916) में कहा, ‘मेरी हिंदी टूटी-फूटी है। अंग्रेजी बोलने में मुझे पाप लगता है। वायसराय से भी हिंदी में ही बात करो।’ 1937 में सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाली मद्रास प्रेसिडेंसी की सरकार ने हिंदी पढ़ाने का आदेश दिया था। इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर आंदोलन भी चला। मद्रास के गवर्नर अर्सकिन ने इस आदेश को वापस लिया था। 1965 तक चले हिंदी विरोधी आंदोलन में भी अंग्रेजी को महत्व दिया गया था। तबसे देश ने तमाम प्रगति की है। हिंदी पूरे देश में फैल चुकी है। भाजपा या केंद्र को कोसने के और बहाने भी हो सकते हैं। कृपया संवैधानिक राजभाषा को संकीर्ण राजनीति का मुद्दा न बनाएं।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]