प्रदीप सिंह

देश की राजनीति एक अजब मोड़ पर है। इस समय उलटबांसी सी हो रही है। जो राजनीतिक दल हार रहे हैं वे चैन से बैठे हैं और जो जीत रहे हैं वे ऐसे मेहनत कर रहे हैं जैसे कम से कम अगला चुनाव तो किसी तरह जीत ही लें। पांच राज्यों के चुनाव के बाद से गैर भाजपा दलों का हाल अकबर इलाहाबादी के शब्दों में ‘रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ’ जैसा है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चुनाव नतीजे आने के बाद से लगातार उन राज्यों के दौरे पर हैं जहां भाजपा कमजोर है। यही फर्क है दोनों पक्षों में। एक आम जनता के बीच है और दूसरा एयरकंडीशंड कमरों में बैठकर बयान जारी कर रहा है। इसका परिणाम चुनाव नतीजों में दिख रहा है। सोनिया गांधी के बुलावे पर देश के 13 राजनीतिक दलों के नेता 26 मई को दिल्ली में इकट्ठा हुए। वैसे तो बैठक का एजेंडा राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष के साझा उम्मीदवार के नाम पर विचार करना था, पर असली मकसद आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ महागठबंधन की संभावना तलाशना था। पहली बार ऐसी किसी बैठक में समाजवादी पार्टी की मौजूदगी के बावजूद बसपा प्रमुख मायावती शरीक हुईं। उन्होंने कहा कि वह विपक्ष के साथ हैं। यह बैठक एक तरह से इसका सूचक थी कि राष्ट्रीय राजनीति कांग्रेस के वर्चस्व वाले राजनीतिक दौर में लौट गई है। फर्क इतना है कि अब विपक्षी दल कांग्रेस से नहीं भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस के साथ खड़े होने को तैयार हैं। इसका मतलब है कि सबको इसका एहसास हो चुका है कि कोई अकेले मोदी से नहीं लड़ सकता।
विपक्ष के लिए राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार उतारने या संसद में किसी मुद्दे पर सरकार के खिलाफ साथ आना जितना आसान है, चुनाव में लामबंद होना उतना ही कठिन। वहां साथ आने के लिए किसी को कुछ देना नहीं पड़ता। चुनाव में सबको समझौता करना पड़ता है-किसी को कुछ कम और किसी को ज्यादा। विपक्षी एकता की बात सुनने में तो अच्छी लगती है। किसी भी मजबूत सरकार के सामने सशक्त विपक्ष स्वस्थ जनतंत्र के लिए जरूरी है। इसके बावजूद विपक्ष की एकता की इच्छा जाहिर करने और जमीन पर उसे उतारने में बहुत फर्क है। इस एकता की पहली कमजोरी है कि यह जनता के सरोकार के किसी मुद्दे के बजाय एक व्यक्ति के विरोध के लिए बन रही है। गैर कांग्रेसी दल 1971 में इंदिरा गांधी के खिलाफ इस फार्मूले को आजमाकर औंधे मुंह गिर चुके हैं। आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी हैं सिर्फ इसलिए लोग आपको वोट क्यों दें? क्या आपके पास कोई वैकल्पिक योजना है जो मोदी सरकार से बेहतर है? पहली जरूरी बात यह है कि विपक्ष की एकता के लिए एक अदद मुद्दे का होना जरूरी है। फिर मुद्दा ऐसा होना चाहिए जो आम लोगों के सरोकार का हो। विपक्षी एकता की दूसरी जरूरत है कि तमाम क्षेत्रीय दल अपने मतभेद भुलाकर एक हों। इस मोर्चे पर अच्छी खबर यह है कि उत्तर प्रदेश के दो बड़े क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी साथ आने के लिए तैयार हैं। अब टेस्ट मैच में उतरने से पहले अभ्यास मैच खेलना जरूरी होता है। तो इन दोनों दलों के साथ आने की इच्छा कितनी वास्तविक और कितनी दिखावटी है, इसका पता नवंबर में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों से लग जाएगा। विपक्षी एकता का माहौल बनाना है तो उत्तर प्रदेश से अच्छी जगह क्या हो सकती है? सपा-बसपा और कांग्रेस साथ मिलकर स्थानीय निकाय चुनाव लड़ें। यदि विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत के बाद भाजपा हारती है तो विपक्षी एकता का बड़ा राजनीतिक संदेश जाएगा।
समस्या केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं है। विपक्षी एकता के अभियान में सबसे ज्यादा मुखर ममता बनर्जी के सामने भी एक यक्ष प्रश्न है। क्या वह अपने राज्य में वामपंथी दलों और कांग्रेस के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं? बिहार में दूसरी तरह की समस्या है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सोनिया गांधी के बुलावे पर तो नहीं आए पर प्रधानमंत्री के बुलावे पर अगले ही दिन दिल्ली में हाजिर थे। हालांकि उन्होंने इसकी सफाई में नमामि गंगे परियोजना पर चर्चा और मारीशस के प्रधानमंत्री के दिल्ली में होने का जिक्र किया पर उन्हीं के पार्टी के लोगों के गले यह बात नहीं उतर रही। लालू और उनका साथ बेर केर (रहीम का दोहा है-कह रहीम कैसे निभे बेर केर को संग, वे डोले मन आपनो उनके फाटत अंग) का संग बनता जा रहा है।
सोनिया गांधी की बुलाई बैठक में दो चित्र अपशकुन की तरह नजर आए। मनमोहन सिंह के बगल में लालू प्रसाद यादव बैठे थे और राहुल गांधी के बगल में कनीमोरी। इस चित्र के साथ आम मतदाता कैसे भरोसा करेगा कि यह महागठबंधन (यदि बना तो) भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ेगा? किसी भी विपक्षी एकता में एक मसला सबसे ज्यादा अहम होता है और वह है नेतृत्व का। इस पूरे जमावड़े में नेतृत्व के नजरिये से सबसे विश्वसनीय चेहरा नीतीश कुमार का ही है। ममता बनर्जी टीम के तौर पर काम करने का स्वभाव नहीं रखतीं। वह किसी को मना सकती हैं इसमें संदेह है, पर उन्हें मनाने की जरूरत गाहे-बगाहे पड़ती ही रहेगी। नीतीश कुमार तो पहली ही बैठक में नहीं आए। अब इसके दो ही कारण हो सकते हैं। एक, जिसकी काफी दिनों से अटकल लगाई जा रही है कि वह महागठबंधन की बजाय पुराने गठबंधन में जाने की तैयारी में है। दूसरा जैसे शादी में दूल्हा बाद में आता है वैसे ही उन्हें इंतजार हो कि दावेदारी करने से अच्छा है कि लोग बुलाएं कि आइए हमारा नेतृत्व कीजिए। कोई तीसरा कारण है तो वह नीतीश कुमार ही जानते होंगे। नेतृत्व का मसला इतनी आसानी से हल नहीं होने वाला है। सवाल है कि राहुल गांधी का क्या होगा? क्या कांग्रेस पार्टी इस बात को स्वीकार करेगी कि विपक्षी दलों के महागठबंधन का नेतृत्व किसी और राजनीतिक दल के नेता को दे दिया जाए? नेतृत्व के इस नौ मन तेल का इंतजाम किए बिना विपक्षी एकता की राधा नहीं नाचने वाली।
विपक्षी खेमे में सबसे बड़ा अभाव एक राजनीतिक रणनीतिकार का है। ऐसा कोई व्यक्ति होता तो सोनिया गांधी को एक साथ इन राजनीतिक दलों की बैठक बुलाने की बजाय एक एक करके बुलाने की सलाह देता। ताकि सत्तापक्ष के मन में संशय बना रहे कि और कौन साथ आ सकते हैं? बैठक राष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार उतारने और जिताने के लिए बुलाई गई थी, लेकिन विपक्ष ने अपने सारे पत्ते एक बार में ही खोल दिए। बैठक में आई पार्टियों की संख्या के आधार पर भाजपा ने बता दिया कि ये पार्टियां एक साथ रहीं तो भी राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा का उम्मीदवार एक लाख पंद्रह हजार सात सौ बीस वोटों से जीतेगा। रणनीति तो छोड़िए, विपक्ष को पहले मोदी सरकार के खिलाफ एक जुमला तलाशना चाहिए।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]