आत्मा का स्वरूप ही आनंद का बोध कराता है। जिस मनुष्य को आत्मबोध हो जाता है, वह सदैव प्रसन्न रहता है। जो प्रसन्न नहीं रहता वह न आत्मा को समझता है और न ईश्वर को। शोकग्रस्त, उद्विग्न व विक्षुब्ध मनुष्य तो अनात्म तत्वों के बहाने मात्र हैं। जो क्रोधमुक्त होकर झल्लाते हैं, जिसे आवेश या खीझ का शिकार होना पड़ता है, ऐसे मनुष्यों की आस्तिकता संदिग्ध रहती है। मनुष्य को आत्मबोध करना आवश्यक है, उसे कठिनाइयों से घबराना नहीं, प्रेम करना चाहिए। उनको जीवनरूपी विद्यालय का आदरणीय अध्यापक समझना चाहिए। कठिनाइयों की शिक्षा से ही मनुष्य का बद्धि कौशल विकसित होकर ज्ञान-विज्ञान की इस सीमा तक पहुंचा है, यदि मानव जीवन में आपत्तियां, कठिनाइयां न होंतो मानव जीवन नितांत निष्क्रिय और निरुत्साहपूर्ण बनकर रह जाएगा। इसलिए प्रसन्नता से जीवन को सुखमय बनाना चाहिए। यह भौतिक संसार सर्वत्र प्रसन्नता के लिए ही उपजाया गया है। जो बुरा व अशुभ है, वह हमारी प्रखरता के लिए एक चुनौती है। परीक्षा में प्रश्न-पत्र को देखकर विद्यार्थी रोने लगे तो उसे अध्ययन-मननशील नहीं माना जा सकता।
जिस मनुष्य ने जरा-सी कठिनाई या प्रतिकूलता पर विलाप शुरू कर दिया, उसकी आध्यात्मिकता पर कौन विश्वास कर सकता है? प्रतिकूलता हमारे साहस बढ़ाने, धैर्य को मजबूत करने और सामथ्र्य को विकसित करने आती है। यदि जीवन भली प्रकार संयत हो सके तो वह सबसे भद्दे तरीके का होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जो सरलतापूर्वक गुजर रहा है उसमें न तो किसी तरह की विशेषता रह जाती है और न कोई प्रतिभा। संघर्ष के बिना भी भला नहीं, क्या विश्व में किसी का ऐसा जीवन संभव हो सका है। इसलिए संकटों को जीवन-विकास का एक अनिवार्य उपाय मानकर मनुष्य को उनका स्वागत करना चाहिए, उनको चुनौती स्वीकार करना चाहिए और एक आपत्ति को दस कष्ट सहकर भी दूर करते रहना चाहिए। यही पुरुषार्थ और मनुष्यता है। इसे प्रसन्नता से सफलता की ओर उन्नति का उपाय स्वीकार करना श्रेयष्कर है। नवीन उपलब्धियों में हमें प्रसन्न होना चाहिए। जो कुछ भी प्राप्त हो गया हो उस पर संतोष रखें और भविष्य की शुभ संभावनाओं की कल्पना में सदैव सच्चे मन से प्रसन्न रहना चाहिए।
[ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]