प्रदीप भार्गव

ऐसे समय में जब गांव के सामाजिक-आर्थिक रिश्ते बढ़ते विकास और बाजार की जद में आ गए हों तथा लोग गलाकाट प्रतिस्पर्धा में व्यस्त हों, छल-प्रपंच की राजनीति में अपना स्थान बनाने की जुगत में लगे हों और अपनी स्थिति से हतोत्साहित होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे हों, ऐसे समय में महिलाओं के छोटे-छोटे कारगर समूह मरुस्थल में पानी के दरिया जैसे नजर आ रहे हैं। ऐसे समूहों को स्वयं सहायता समूहों के नाम से जाता है। एक तरफ तो यह सोच है कि सरकार ही गांवों-गरीबों की खेवनहार है। वही उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा, पहचान और प्रतिष्ठा आदि सब दिलाएगी। सरकार से यह सब मांगना नागरिकों का मौलिक अधिकार है और उन्हें यह सब मुहैया कराना सरकार का कर्तव्य भी है। समूची दुनिया में इस सोच को मान्यता प्राप्त है। इसके बरक्स एक दूसरी सोच है कि लोग छोटे-छोटे समूह बनाकर अपनी सहायता स्वयं कर सकते हैं। छोटे-छोटे प्रयासों से अपना जीवन खुद संवार सकते हैं। प्रथम सोच में राज्य और राजनीति का बोलबाला है वहीं दूसरी सोच में लोक और लोकनीति। राजनीति ढोल बजाकर अपने होने का अहसास कराती है, जबकि लोकनीति हंस-बोलकर। स्वयं सहायता समूह इसी लोकनीति की देन हैं। दरअसल इन दिनों अधिकांश गांव की एक म्यान में दो तलवारें हैं, एक राज की और दूसरी महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों की।
जनता आम तौर पर इन समूहों के काम के बारे में जो कुछ भी जानती है, वह इस प्रकार है। महिलाओं के छोटे-छोटे समूह में आठ, दस या अधिक से अधिक बीस सदस्य होते हैं। सभी सदस्य हर हफ्ते दस-बीस रुपये या महीने में पचास-सौ रुपये इकट्ठा करते हैं और उसे बैंक में जमा करते हैं। इस राशि से जरूरत के मुताबिक सदस्य ऋण लेते हैं और उस पर ब्याज देते हैं। इस प्रकार यह राशि बढ़ती जाती है। कुछ समय पश्चात बैंक भी समूह को ऋण देते हैं। समूह के सभी सदस्यों की जिम्मेदारी बन जाती है कि ऋण लिया पैसा समय पर वापस हो। यदि कोई एक सदस्य ऋण चुकता नहीं करता तो समूह के बाकी सदस्य उसे चुकता करते हैं। अब तो कई समूहों ने मिलकर अपने संगठन और बैंक भी बना लिए हैं। विश्व में ऐसा सबसे बड़ा बैंक बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक है।
इस प्रकार महिला समूह का पैसा इकट्ठा कर ऋण लेना और फिर उससे कोई काम-धंधा करना समाज को तो दिखाई देता है, परंतु इसके अलावा भी बहुत घटता है जो उन्हें दिखाई नहीं देता या देख-सुन कर समाज तब तक अंजान बनने की कोशिश करता है जब तक उसका हित न टकराए। वास्तव में इन समूहों के मूल में व्यक्ति है। समूह बनाने वाले मानते हैं कि हर महिला की अपनी पहचान है, उसकी अपनी आवाज और सृजन करने की क्षमता है। इसके विपरीत हमारे देश में घर और समाज में महिला की दोयम पहचान होती है। ऐसे में स्वयं सहायता समूह का यह दर्शन ऐसी मान्यताओं को जोरदार चुनौती देता है। महिलाएं जब समूह बनाकर गांव में बैठ बातें करती हैं तो पुरुषों के चेहरे पर कौतुहल, चिंता और न जाने कितने ही अनेकानेक भाव उतरते-चढ़ते नजर आते हैं।
इन समूहों के संघर्ष की शुरुआत सबसे पहले घर से ही शुरू होती है। समूह में उठने-बैठने वाली महिलाएं जब अपने घर जाती हैं तब उनके लिए बने सामाजिक दायरों और मूल्यों का विच्छेदन होता है। वे घर-परिवार में लड़-झगड़कर या प्रेम व्यवहार से सबसे पहले किसी समझौते पर पहुंचती हैं। फिर उन्हें येन-केन-प्रकारेण घर का समर्थन और कभी-कभी संबल भी मिलता है। आम तौर पर गरीब और पिछड़ी जातियों की महिलाएं इसमें ज्यादा आगे आ पाती हैं। समूह की महिलाएं आगे चलकर समाज में अधिक गतिशील होती हैं और आत्मनिर्भरता की ओर अपने कदम बढ़ा पाती हैं। हर महिला अपने में सृजनशीलता की असीमित शक्ति को प्राण देती है। संगठन में जब उनके आपसी संबंध मजबूत होने लगते हैं तो नए सामाजिक नियम-कायदे भी बनने लगते हैं और सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत होती है। स्वयं सहायता समूह के पास पैसा होता है। जाहिर है कि पैसे में चमत्कारिक शक्ति होती है जिसका अहसास महिलाओं को जल्दी ही हो जाता है। घर और समाज में रिश्ते बदलने लगते हैं। समाज के पद क्रम बिखरने लगते हैं और महिलाएं अपने को इस क्रम में थोड़े ऊंचे पायदान पर पाती हैं। असल दिखाई देने वाला तो उनकी आजीविका और रोजगार में सुधार होना है। ऋण लेकर कोई समूह सिलाई-कढ़ाई कर रहा होता है या फिर बकरी-मुर्गी पालन आदि तरह-तरह के काम-धंधों में ये समूह लग जाते हैं। गुजरात का संस्थान सेवा इनमें सबसे आगे खड़ा दिखता है जहां कामकाजी महिलाओं का ट्रेड यूनियन भी है और सेवा बैंक भी। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में ऐसे समूहों की बड़ी आवश्यकता है जहां गरीबी बहुत अधिक है। हालांकि यहां राजीव गांधी महिला विकास परियोजना नामक संस्था ने आरंभ में कुछ महिलाओं के साथ काम शुरू किया और अब इसके साथ लाखों महिलाएं जुड़ गई हैं। यहां और भी कई ऐसी छोटी-बड़ी संस्थाएं हैं जिन्होंने छोटे स्तर पर शुरुआत की और अब बड़ी हो गई हैं। सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं, पर सबमें एक गुण समान है कि इनसे जुड़ी महिलाओं के चेहरे पर प्रसन्नता देखी जा सकती है।
यह प्रसन्नता कुछ नया करने की, कुछ पा लेने की है। अधिक प्रसन्नता तब होती है जब वे अपने से इतर परिवार और समाज के लिए कुछ कर पाती हैं। पुरुषों में यह गुण कम होता है। बहुत महिलाओं ने अपनी कमाई को सबसे पहले लड़की की पढ़ाई में लगाया। अपने पति को बिना सूद खेती और अन्य कामों में लगाने के लिए पैसा दिया। समूहों के समूह के पास पैसा आया तो उसको बैंक का दर्जा मिला।
ऐसे समूह समझने लगे हैं कि यह तो उन्हीं का पैसा है जो उन्हीं के काम आ रहा है और उन्हीं के काम आने वाला है। किसी की धौंस नहीं है। इस चेतना से ओत-प्रोत हुए ये समूह अपने सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए सचेत हुए हैं। वे बेहतर सेवाएं, रोजगार और कोटे से मिलने वाले अनाज जैसे विषयों पर अपनी बात रखने लगे हैं। जाहिर है कि अगर कभी समाज में बदलते रिश्तों का इतिहास लिखा जाएगा तो महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के बिना इतिहास अधूरा रह जाएगा। यह आधी आबादी का आधा इतिहास है जिसे ठीक से कहने, सुनने और समझने की जरूरत है।
[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं ]