सी उदयभास्कर

बीते दिनों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ग्रेटर नोएडा में एक भीड़ ने जब अफ्रीकी देशों के छात्रों पर हमला किया तो विदेश मंत्रालय की पहल पर हमलावरों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई और इस घटना की निंदा भी, लेकिन अफ्रीकी देशों के राजदूत इससे संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने सरकार के रवैये पर एतराज जताते हुए मामले को यूएन में उठाने की बात कही। उनकी शिकायत थी कि भारत सरकार ने इस घटना की कड़े स्वर में निंदा नहीं की। अफ्रीकी नागरिकों के खिलाफ यह हमला भारत के स्याह पक्ष को दर्शाता है और इसे किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। यह एक हकीकत है कि नस्लभेद की भावना यहां के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में अपनी जड़ें जमाए हुए है। इसके कारण लोग श्वेतों का आदर करते हैं और अश्वेतों का अनादर। इस सामूहिक प्रतिक्रिया की सबसे खराब अभिव्यक्ति उस समय होती है जब कोई भीड़ अश्वेत होने के कारण किसी के खिलाफ हिंसक हो जाती है। अक्सर जहां ऐसी भीड़ लोगों की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब हो जाती है वहीं कुछ लोगों द्वारा उसे गुमनाम लोगों की कायरतापूर्ण हरकत बताकर संरक्षित भी किया जाता है। शासन और समाज भी इस तरह की घटनाओं को अपवाद स्वरूप मानकर हल्के ढंग से लेता है। ध्यान रहे कि ऐसी घटनाएं भारत की अहिंसा के प्रति आस्था और अतिथि देवो भव: की भावना को तार-तार करती हैं। नस्लवादी भाव की जड़ें जटिल जाति व्यवस्था, सामाजिक ढांचे और त्वचा की रंगत में समाहित हैं। यहां ये चीजें सुंदरता और सामाजिक प्रतिष्ठिा का पैमाना बन गई हैं।
ग्र्रेटर नोएडा में 27 मार्च को घटी घटना भारत में अफ्रीकी नागरिकों पर हुए अनेक हिंसक हमलों की एक कड़ी भर है। सबसे निंदनीय घटना फरवरी 2016 में बेंगलुरु में घटी थी। उस समय तंजानिया की एक लड़की को क्रोधित भीड़ द्वारा बुरी तरह पीटा और वस्त्रहीन किया गया था। उसकी गलती सिर्फ इतनी थी कि एक दूसरे अफ्रीकी नागरिक (सूडानी) ने कुछ ही घंटे पहले एक स्थानीय महिला को अपनी कार से कुचल दिया था। उस समय भी राज्य स्तरीय और केंद्रीय नेताओं ने सामान्य रूप से क्षोभ व्यक्त किया था। इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए किसी तरह के कड़े कदम उठाए गए हों, इसके कोई प्रमाण नहीं हैं। दिल्ली के दामन पर दाग तो और भी गहरे हैं। जनवरी 2014 में यहां की सरकार के एक मंत्री ने ही खिड़की गांव में अफ्रीकी नागरिकों के खिलाफ नशाखोरी और मांस के व्यापार का खुलेआम आरोप लगाया और अपने व्यवहार से कानून और मानवीय गरिमा की खिल्ली उड़ाई। उसी साल सितंबर के अंत में यानी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद एक मेट्रो स्टेशन पर अफ्रीकी नागरिकों के खिलाफ भीड़ हिंसक हो गई थी। यह एक विडंबना ही थी कि 27 सितंबर, 2014 को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वसुधैव कुटुंबकम की भारतीय परंपरा के उल्लेख के बावजूद भारत में अश्वेत विदेशियों के खिलाफ इस तरह का नस्लभेदी बर्ताव किया गया।
विश्व भर में अंग्रेजी बोलने वाले छात्रों के बीच भारत शिक्षा का एक आकर्षक केंद्र बनता जा रहा है। अनुमान है कि देश के विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में करीब 42500 विदेशी छात्र पढ़ाई कर रहे हैं। इनमें नाइजीरिया और सूडान के छात्रों की संख्या करीब दस प्रतिशत है। अफ्रीकी महाद्वीप के 54 देशों के तमाम नागरिक पूरे देश में फैले हुए हैं। हालांकि इनमें से कुछ आपराधिक कृत्य जैसे नशाखोरी और वेश्यावृत्ति में लिप्त हो सकते हैं, लेकिन हर अफ्रीकी नागरिक को अपराधी के रूप में देखने की वर्तमान प्रवृत्ति एक खतरनाक सामाजिक व्यवहार है और इसके समाधान की जरूरत है। विदेशों में भारतीय भी त्वचा की रंगत के कारण ऐसे ही नस्लीय अपराध के शिकार होते रहे हैं, लेकिन इस तरह के व्यवहार के प्रति हमारा क्रोध हमें आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित नहीं करता। इस पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर अश्वेत अफ्रीकी लोगों के खिलाफ भारत में नफरत की भावना क्यों है?
हालांकि बीते तीन दशकों से पुलिस और नागरिक प्रशासन द्वारा अफ्रीकी छात्रों के प्रति स्थानीय समुदायों को संवेदनशील बनाने के लिए छिटपुट प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन लगता है कि ये आधे-अधूरे मन से ही किए जा रहे हैं। ग्र्रेटर नोएडा की घटना पर सोशल मीडिया पर सामान्य अफसोस व्यक्त किए जाने के बाद एक अफ्रीकी छात्र का एक नजरिया सामने आया है। भारत में अफ्रीकी छात्रों के एसोसिएशन के अध्यक्ष सैम्युल टी जैक भारतीय शासन के रवैये पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि उनके मन में किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं है। भारत सरकार ने यह देखने के लिए एक अधिकारी भी नहीं भेजा कि अफ्रीकी छात्र वहां कैसे रह रहे हैं? हमारी स्थिति सिर्फ मंत्रियों के ट्वीट से नहीं सुधर सकती। यही असली सच्चाई है और किसी भी तरह का सार्वजनिक बयान, भले ही वह संसद से आया हो या किसी बड़ी अदालत से, एक अपमानित और निराश समुदाय की चिंताओं को शांत नहीं कर सकता। इस तरह की आपराधिक घटनाओं को रोकने के लिए कठोरता और गंभीरता दिखानी होगी, क्योंकि भारत में अफ्रीकी नागरिकों के खिलाफ ऐसी हिंसा की विपरीत प्रतिक्रिया अफ्रीका में भारतीयों के खिलाफ भी देखने को मिल सकती है। अकेले नाइजीरिया में ही करीब 36000 भारतीय हैं और वे हिंसक भीड़ के आसान शिकार हो सकते हैं।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता भी है। यहां संविधान और कानून का शासन है। बावजूद इसके दुखद वास्तविकता यह है कि दिल्ली में मई 2016 में कांगो के एक शिक्षक की तीन लोगों ने हत्या कर दी थी। इस मामले में चार्जशीट दाखिल करने और अपराधियों को पकड़ने में पुलिस को दस महीने लग गए। मामला अब भारतीय न्याय व्यवस्था की भूलभुलैया में प्रवेश करेगा। जाहिर है कि पीड़ित के परिवार से न्याय अभी दशकों दूर है। ग्र्रेटर नोएडा की घटना उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री के संकल्प की परीक्षा भी लेगी जिन्होंने सभी को त्वरित न्याय और सुशासन का वादा किया है। भारत में अफ्रीकी छात्र भी भारतीयों की तरह ही शासन से समान सुरक्षा के हकदार हैं। अच्छा हो कि ग्र्रेटर नोएडा की घटना के साथ ही न्यायतंत्र की लचरता और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर लगे शर्मनाक दाग का अंत हो।
[ लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं ]